हित वृन्दावन भाग 7
उपासना की दृष्टि से वह रस का सहज धर्म है। आधार का काम धारण करना है और जो धारण करता है। वह धर्म कहलता है, ‘धारणात् धर्ममित्याहु:।‘ हितप्रभु के निज-धर्म का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं-‘वहां वृन्दावन की स्थिति है, जहां प्रेम का सागर बहता है'
अब निजु धर्म आपुनौं कहत, तहां नित्य वृंदावन रहत।
बहत प्रेम सागर जहां।।[2]
वृन्दावन की स्थिति के आधार पर ही प्रेम-सागर बहता है। वृन्दावन ने ही प्रेम के सागर को धारण कर रखा है और धारण करने के काराण ही धर्म है। श्री वृन्दावन किंवा प्रेम-धर्म का साधन नवधा-भक्ति है। ‘साधन सकल भक्ति जा तनौ।'
नवधा-भक्ति भी धर्म है, क्योकि उसको धारण करने से प्रेम-धर्म -स्वरूप वृदावन की प्राप्ति होती है। धर्म के दो रूप होते हैं। एक रूप में वह धारण करता है और दूसरे में वह धारण किया जाता है फ धर्म का धारण करने वाला’रूप उसका सहज मौलिक रूप है, अतएव वह साध्य है। धर्म का ‘धारण किये जाने वाला रूप उसका साधन है। धर्म की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये उसके दोनों रूप उसका साधन है। धर्म की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये दोनों रूप आवश्यक हैं और सेवकजी ने दोनों का वर्णन अपनी वाणी में किया है।
वृन्दावन हित का सहज-धर्म है, अत: इसके रूप में हित का अपना सहज एवं अनिर्वचनीय प्रीति-वैभव प्रकट होता है- ‘निजु वैभव प्रगटत आपुनौं’। इस धर्म का निवास श्री राधा के युगल चरणों में है-‘श्री राधा जुग चरन निवास’। श्री राधा के युगल चरणों के आश्रित होते हुए भी यह धर्म उन चरणों का आधार बना हुआ है। सेवक जी ने, इसीलिये, अन्यत्र कहा है - ‘धर्मी के बिना धर्म की और धर्म के बिना धर्मी की स्थिति नहीं है। श्री हरिवंश के प्रताप के मर्मज्ञ लोग ही इस मर्म को जानते हैं’-
धर्मी बिनु नहिं धर्म, नाहि बिनु धर्म जु धर्मी।
श्री हरिंवश प्रताप मरम जानहिं जे मर्मी।।[1]
साधारणतया रस को समस्त धर्मो से परे माना जाता है ओर वह है भी। किन्तु रस का भी केाई अपना ‘धर्म है जो उसके समस्त विलासों को धारण करता है। रस की उपासना का पूर्ण रस के धर्म और धर्मी को लेकर बनता है। रस की शुद्धतम स्थिति उसके सहज धर्म के द्वारा और उसका निष्कपट आचरण उसके धर्मी के द्वारा प्रकट होता है। अपने कण-कण में रस का शुद्धतम प्रकाश धारण करने वाला श्री वृन्दावन यदि प्रेम का सहज धर्म है, तेा एक-मात्र प्रेम को अपने सम्पूर्ण आचरणों का नियामक मानने वाले प्रेम-स्वरूप श्रीराधा श्यामसुन्दर उसके सहज धर्मी है। प्रेम के इन सहज धर्म एवं धर्मी के योग से श्री हित प्रभु की शुद्ध रस-उपासना का निर्माण हुआ है। सहचरि सुखजी ने श्री हित प्रभु की ऐ जन्म-बधाई में गाया है कि उनहोंने ‘नव कुंज, नित्य निकुज एवं निभृत -निकुज के आश्रित रस का दर्शन कराकर रस के क्षेत्र में भी धर्म और धर्मी को स्पष्ट दिखला दिया है'-
नव कुंज, नित्य निकुंज, निभृत-निकुंज-रस दरसाइकै।
धर्म-धर्मी रहसि हू मैं दिये प्रगट दिखाइकै।।
श्री हरिराम व्यास ने वृन्दावन को प्रेम की राजधानी बतलाया है जिसके ‘राजा नायक शिरोमणि श्री श्याम सुन्दर और तरूणि -मणि श्री राधिका है’। पाताल से वैकुंठ तक के सब लोक इस राजधानी के थाने हैं। छयानवै कोटि मेघ वृन्दावन के बागों को सींचते हैं और चारों प्रकार की मुक्ति वहां पानी भरती रहती है। सूर्य-चन्द्र वहां के पहरेदार हैं, पवन खिदमतगार है, इन्दिरा चरणदासी है और निगमवाणी भाट हैं। धर्म वहां का कोतवाल है ओर सनकादि ज्ञानी चार गुप्तचर हैं। सतोगुण वहां का द्वार पाल है, काल राज-बन्दी है, कर्म दण्डदाता है और काम-रति सुख वहां की ध्वजा है। वहां कनक और मरकत-मणि की भूमि है ओर कुसुमति कुंज-महल में कमनीय शयनीय नित्य रचना हो रही है। यह स्थान सबके लिये आगम है। यहां के राजा-रानी कभी वियुक्त नहीं होते और व्यासदास इस महल में पीकदानी लिये हुए सदैव उपस्थित रहते हैं।‘
नव कुँवर चक्र चूड नृपति सांवरौ राधिका तरूणि मणि पट्टरानी।
शेष-गृह आदि बैकुंठ पर्यंत सब लोक थानैत, बन राजधानी।।
मेघ छ्यानवै कोटि बाग सींचत जहां, मुक्ति चारौं जहां भरत पानी।
सूर-ससि पाहरू, पवन जन, इदिरा चरणदासी, भाट निगम बानी।।
धर्म कुतवाल, शुक सूत नारद चारू फिरत चर चार सनकादि ज्ञानी।
सतोगुन पौरिया, काल बँधुआ, कर्म डांडिये, काम-रति सुख निसानी।
कनक मर्कत धरनि कुंज कुसुमति महल मध्य कमनीन शयनीय ठानी।
पल न बिछु रत दोऊ, तहां नहिं जात कोऊ, व्यास महलनि लियें पीकदानी।।[1]
कृष्णदासजी कहते है-‘जहां प्रत्येक कुंज में सुखद शयनीय की रचना हो रही है, जहां प्रत्येक कुंज प्रेम का अयन है, जहां प्रत्येक कुंज में प्रेम -संयोग हो रहा है, जहां प्रत्येक कुंज में श्रृंगार की नित्य-नूतन सामग्री सजी हुई है, जहां प्रत्येक कुंज अत्यन्त सुवासित है, जहां कुंज-कुंज में मणिजटित रासमंडल विद्यमान हैं, जहां कुंज-कुंज में सहचरियों के समूह सेवा में नियुक्त हैं, श्रीवृन्दावन-रानी का वह अभिराम धाम वृन्दावन शोभा से झलमला रहा है।'
जयजय श्यामाश्याम ।।।
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