Tuesday, 21 June 2016

ललिता सखी का विरह वर्णन भाग 3

ललिता-वियोग-वर्णन भाग 3
"सुदर्शन सिंह चक्र"

व्रजराज उस दिन आये मथुरा से तो मैया व्रजेश्वरी से कह रहे थे- 'वह मथुरा ही रह गया; किंतु आने को कहा है। वह आवेगा, अतः हम सबको जीतिव रहना है।'

इन दोनों में सत्य किसकी बात है- 'भैया सुबल की या व्रजेश्वर बाबा की?'
मैं अपनी आँखों को क्या कहूँ? प्रातःकाल जब गायें गोष्ठों से निकलती हैं, उनके पीछे अधरों पर वंशी धरे वे न चलें तो गायें चरेंगी वन में? जब तक गोप मथुरा से नहीं लौटे थे, यही गायें तो हैं जो वन से गोष्ठ और गोष्ठ से वन में भागती फिरती थीं। तृण मुख में लेना ही भूल गयी थीं। अब ये पुनः पुष्ट हो गयी हैं। भरपूर दूध देती हैं। ये किसी और को देखकर प्रसन्न हो सकती हैं?

हम सब प्रतिदिन प्रातः जाते उन पर लाजा नहीं फेंकतीं? सायं हम सबके भाई पुष्प, किसलय पत्र, नव धातुओं से इतना श्रृंगार किये लौटते हैं, अपने उन प्रिय सखा के बिना क्या इनको शरीर-सजाना सूझता? नाचते, कभी पीछे मुड़ते और कभी किसी ओर चपल दृष्टि से देखते गोरज-मण्डित अलकें, वनमाल, भाल वे ही तो मेरी सखी के समीप गवाक्ष में सायं पुष्प प्रक्षिप्त कर जाते हैं। मेरी स्वामिनी सायं प्रसन्न होती हैं, पुलकित होती हैं उस पुष्प को हृदय से लगाकर।

मेरी इन स्वामिनी की शिथिल वेणी किसके कर गूँथते हैं- क्या अब यह भी पहिचानना मैं भूल गयी हूँ। इनको कष्ट न हो, इसलिए केशों को वे खींच नहीं पाते। उलटे उनके करों का स्वेद आर्द्र कर देता है केशों को और उनकी केशों में कुसुम-सज्जा की यह कला क्या और किसी के लिए सम्भव है?

एक ओर यह सब सत्य है और दूसरी ओर मेरी स्वामिनी की व्याकुलता है। व्रजेश्वरी मैया, बाबा और उनके सब सखा- सुबल भैया, भद्र भी तो बार-बार रोते क्रन्दन करते हैं। सब तो कहते हैं- 'हाय! कन्हाई हमें छोड़ गया!'

सुनती हूँ कि वे मथुरा में हैं। बार-बार हृदय में हूक उठती है- 'वे नहीं आये!' लेकिन तब यह देखती क्या हूँ? मुझे समय भी तो नहीं है इसका समाधान करने का। किसी को मथुरा भेजा नहीं जा सकता। सुना है कि वहाँ आये दिन मगधराज जरासन्ध की सेना ही नगर को घेरे शिविर डाले पड़ी रहती है। वे उसके युद्ध में व्यस्त हैं। उन्होंने आने को कहा है। जरासन्ध की विपत्ति टलते ही आवेंगे। ऐसे में किसी को वहाँ जाने से उन्हें संकोच होगा उनका ध्यान व्रज की ओर आया तो विचलित होंगे। अभी तो उनको पूरा ध्यान- पूरी शक्ति जरासन्ध से मथुरा के अपने आश्रितों को बचाने में ही लगाना चाहिये।

वे मथुरा में हैं? यहाँ नहीं है वे? यह भी कहाँ निश्चय कर पाती हूँ। स्वामिनी का यह प्रातः गोचारण के समय और सायं गौओं के लौटने के समय उत्फुल्ल गवाक्ष पर बैठना, वन उनका स्मित-शोभित कमल मुख, वह लहराता मयूर-मुकुट, वह फहराता पीतपट, वक्ष पर वनमाला और वंक दृगों की हृदयहारी विलोकनि- यह प्रतिदिन का स्पष्ट सत्य कैसे अस्वीकार कर दूँ? मथुरा में पता नहीं कौन है। हम सबका किसी भगवान वासुदेव से प्रयोजन भी क्या? हमारे ये व्रजनवयुवराज- ये तो यहीं हमारे मध्य हैं।

