Thursday, 2 June 2016

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा भाग 6

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा भाग 6

क्रमशः ...
हितप्रभु के तीस-चालीस वर्ष बाद ही होने वाले श्रीध्रुवदास ने इस प्रकार की उक्तियों के संबंध में अपने ‘सिद्धान्‍त-विचार’ में कहा है, ‘जो कोऊ कहै कि मान-विरह महा पुरुषन गायो है, सो सदाचार के लिये। औरनि कौं समुझाइवे कौं कहयौ है। पहिले स्‍थूल-प्रेम समुझै तब आगे चलै। जैसे, श्रीभागवत की बानी। पहिले नवधा भक्ति करै तब प्रेम लच्‍छना आवै। अरु महा पुरुषनि अनेक भांति के रस कहे हैं, एपै इतनौ समुझनौ के उनको हियौ कहां ठहरायौ है, सोई गहनौ|'
ध्रुवदास जी के कहने का तात्‍पर्य यह है कि महापुरुषों की रचनाओं में उनकी मूल भावना को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और उस भावना के विरुद्ध जो उक्तियां दिखलाई दें, उनको महत्‍व नहीं देना चाहिये। चाचा हित वृन्‍दावन दास ने चार महानुभावों को नित्‍य विहार का आदि प्रचारक बतलाया है; सब के मुकट- मणि व्‍यासनंद[1] सुमोखन शुल्क के कुल-चन्‍द्र[2], आनंद- मूर्ति वामी हरिदास जी और भक्ति-स्‍तम्‍भ श्री प्रबोधानंदजी।

सबकेजु मुकट मणि ब्‍यासनंद, पुनि कुसुल सुमोखन कुल सुचंद।
सुत आसधीर मूरति आनंद, धनि भक्ति –थंभ परबोधानंद।।
इन मिलि जु भक्ति कीनी प्रचार, व्रज-व्रन्‍दावन नित प्राति विहार।
जन किये सनाथ मथि श्रुति जु सार, मंगल हू कौ मंगल विचार।।[3]

इनमें से श्रीप्रबोधानंद सरस्‍वती की संपूर्ण रचना संस्‍कृत में मिलती हे। इन चारों के दो-चार या अनेक ऐसे पद या श्‍लोक मिलते हैं जो वृनदावन- रस की मूल दृष्टि से मेल नहीं खाते। ‘हित चतुरासी’ और स्‍वामी हरिदासजी कृत ‘केलि-माल’ की टीकाओं में ऐसे पदों का अर्थ बदल कर उनको मूल भावना के अनुकूल बनाने की चेष्टा की गई है किन्‍तु ऐसे पदों के संबंध में ध्रुवदास जी का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और युक्ति युक्त प्रतीत होता है।

श्रीहित हरिवंश सच्‍चे युगल उपासक हैं और युगल में समान रस की स्थिति मानते हैं। उनकी दृष्टि में श्रीराधा की प्रधानता का अर्थ श्रीकृष्‍ण की गौणता नहीं है। राधा-सुधा- निधि स्‍तोत्र में श्री कृष्‍ण से वे उनकी प्रियतमा के चरणों में स्थिति मांगते हैं और श्रीराधा से उनके प्राणनाथ में रति की याचना करते हैं।[4]

युगल के लिये बिना, अकेले श्रीकृष्‍ण अथवा श्रीराधा से, रस की निष्‍पति संभव नहीं है। श्रीराधा के प्रति पूर्ण पक्षपात रखते हुए भी हित प्रभु अपनी मानवती स्‍वामिनी से कहते हैं, ‘हे राधिका प्‍यारी, गावर्धनधर लाल को सदैव एक मात्र तुम्‍हारा ध्‍यान रहता है। तुम श्‍यामतमाल से कनक लता से समान उलझ कर क्‍यों नहीं स्थित होतीं, और रसिक गोपाल को गौरी राग के गान द्वारा क्‍यों नहीं रिझातीं ? हे ग्‍वालिनि, तुम्‍हारा यह कंचन-सा तन और यह यौवन इसी काल में सफल होने का है। ये सखि, तुम महा भाग्‍यवती हो, अत: मेरे कहने से अब विलम्ब मत करो। तुम को श्‍यामसुन्‍दर के कंठ की माला के रूप में देखने की मेरी अभिलाषा उचित है।
जयजय श्यामाश्याम ।।

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