हित वृन्दावन 9
श्री प्रबोधानंद सरस्वती ने तीन वृन्दावनों का उल्लेख किया है। पहिला है, ‘गोष्ठ वृन्दावन ‘ जहां श्री कृष्ण गोचारण करते हैं। दूसरा है, गोपियों का क्रीड़ा-स्थल वृन्दावन , जहां ब्रज-गोपिकाओं के साथ भगवान रास-विलास करते हैं। तीसरा और इन दोनों से विलक्षण, अत्यन्त आश्चर्यमय वृन्दावन वह है जहां श्री राधा की निकुंज-वाटी है। यह उस रति का सहज रूप है जो अत्यन्त शुद्ध और पूर्ण है। सर्वथा स्व-सुख-वासना शून्य होने के कारण वह अत्यन्त शुद्ध है और सर्वथा समृद्ध होने के कारण वह अत्यन्त पूर्ण है।
कृष्णथो गोष्ठ वृन्दावन तत्।
गोप्य क्रीडं धाम वृन्दानान्त:।।
अत्याश्चर्या सर्वेतोस्माद् विचित्रा।
श्रीमद्राधा-कुंज-वाटी चकास्ति।।
आद्योभावो यो विशुद्वोति पूर्णे-
स्तूद्रप पा सा ताद्दशोन्मादि सर्वा:।।[1]
इस दृष्टि से वृन्दावन -रति का अर्थ है, वृन्दावनात्मिका रति, वृदावन रूपा रति। प्रेम की वह भूमि है, भूमिका है, ‘जिसके चारों ओर श्यामवर्ण यमुना के रूप में श्रृंगार रस कुंडल बांधकर प्रवाहित होता रहता है और जिसके परम पावन पुलिन पर प्रेम- स्वरुप श्याम- श्यामा श्रृंगार- क्रीडा करते रहते हैं। श्याम- श्यामा वृन्दावन से उसी प्रकार नित्य सम्बन्धित हैं जैसे रस रति से सम्बन्धित हैं। ‘यह न तो कहीं से वृन्दावन में आये हैं और न यहां से कहीं जायेंगे। यहां यह दोनों परावार- विवर्जित और अत्यन्त विषम काम- सागर में अनाद्यनंत क्रीडा करते रहते हैं। इनकी दिव्य कांति सहज रूप से गौर और श्यामल है, इन का नित्य- कैशोर अति आश्चर्यमय है और यह परस्पर अंगों के मिले रहने पर ही जीवन धारण करते हैं। ऐसे युगल जहां रहते हैं, मैं उस वृन्दावन की वंदना करता हूं।
आयातं न कुत श्चन नो गन्तृ स्मरैयाबुधौ-
पारवार विर्जतेति विषमें नाद्यन्त कालं लुठत्।
और-श्यामल दिव्य कांति सहजात्या श्चर्य कैशोरकं।
यत्रास्ते मिथनं मिथुनं मिथोअंग मिलनाज्जीवन्नुमस्तद्वनम्।।
जय जय श्यामाश्याम जी ।
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