मेरी स्वामिनी बहुत सरला, बहुत भोली हैं। ये दिनभर का भी यह वियोग सह नहीं पातीं। गोचारण-श्रान्त वे रात्रि में भी कभी भवन में सो जाते हैं, निकुञ्ज में नहीं पधारते, यह स्वामिनी समझ नहीं पाती हैं। कैसे समझाऊँ इन्हें? इनका यह उन्माद- यह व्याकुता- यह क्रन्दन और मूर्छा मेरे मानस को मथित किये रहती है।

Monday, 20 June 2016

वृंदावन एक सरोज है

राधा विहार विपिन श्रीमद् वृन्दावनधाम पूर्ण अनुराग रस सार समुद्भुत एक सरोज है ।
उस सरोज में जो पीले-पीले केसर है , वें किशोरी जू की सखियाँ है ।
उन केसरों पर जो पराग है , वह श्री श्यामसुन्दर ।
पराग में जो मकरन्द है , वहीँ श्रीराधारानी वृषभानुनन्दिनी हैं ।
श्री कृष्णचन्द्र के अनन्त माधुर्य का प्राकट्य श्री राधारानी वृषभानुनन्दिनी जो कि उनकी आत्मा हैं , उन्हीं पर होता है ।

युगल के परस्पर रस की क्या कही जाये ...
श्यामसुन्दर स्वामिनी के संगी हरिणियोँ को भी अनुग्रह भरी दृष्टि से निहार कर निहाल करते हैं । कृष्णसारमृग पत्नियों के नेत्र दर्शन से हरिणाक्षी श्री जी का स्मरण प्रियतम को हो आता , और श्री जी का स्मरण कराने वाली हरिणियों को भी श्री कृष्ण प्रेम माधुरी से देखते और स्वयं को कृतार्थ मानते है । 
--- सत्यजीत तृषित

Sunday, 19 June 2016

ललिता सखी वियोग वर्णन भाग 2

ललिता-वियोग-वर्णन भाग 2
सुदर्शन सिंह चक्र

हर्ष से विह्वल, आलोकमयी, पुलकित स्वामिनी को सजाते, सखियों को पुकारते, निकुञ्ज में सुमन श्रृंगार करते ही मेरा हृदय कातर क्रन्दन करता है। हाय! यह हर्ष यह उत्फुल्लता जो इनका सहज स्वरूप है अब उन्माद का स्वप्न बनकर आयी है। यह स्वप्न भी कितने पल का?

ये स्वामिनी जिन्होंने हम सेविकाओं को अपने से भी सदा अधिक माना, सदा आगे रखा, सदा स्नेह-सम्मान दिया, कोई भोग, कोई ऐश्वर्य, कोई पदार्थ हमें दिये बना कभी स्वीकार नहीं किया, अपने सर्वस्व उन मयूर-मुकुटी के प्रेम में भी जो सबको भाग देती रहीं, जिनके संकेत से- जिनकी अनुकम्पा-भरी अनुनय के कारण ही वे हम सबको सान्निध्य-दान करते थे, वही स्वामिनी उन्मादिनी हैं। ललित सुखी होती यदि यह दिन देखने से पहिले मर सकती; किंतु स्वामिनी को इस अवस्था में देखकर मरण की कामना भी अत्यन्त कुत्सा हो गयी है!

'वे आ रहे हैं?' ये चाहे जब वंशी-ध्वनि अथवा उनकी अंग-गन्ध आने का अनुमान करके स्वयं स्नान करने लगती हैं, माल्य-ग्रन्थन करती हैं अथवा अंग-राग लगाने लगती हैं उनके स्वागत को आतुर हो उठती हैं।

बहुत अल्प क्षण आते हैं ये। अन्यथा इनके उत्तप्त दीर्घ श्वास-अजस्त्र अश्रु और स्वेद-धारा- रात्रि में शशि-ज्योत्सना में चीत्कार करती हैं- 'सखि, कहीं दूर ले चल इससे। अन्धकार अधिक अच्छा है। वे नहीं हैं तो यह गरल-बन्धु अब विष-वर्षा करने लगा है।'

