Sunday, 19 June 2016

ललिता सखी वियोग वर्णन भाग 2

ललिता-वियोग-वर्णन भाग 2
सुदर्शन सिंह चक्र

हर्ष से विह्वल, आलोकमयी, पुलकित स्वामिनी को सजाते, सखियों को पुकारते, निकुञ्ज में सुमन श्रृंगार करते ही मेरा हृदय कातर क्रन्दन करता है। हाय! यह हर्ष यह उत्फुल्लता जो इनका सहज स्वरूप है अब उन्माद का स्वप्न बनकर आयी है। यह स्वप्न भी कितने पल का?

ये स्वामिनी जिन्होंने हम सेविकाओं को अपने से भी सदा अधिक माना, सदा आगे रखा, सदा स्नेह-सम्मान दिया, कोई भोग, कोई ऐश्वर्य, कोई पदार्थ हमें दिये बना कभी स्वीकार नहीं किया, अपने सर्वस्व उन मयूर-मुकुटी के प्रेम में भी जो सबको भाग देती रहीं, जिनके संकेत से- जिनकी अनुकम्पा-भरी अनुनय के कारण ही वे हम सबको सान्निध्य-दान करते थे, वही स्वामिनी उन्मादिनी हैं। ललित सुखी होती यदि यह दिन देखने से पहिले मर सकती; किंतु स्वामिनी को इस अवस्था में देखकर मरण की कामना भी अत्यन्त कुत्सा हो गयी है!

'वे आ रहे हैं?' ये चाहे जब वंशी-ध्वनि अथवा उनकी अंग-गन्ध आने का अनुमान करके स्वयं स्नान करने लगती हैं, माल्य-ग्रन्थन करती हैं अथवा अंग-राग लगाने लगती हैं उनके स्वागत को आतुर हो उठती हैं।

बहुत अल्प क्षण आते हैं ये। अन्यथा इनके उत्तप्त दीर्घ श्वास-अजस्त्र अश्रु और स्वेद-धारा- रात्रि में शशि-ज्योत्सना में चीत्कार करती हैं- 'सखि, कहीं दूर ले चल इससे। अन्धकार अधिक अच्छा है। वे नहीं हैं तो यह गरल-बन्धु अब विष-वर्षा करने लगा है।'

उत्तप्त अंग और मलयज-लेपन, उशीर अथवा कमल-पत्र से की गयी वायु इन्हें अत्यधिक संतप्त करती है। यूथिका जाति की मालाएँ तोड़कर फेंकने लगती हैं। मल्लिका के सुमन दृष्टि पड़ते ही मूर्छित होती हैं- 'हाय! ये सुमन क्यों खिलते हैं, जब वे इनको स्वयं चयन करके मेरा श्रृंगार करने वाली समीप नहीं है!'

वे कहीं गये नहीं हैं; किंतु अक्रूर यह क्या दुःस्वप्न दे गया कि मैं भी इस सत्य को पूरी शक्ति से कहने का साहस नहीं कर पाती हूँ। क्यों बार-बार अन्तर में उठता है कि वे अक्रूर के साथ चले गये- मथुरा चले गये और फिर नहीं लौटे? वे मथुरा हैं, यह क्यों मन में आता है?

भैया सुबल कहता है- 'कन्हाई हमारे ही शकट[1] पर बैठा आया। भद्र ने उसका कर पकड़ा तो बोला था- 'तू कुछ दूर चल। मैं मथुरा के इन लोगों को लौटाकर आता हूँ।' हम सब मथुरा की ओर ही देखते आ रहे थे। अपने शकट वृन्दावन की सीमा में आये तो वह पता नहीं किधर से चलते शकट में ही चढ़ आया। बहुत चपल है- कहीं वन में छिपता दौड़ता आया होगा।'

व्रजराज उस दिन आये मथुरा से तो मैया व्रजेश्वरी से कह रहे थे- 'वह मथुरा ही रह गया; किंतु आने को कहा है। वह आवेगा, अतः हम सबको जीतिव रहना है।'

इन दोनों में सत्य किसकी बात है- 'भैया सुबल की या व्रजेश्वर बाबा की?'

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