मनुष्य सदा ईश्वर से दुरी रखता है , पहले कहता है मैं उनके योग्य नहीँ हूँ । फिर जब मनुष्य को सजातीयता अनुभव हो वह सहज हो सके तो भगवान नर सम रूप में रस वितरण हेतु आते है । यहाँ भी मनुष्य भगवान को सहज नहीँ स्वीकार करता । फिर भगवत् लीला को कर्म पाश समान समझने लगता है । उनकी दिव्य क्रिया लीला को सामान्य समझता है । उनके की हुई लीला के फल की चिंता भी करता है । वह यह भूल जाता है कि भगवान नर रूप तो है पर संसार के पाश से बंधे नहीँ और कहीँ ऐसा प्रतीत भी हो तो वह केवल बाहरी लीला भर है जिसका उद्देश्य जगत् की असहजता को कुछ कम करना । वरन् वह कर्म आदि सभी बन्धन से परे है ।
आज मानव भगवत् प्रेम भी करता है तो उसकी भावना में यह बात बैठ जाती है कि मेरा प्रेम सच्चा है । ईश्वर को हुआ ही नहीँ । जबकि ईश्वर का सौन्दर्यतम रूप ही जीव को भगवत् प्रेम सहज हो इसलिये ही है । उसका जिस भी अवस्था में आंतरिक रूप से प्रेम बोध हो इसका अर्थ है कि भगवान के प्रेम नेत्र हम पर गिर चुके है । वरन् साकार - निराकार आदि - आदि प्रपञ्च से स्वरूप में भावना होना सम्भव ही नहीँ , अगर उन्हें प्रेम ना हो तो ।
हाँ , भीतर मन में भगवान को नित्य प्रेम मय जान उलाहना बाहरी रस में हो तब वह एक सुंदर लीला होगी । जैसे गोपियों संग । गोपियोँ के चित् में भगवत् प्रेमरस छलका ही भगवत् माधुर्य से है यह वह जानती है और मानती है फिर वह बाहरी रूप से लीला रस हेतु सभी कुछ प्रेम और उलाहना करती है ।
मेरा जीवन भर एक ही ध्येय रहेगा प्रेम उन्हें ही होता है , बहुत गहरा । हमें उनके रूप माधुर्य का अथवा गुण आदि का बोध हो और हम पर उनका अनुग्रह हो फिर हम उन्हें प्रेम करने लगे यह उनका बहुत उपकार है । वरन् उनका प्रेम ऐसा है कि हम ना भी करें तो भी वह करते ही रहने है , सदा , हर पल । उनके प्रेम का आभास होना या उसे मान लेना यह उनकी बहुत बड़ी कृपा । जिस पल जीव को अपनी और से भगवान से प्रेम हो जाता है , उसका जीवत्व भंग हो जाता है । और वरन् उनका ही प्रेम दर्शन या आदि से हममें उतरता है , हम गहनता से भगवान से सच्चा प्रेम नहीँ करते , क्योंकि उसमें सम्पूर्ण अहम् तिरोहित होता है और यह वास्तविक प्रेम जागृति पूर्व घटता नहीँ । अहम् तिरोहित होना घटना है क्योंकि यह प्रयास से नहीँ होती , प्रयास तो अहम् को पुष्ट ही करते है । यह एक्सिडेंटल स्टेज है । प्रेम मय स्थितियों में घट जाती है ।
सत्यजीत तृषित ।।
इन सब बात का कोई विशेष महत्व नहीँ ।
आप एक लेख देखिये , लेख नहीँ , यह दुर्लभ सत्य है , भाई जी श्री पौद्दार जी के द्वारा । हर प्रेम मय पूर्ण रस और पूर्ण ज्ञान की स्थिति में यह बात अनुभूत् तो होती है पर कहते नहीँ बनती , आध्यात्मिक जीवन में इस विषय को सहज कर रखे , भीतर या बाहर ।
क्योंकि चित् किन्हीं के कहने या सुनने भर से अपने प्रियतम् के प्रति , क्यों ?? ना खड़ा करें । और लीला रूप उनका रस चिंतन करें , प्रेम करें , झगड़ा करें , पर अन्तस् में उन्हें समझ लें कि वह कितने दिव्य और परम् सौंदर्य सागर है । उनकी यह दिव्यता और अपार सौंदर्यता प्रेम कम नहीँ करेगी गहरा करेगी , क्योंकि प्रेम मय स्थितियों में वह योगमाया के आश्रय से अपने भगवत् भाव को भूलना चाहते है और हम जीव भाव को , अहम् को नहीँ भूल पाते ।।।
उनका प्रेम सदा दिव्य है , सदा गहरा , अपना प्रेम कितना ही हो , उनके प्रेम रूपी स्वर्ण के समक्ष सदा पीतल ही । वह पीतल रूपी प्रेम को इतना मान देते यह भी उनका प्रेम । खैर ... ... ...
‘नर-भाव’ की भगवान की लीला, ‘नर के कर्म’नहीं
परंतु यह बार-बार स्मरण रखना है कि इस माधुर्य का अर्थ पूर्णैश्वर्यमय नित्यस्वरूपस्थित श्रीभगवान की ‘नर-भाव’ की मधुरतम लीला है। इस ‘नर-भाव में’ प्राकृत मनुष्य के कर्म की कोई कल्पना नहीं है। यह केवल भगवत्सम्बन्धयुक्त है, भगवान की ही चिन्मयी लीला है। भगवदैश्वर्यविहिन केवल मनुष्यभाव को, चाहे वह कितना ही सुन्दर हो, शुद्ध माधुर्य नहीं कहा जा सकता। भगवान का यह ‘नर-भाव’ मनुष्य में दिव्यप्रेमसुधा - रसमय स्वभाव - स्व-रूप-वितरण के लिये ही है।
ईश्वरभाव रहने से ऐश्वर्य का प्रकाश रहता है और ऐश्वर्य में मनुष्य के साथ समजातीयता न रहने से प्रेमास्पद भगवान और प्रेमी मानव का निकटतम, निर्बाध, निःसंकोच मिलन नहीं हो सकता - मनुष्य ईश्वर को बहुत दूर मानता है और अपने से सर्वथा भिन्नजातीय तथा बहुत ही ऊँचा मानता है। उसमें ईश्वर के प्रति मान-सम्भ्रम रहता है, उनसे भय लगा रहता है और समीप जाने में सदा ही उसे हिचक होती है। पर पूर्णैश्वर्यमय स्वयं भगवान का ऐश्वर्य जब उनकी इच्छा से ही माधुर्य के द्वारा आच्छादित हो जाता है, तब प्रेमास्पद भगवान मनुष्य-से बनकर प्रेमी मनुष्य के बहुत समीप पहुँच जाते हैं और सजातीय नरलीला के द्वारा परस्पर रसास्वादन करते-कराते हुए दिव्य रस का प्रवाह बहाते हैं। साधारण ‘मनुष्य’ और ‘नराकृति परब्रह्म’ में भेद यही है कि मनुष्य कर्मबद्ध पाञ्चभौतिक जन्ममरणधर्मा देह से जुड़ा हुआ है और भगवान के स्वरूप, गुण, क्रिया आदि सभी वस्तुएँ उनसे नित्य अभिन्न, स्वरूपभूत, चिदानन्दघन हैं, अप्राकृत - दिव्य हैं और उनमें देह-देही का भेद नहीं है। - भाई जी ।।। जय जय श्यामाश्याम ।।
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