उत्तप्त अंग और मलयज-लेपन, उशीर अथवा कमल-पत्र से की गयी वायु इन्हें अत्यधिक संतप्त करती है। यूथिका जाति की मालाएँ तोड़कर फेंकने लगती हैं। मल्लिका के सुमन दृष्टि पड़ते ही मूर्छित होती हैं- 'हाय! ये सुमन क्यों खिलते हैं, जब वे इनको स्वयं चयन करके मेरा श्रृंगार करने वाली समीप नहीं है!'

वे कहीं गये नहीं हैं; किंतु अक्रूर यह क्या दुःस्वप्न दे गया कि मैं भी इस सत्य को पूरी शक्ति से कहने का साहस नहीं कर पाती हूँ। क्यों बार-बार अन्तर में उठता है कि वे अक्रूर के साथ चले गये- मथुरा चले गये और फिर नहीं लौटे? वे मथुरा हैं, यह क्यों मन में आता है?

भैया सुबल कहता है- 'कन्हाई हमारे ही शकट[1] पर बैठा आया। भद्र ने उसका कर पकड़ा तो बोला था- 'तू कुछ दूर चल। मैं मथुरा के इन लोगों को लौटाकर आता हूँ।' हम सब मथुरा की ओर ही देखते आ रहे थे। अपने शकट वृन्दावन की सीमा में आये तो वह पता नहीं किधर से चलते शकट में ही चढ़ आया। बहुत चपल है- कहीं वन में छिपता दौड़ता आया होगा।'

व्रजराज उस दिन आये मथुरा से तो मैया व्रजेश्वरी से कह रहे थे- 'वह मथुरा ही रह गया; किंतु आने को कहा है। वह आवेगा, अतः हम सबको जीतिव रहना है।'

इन दोनों में सत्य किसकी बात है- 'भैया सुबल की या व्रजेश्वर बाबा की?'

ललिता सखी द्वारा वियोग-वर्णन भाग 1 , सुदर्शन सिंह चक्र

ललिता सखी द्वारा वियोग-वर्णन भाग 1

अपनी स्वामिनी, अपनी सखी, श्याम-प्राणाधिका श्रीराधिका को कैसे समझाऊँ? अक्रूर क्या आया, यहाँ एक दारुण दुःस्वप्न दे गया। ऐसा दुःस्वप्न कि उसको असत्य भी नहीं कह पाती हूँ और वह सत्य है, यह स्वीकार करने का भी काई साधन नहीं है। श्याम-सुन्दर नहीं हैं व्रज में- यह भी क्या कोई स्वीकार करने योग्य बात है; किंतु वे मथुरा नहीं गये तो मैया व्रजेश्वरी और मेरी यूथेश्वरी श्यामा की विह्वलता क्यों है? मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मुझे इसका समाधान देगा?

'हाय नीलमणि! मैं क्या जानती थी कि तू मेरा नहीं है!' व्रजेश्वरी का यह आर्तनाद- 'मैंने तुझे बाँध दिया ऊखल में। मैं तुझे यष्टि लेकर धमकाती रही! पराये जाये पर मैं माँ का गर्व करके इतना सब अत्याचार करती चली गयी! इस हतभागिनी यशोदा को तू कभी क्षमा कर पायेगा?'

व्रजराज-सदन का यह क्रन्दन सुना जाता है? हृदय फट नहीं जाता- पता नहीं किस वज्र से बना है। हम सब चली जाती हैं तो मैया हमको सम्हालने में अपनी व्यथा भूल जाती हैं। उनके अंक में किञ्चित शांति मिलती है। लेकिन अब यह भी सुलभ नहीं रहा। मेरी स्वामिनी श्रीराधा उन्मादिनी ही हो गयीं। अब इनको कहीं भी कैसे ले जाया जा सकता है।

हाय! मेरी त्रिभुवन-कमनीया स्वामिनी काया कंकालप्राय हो गयी! तप्तकुन्दन जैसा वर्ण काला पड़ने लगा और वह अलौकिक कान्ति कहाँ गयी? बाबा और मैया की यह नेत्र-पुत्तलिका से भी प्रिय अब अनेक बार मुझे ही नहीं पहिचानती और पूछती है- 'तुम कौन हो?'

