Saturday, 4 June 2016

हित वृंदावन भाग 8

हित वृन्दावन भाग 8

कृष्‍णदासजी कहते है-‘जहां प्रत्येक कुंज में सुखद शयनीय की रचना हो रही है, जहां प्रत्‍येक कुंज प्रेम का अयन है, जहां प्रत्‍येक कुंज में प्रेम -संयोग हो रहा है, जहां प्रत्‍येक कुंज में श्रृंगार की नित्य-नूतन सामग्री सजी हुई है, जहां प्रत्‍येक कुंज अत्‍यन्‍त सुवासित है, जहां कुंज-कुंज में मणिजटित रासमंडल विद्यमान हैं, जहां कुंज-कुंज में सहचरियों के समूह सेवा में नियुक्‍त हैं, श्रीवृन्‍दावन-रानी का वह अभिराम धाम वृन्‍दावन शोभा से झलमला रहा है।

कुंज-कुंज सैन सुखद, मैंन ऐन कुंज-कुंज,
कुंज-कुंज संगम संजोग सुख निशानी कौ।
कुंज-कुंज सज्जित श्रृंगार सौंज नई-नई,
कुंज - कुंज भोग जोग सौंधौ मनमानी कौ।।
कुंज-कुंज मंडल -मणि रास तत्‍त थेइ-थेइ,
कुंज-कुंज गाानतान तरलित सुरसानी कौ।
कुंज-कुंज वनितागन जूथनि अभिराम धाम,
झलमलात वृन्‍दावन वृन्‍दावन -रानी कौ।।[1]

राधावल्‍लभीय रसोपासना वृन्‍दावन-रस की उपासना है। वृन्‍दावन -रति ही वृन्‍दावन -रस के रूप में आस्‍वादित होती है वृन्‍दावन-रति, वास्‍तव में, प्रेम-रति है। प्रेम के प्रति प्रेम है श्री वृन्‍दावन -रस प्रेम-रस है। प्रेम के प्रति प्रेम के स्‍थान में ‘वृन्‍दावन’ शब्‍द के प्रयोग का हेतु यह है कि यहां रसिक की रति उस एकरस और नित्‍य नूतन प्रेम के प्रति है जो वृन्‍दावन कहलाता है। रसिक श्‍याम -श्‍यामा हैं, सखी गण हैं, उपासक हैं। तीनों प्रेम के इसी स्‍वरूप के रसिक हैं। वृन्‍दावन में ही वह प्रीति-लता उत्‍पन्‍न है जिस में रंग-रूप के दो फूल श्‍याम श्‍यामा लगे हैं। यह प्रीति -लता श्‍याम-श्‍यामा का ही अवलंब नहीं, सखी-गण और सखी-भावापन्‍न रसिक-उपासकों का भी है। वृन्‍दावन से रति करके ही रसिक -उपासक वहां के सहज प्रेम विलास का आस्‍वाद कर सकता है, उस में प्रविष्‍ट हो सकता है।

श्री प्रबोधानंद सरस्‍वती ने तीन वृन्‍दावनों का उल्‍लेख किया है। पहिला है, ‘गोष्‍ठ वृन्‍दावन ‘ जहां श्री कृष्‍ण गोचारण करते हैं। दूसरा है, गोपियों का क्रीड़ा-स्‍थल वृन्‍दावन , जहां ब्रज-गोपिकाओं के साथ भगवान रास-विलास करते हैं। तीसरा और इन दोनों से विलक्षण, अत्‍यन्‍त आश्‍चर्यमय वृन्‍दावन वह है जहां श्री राधा की निकुंज-वाटी है। यह उस रति का सहज रूप है जो अत्‍यन्‍त शुद्ध और पूर्ण है। सर्वथा स्‍व-सुख-वासना शून्‍य होने के कारण वह अत्‍यन्‍त शुद्ध है और सर्वथा समृद्ध होने के कारण वह अत्‍यन्‍त पूर्ण है।

कृष्‍णथो गोष्‍ठ वृन्‍दावन तत्।
गोप्‍य क्रीडं धाम वृन्‍दानान्‍त:।।
अत्‍याश्‍चर्या सर्वेतोस्‍माद् विचित्रा।
श्रीमद्राधा-कुंज-वाटी चकास्ति।।
आद्योभावो यो विशुद्वोति पूर्णे-
स्‍तूद्रप पा सा ताद्दशोन्‍मादि सर्वा:।।
जय जय श्यामाश्याम । क्रमशः ...  ...

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