'तुम्हारी चरण-सेविका ललिता।' मैं मर जाती तो यह तो नहीं कहने का समय आता; किंतु मर भी नहीं सकती। इस स्वामिनी को सम्हालेगा कौन? यह तो अब अपनी भी सुधि नहीं रखती। मुझसे ही पूछती हैं- 'मैं कौन हूँ?'

'वृहत्सानुपुर के स्वामी वृषभानु बाबा और कीर्ति मैया कुमारी श्रीराधा।' मैं ही इसे यह बतलाने को बचने वाली थी।

'राधा? राधा कौन?' यह तो ऐसे पूछती हैं जैसे किसी बहुत अपरिचित के सम्बन्ध में सोच रही हो।

'श्यामसुन्दर की सर्वस्व श्यामा!' मुझे अन्ततः मन मारकर इसे सावधान करने को यह भी कहना पड़ा।

'हाय श्यामसुन्दर!' एक चीत्कार और मूर्छा! मैं कितना बचाती हूँ कि इसे नन्दनन्दन का नाम न सुनाया जाय। इसे उनकी स्मृति न दिलायी जाय, पर बार-बार यही करना पड़ता है। न भी करूँ तो निमित्त क्या कम है? मयूर आ बैठेंगे आँगन में, कोकिल बोलेगी, पपीहा बोलेगा, श्याम-तमाल व्रज में भरे पड़े हैं, आकाश में मेघ आवेंगे ही। कोई सम्पूर्ण पृथ्वी से पीत वर्ण और नील वस्तुओं को वहिष्कृत कर दे सकता। मेरी यह उन्मादिनी सखी नन्हीं पीली तितली भी देखती है तो दौड़ पड़ती है- 'यह रहा उनके पटुके का छोर!'

अब मयूर, मेघ या श्याम तमाल देखकर- 'वे आ गये' कहकर दौड़ पड़ना, वृक्ष से लिपट जाना- अनेक बार इसके सुकुमार अंग आहत हो चुके। इसके ये नवकिसलय-कोमल चरण और रात्रि के अन्धकार में भी उठकर दौड़ पड़ती हैं कानन की ओर- 'सखि! वायु में तुलसी की गन्ध है। वे आ गये। मुझे पुकार रहे हैं! तू सुनती नहीं- वंशी के स्वर पुकार रहे हैं मुझे?'

इसके विशाल लोचन सूखने का नाम ही नहीं लेते। शरीर में इतना स्वेद आता है कि वस्त्र अनेक बार बदलवाने पड़ते हैं। जैसे सम्पूर्ण मेद स्वेद बनकर बह गया। कदम्ब-पुष्प के समान कण्टकित काया-उत्थित रोम-रोम और चाहे जब अंग-अंग पीपल-पत्र के समान काँपने लगता है। यह मूर्छा अब आती ही रहती है। यह सब न हो तो चाहे जब उठ भागती है वन की ओर। दिन-रात किसी समय की सुधि नहीं। हम सखियों को भी कम पहिचानती है। वन के विषम, कुशकण्टक भरे पथ में कुञ्जों में पागल बनी पुकारती दौड़ती है- 'प्राणनाथ! प्रियतम!'

बाबा बार-बार अश्रु भर लेते हैं। मैया हम सबकी मनुहार करती रहती हैं। उनकी यह हृदयनिधि- हमारी सर्वस्व, हम इसके चरणों को छोड़कर पृथक कैसे रह सकती हैं। हमें लज्जित करती है मैया की मनुहार। हमारी सबकी यही तो जीवन है। यह है तो हम हैं। अभी कल यह कानन में मूर्छित हो गयी। मैं कब गिरी- मुझे पता नहीं। विशाखा ने कहा था- 'ललिता! स्वामिनी गयीं! हाय, हमे सदा को छोड़ गयीं?'

सुनने के पश्चात क्या हुआ- मैं नहीं जानती। सुना पीछे कि चन्द्रावली जीजी आ गयीं। हम सब समझती थीं कि वे स्वामिनी से स्पर्धा रखती हैं; किंतु इस विपत्ति में तो वे स्नेहमयी सबको सहारा देने लगी हैं। कितनी अपार शक्ति है उनमें! उनके अन्तर में किसी-से कम दावानल दहकता होगा? लेकिन वे हैं कि अब भी सबके सामने हँस लेती हैं। कल कहीं से उन नवजलसुन्दर का चित्र उठा लायीं और हम सबको झकझोरकर, जल सिञ्चिन करके जगाया। स्वामिनी को सगी अनुजा के समान अंक में लेकर बोली- 'बहिन देख तो, यह कौन है? तनिक नेत्र तो खोल!'

स्वामिनी ने तो नेत्र खोलते ही समझा कि वे हृदयहारी सचमुच ही आ गये। मान करके मुख फेर कर बैठ गयीं। हँसकर उन्हें चन्द्रावली जीजी ने हिलाया और बोली- 'बहिन! तू क्या हम सबको मार ही देना चाहती है? तू नहीं रहेगी तो वनमाली व्रज की ओर झाकेंगे भी नहीं। तू ही हम सबकी आशा है, हमारी प्राण है।'

कितनी उमंग से, कितनी तन्मयता से, कितने प्यार से बनाया होगा वह चित्र उन्होंने। वह चित्र दे देने से जीवन दे देना कहीं अधिक सरल है, यह मैं समझती हूँ; किंतु कितनी महान हैं वे। बिना माँगे स्वयं मुझे दे गयीं- 'ललिते! तू इसे रख ले। मेरी इस बहिन को इसकी बहुत अधिक आवश्यकता है। इसे बचा किसी प्रकार। यह बची रहेगी तभी व्रज बचेगा।'

स्वामिनी तो चित्र लेकर तन्मय हो गयीं। उसी की मनुहार, श्रृंगार में लग गयीं। सचमुच इस चित्र ने इनके कम-से-कम प्राण तो बचा लिये; किंतु इनका उन्माद? चाहे जब आतुर हो उठती हैं- 'सखि, वे आ गये! सब सखियों को बुला ले। शीघ्र मेरा श्रृंगार कर दे। त्वरा कर, वे कहीं रूठकर चले न जायँ।' क्रमशः ...

Friday, 17 June 2016

वसन प्रवाह से भावित श्याममसुंन्दर

हमारी प्यारी किशोरी जु खेल खेल में अपने वस्त्रों को हिला दे , या हिल  जावें , आंख मिचौनी के समय छिपि श्री जु द्वारा उष्मा दूर करने आँचल से खेलने से , श्री जी की दिव्य अंग से निकलती सुगन्ध से आकर्षित भ्रमर को हटाने के लिये वसन से खेलने से , श्री  जी  के श्रृंगार के लिये पुष्प सञ्चय करते समय श्री श्यामसुन्दर के मुख चन्द्र पर आये हुये पसीना को देखकर करूणामयी भावना से श्री  जी  वस्त्र हिलाती  है पसीना पोछने हेतु उस  वस्त्र के  हिलने से ,, जो पवन उठती है उसमें दिव्य सुगन्ध के स्पर्श और अपने श्वसन समीर में घुलने से श्यामसुन्दर स्वयं को अति कृतार्थ जान कर भावित रहते है I सत्यजीत तृषित ।

प्रियतम् प्रभु का प्रेम ,, भाई जी

प्रियतम प्रभु का प्रेम

सादर जय श्रीकृष्ण! आपका कृपा पत्र मिला। जब उन ‘प्रियतम ने आपके मन से संसार को निकाल दिया’ तब फिर उसमें रहा ही क्या। वह सूना स्थान तो फिर उन्हीं का है। वे दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते; इसी से जो उनको चाहता है, उसको अपने मन से उनके अतिरिक्त सभी को निकाल देना पड़ता है। आपके कथनानुसार तो उन्होंने ही आपके मन को संसार से रहित कर दिया है। फिर घबराने की कोई बात नहीं है। प्रेम मिलेगा ही। वस्तुतः प्रेम न होता तो संसार निकलता ही कैसे। परंतु प्रेम का स्वभाव ही ऐसा होता है कि उसमें होने पर भी ‘न होने का’ ही अनुभव हुआ करता है। नित्य संयोग में वियोग की अनुभूति प्रेम ही कराता है और वह ‘वियोग’ समस्त योगों का सिर मौर होता है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपके मन में उनका प्रेम पाने के लिये इतनी तड़प है और आप इसके लिये बहुत दुःखी हैं। इस ‘तड़प’ और इस ‘दुःख’ से बढ़कर उनके प्रेम की प्राप्ति और क्या उपाय हो सकता है? आप इस वियोगमय योग का आश्रय लिये रहियें। यही तो प्रेमास्पद की प्रेमोपासना है- नित्य जलते रहना और उस जलन में ही अनन्त शान्ति का अनुभव करना!

प्रेमास्पद और प्रेमी के बीच में तीसरे का क्या काम? मुझ से कोई प्रार्थना न करके आप सीधे उन्हीं से प्रार्थना कीजिये। फिर आपके पत्र के अनुसार तो आप में-उनमें ‘हजारों लड़ाइयाँ हो चुकी हैं!’ ऐसी लड़ाइयाँ वस्तुतः प्रार्थना के स्तर से बहुत ऊँचे पर हुआ करती हैं। उन पर जो गुस्सा आता है, यह भी तो प्रेम का ही एक अंग है। फिर यह कैसे माना जाता है कि प्रेम नहीं है। ‘वे प्रेम देखकर चाहे जितना जुल्म करें’ जब यह आप की अभिलाषा है, तब आप उनके जुल्म में प्रेम का दर्शन क्यों न करें? यदि जुल्म में ही उन्हें मजा आता है, यदि तरसाने में ही उन प्रियतम को सुख मिलता है तो बड़ी खुशी की बात है। वे पराये होते तो भला जुल्म करते ही कैसे? प्रेम न होता तो तरसाते ही कैसे? वहाँ तो यह प्रश्न ही नहीं होता। मेरी राय माँगी सो मेरी राय तो यही है कि बस, उन्हीं पर निर्भर कीजिये, उन्हीं से प्रार्थना कीजिये, उन्हीं को कोसिये और उन्हीं से लड़ियें। कभी हिम्मत न हारिये-कभी निराश न होइये। वे छिप-छिपकर यों ही ‘झाँका’ करते है, स्वयं पकड़ में न आकर पहले यों ही ‘फँसाया’ करते हैं; वे ‘लिया’ ही करते हैं ‘देते नहीं।’ परन्तु यह सच मानिये, उनका यह छिप-छिपकर झाँकना आपके हाथों में पड़ने के लिये ही होता है; वे फँसने के लिये फँसाया करते हैं और अपना सर्वस्व देने के लिये ही ‘लिया’ भी करते हैं। जय श्रीकृष्ण!

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 4

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 4

‘हित चतुरासी’ में श्‍यामसुन्‍दर ने अपनी देह को श्रीराधा- पद- पंकज का सहज मंदिर बतलाया है, तब पद- पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह|' [1]

भक्ति का अर्थ ‘सेवा’ है। भक्ति के उदय के साथ सेवा का चाव बढ़ता है। सेव्‍य की रुचि लेकर उसकी सेवा करना, सेवा का आदर्श माना जाता है। अपनी अपार सेवा- रुचि को श्रीराधा के आगे प्रगट करते हुए श्‍याम- सुन्‍दर कहते हैं, हे प्रिया, तुम जहां चरण रखती हो वहां मेरा मन छाया करता फि‍रता है। मेरी अनेक मुर्तियां तुम्‍हारे ऊपर चवंर ढुराती हैं, कोई तुमको पान अर्पण करती हैं, कोई दर्पण दिखाती है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की सेवायें, जैसा भी मुझे कोई बतला देता है, मैं तुम्‍हारी रुचि लेकर करता रहता हूं। इस प्रकार, हर एक उपाय से मैं तुम्‍हारी प्रसन्नता प्राप्त करने की चेष्टा करता हूं।'

जहां- जहां चरण परत प्‍यारी जू तेरे। तहां- तहां मेरौ मन करत फिरत परछांही। बहुत मूरित मेरी चंवर ढुरावत एकोऊ बीरी खबाबत, एक आरसी लै जाहीं। और सेवा बहुत भांतिन की जैसी ये कहैं कोऊ तैसी ये करौं ज्‍यौं रुचि जानौ जाही। श्री हरिदास के स्‍वामी श्‍यामा कौ भलौ मनावत दाई उपाई।[2]

श्रीराधा- नाम का माहात्‍म्‍य ख्‍यापन करते हुए हिताचार्य ने कहा है ‘जिसका स्‍वयं श्रीहरि प्रेम पूर्वक श्रवण करते हैं, जाप करते हैं, सखी जनों में सहर्ष गान करते हैं त‍था प्रेमाश्रु- पूर्ण मुख से उच्‍चारण करते हैं, वह अमृत-रूप-राधा-नाम मेरा जीवन है।’

प्रेम्‍णाअकर्णयते,जपत्‍यथ,मुदा गायत्‍यथाअलिण्‍वयं।
जल्‍पत्‍यश्‍श्रु मुखो हरिस्‍तदमृतं राधेति मे जीवनम्।।

'द्वादश-यश’- कार स्‍वामी चतुर्भुजदासजी ने अपने ‘श्रीराधा प्रताप यश’ में श्‍याम सुन्‍दर के द्वारा श्री राधा के प्रति श्रवणादिकों का प्रेममय आचरण बड़े सुन्‍दर ढंग से दिखलाया है। प्रथम तीन के संबंध में वे कहते हैं,

श्रवणानि सुजस सखिनु पहं सुनत, राधा नाम रैन-दिन भनत।
सुमिरन मन विसरै नहीं।

श्री राधा के अन्‍त्‍यन्‍त सुन्‍दर और सुकुमार चरणों पर रीझ कर श्‍याम सुन्‍दर उनमें जो जावक के द्वारा चित्र-रचना करते हैं वही ‘पाद-सेवन’ बन जाता है और प्रिया का नख-शिख श्रृंगार करते हैं वही उनका ‘अर्चन’ होता है।

जावक रचि चरननि जु बनाई, नूपुर माल रुचिर पहिनाई।
प्रेम सु प्रताप जस।।
मृगमद तिलक देत रचि भाल, पहिरावत पहुपनि की माल।
अपने कर कबरी गुथत।।
भूषण पट पहिरावत आइ, मुख बीरी हरि देत बनाइ।
दर्पन जै जु दिखावहीं।।
देखि रूप डारत तृन तोरि। .............................
वंदन, दास्‍य और आत्‍म निवेदन तो स्‍पष्ट ही है।
..............................वंदत चरण सीस कर जोरि।
दासंतन सब विधि करत।।
तन, मन, प्रान समर्पन कियौ, मीन-नीर ज्‍यौं, त्‍यौं पन लियौ।
श्रीराधा सु प्रताप जस।।

इस प्रकार, नवधा-भक्ति का सांगोपांग निर्वाह करने के बाद श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रियतमा से यह वरदान मांगते हैं।

मांगत दान मान जिन करौ, देहु बचन मेरे कर धरौ।
निर्तत अति आनंद ह्रैं।।
क्रमशः ...
जय जय श्यामाश्याम ।।

Thursday, 16 June 2016

ब्रज प्रेम सार लहरी 2

श्री संकेत 2

मृदुहासिनी का गौर तेज गोकुलेश के नेत्रों में मानो विद्युल्लहरी प्रसरित कर गया, नटवत् चक्कर काटने लगे – 

भूख लगी कै प्यास तुहि भैया मुख ते बोलि ।

(ब्र.प्रे.सा.लहरी २२चौ ४२)

सुबाहु – "कन्हैया ! आज बिना ताल-पखावज के तू कैसे नाच रह्यौ है । कहीं तोकू भूख तो नाय लग रही? ”

बिनु ही ताल पखावज नचै तोते कोऊ स्वांग न बचैं ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी१२चौ ४७)

सखा २– "गौचारण के प्रथम दिन ही यह कैसौ कौतुक कर रह्यौ है? ” 

सखा ३– "नन्दगाँव में तो तेरी चोरी के कोलाहल और यहाँ वन में चोरी-बरजोरी यह कैसो स्वांग है ।”

सखा ४– "लाला कन्हैया, बता तो सही तोकूं भयो कहा है? ” 

कृष्ण – "न, न मैं नांय बताऊँगो, यह कहवे योग्य बात नांय है, तू मैया-बाबा कू बता देगो ।”

सखा – "मत बतावै, हमें सब पतौ है ।

रूप स्वादी ! तू जाकूं चाहै वह तो बरसाने चली गई, अब तेरे हाथ कछु नांय लगेगो ।”

रूप सवादी लोचन महा ऐसे हाथ लगैगो कहा ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी२२चौ ५२)

कृष्ण – "भैया सुबाहू ! वे जहाँ गयीं हैं, वहीं मोकू तू लै चल मेरो हृदय धैर्य धारण करिबे में असमर्थ है ।” 

सुबाहु – "कन्हैया तू ऐसो रूप लट्टू है गयौ है, बे सिर पैर की बात मत करै ।”

प्रथम ही रूप बौंहनी भई । निरखि वन वैभव यह नई ।

(ब्र.प्रे.सा.लहरी२२चौ ५६)

कृष्ण – "आज गौचारण के प्रथम दिन ही शुभ सगुन भयो, मानो सम्पूर्ण वन की सुन्दरता को अपूर्व वैभव या रूप में (श्रीजी के रूप में) दर्शित भयो । यासों पतो लगै है कि हमारों गौचारण अनेक मंगलनि कौ हेतु होयगो । 

भैया ! अब वा रूप सम्पत्ति की धनी, मन्द-हास्य-युत स्वर्ण कमल-मुख वारी के नाम-गाम, ठौर-ठिकाने को पतौ लगा, वाके रूप शर ते मेरो हियो आहत है गयो है ।”

रे भंगरैला ! नन्द के मो सिख सुनतु न काँन ।
बोलत निपट कराहि कैं कहा ह्वाँ वरषे बाँन ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी२२दोहा.४२)

सखा – "अरे भंगड़ नन्द के ! कहाँ लगौ वह बाण जो तू कराह रह्यौ है ।”

कृष्ण – "भैया ! तू इतनौ कठोर मत बोल, कोई ऐसे देवता कौ नाम बता जाकूं

 पूजवे ते भानु घर में मेरो ब्याह है जाय ।”

(सब सखा सुनकर हँस गये और बोले)

पाँवन सर में न्हाइ कै बन्दनि करि गिरिराज ।
मोहन ह्वै हैं बेगि हीं तो मन वांछित काज ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी.२२चौ.६९)

सखा – "कन्हैया एक ही उपाय है, पावन सरोवर में स्नान कर और गिरिराज बाबा की पूजा कर, बस सब मनोरथ पूर्ण है जायेंगे और देख जाके दृग शर से तू बिंध गयौ है वह वृषभानु नन्दिनी राधा है । बरसानो जिनकी रजधानी है । अच्छो भयौ तू वाके सामने नहीं पड़ौ नहीं तो तेरी प्रतिष्ठा नष्ट है जाती कि देखो वृषभानु दुलारी के दृग शर से नन्द दुलारो छलनी है गयौ ।”

मनसुख – "तू चिंता मत कर कन्हैया, तेरी मैया वाते तेरो ब्याह करावे के लिए गिरिराज पूजा, संकेत देवी और नारायण की आराधना करै है ।” 

मन के मरमी सखा ने कहै कृष्ण सों बैंन ।
तद्दपि फेरि सके न मन रूप उरझि गए नैन ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी२२दोहा७९)

भाँन कुँवरि हू प्रथम ही देखे नन्द कुमार ।
उदै भयो अनुराग उर पूरवली जु चिन्हार ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी२२दोहा८०)

बाँनी कहा लग वरनिये गाढ़ प्रेम हिय लाग ।
वृन्दावन हित रूप कह्यौ प्रथम उभै अनुराग ॥

(ब्र.प्रे.सा.लहरी२२दोहा८१)

या प्रकार सों चाचा वृन्दावन दास जी ने संकेत में युगल के सनातन प्रेम की प्रथम उदय लीला गाई । मैया यशोदा ने भी जन्मोपरान्त श्रीजी के प्रथम दर्शन संकेत में किये और यशोदा नन्दन ने भी किशोरी जी के प्रथम दर्शन यहीं किये ।