ललिता-वियोग-वर्णन भाग 3
"सुदर्शन सिंह चक्र"
व्रजराज उस दिन आये मथुरा से तो मैया व्रजेश्वरी से कह रहे थे- 'वह मथुरा ही रह गया; किंतु आने को कहा है। वह आवेगा, अतः हम सबको जीतिव रहना है।'
इन दोनों में सत्य किसकी बात है- 'भैया सुबल की या व्रजेश्वर बाबा की?'
मैं अपनी आँखों को क्या कहूँ? प्रातःकाल जब गायें गोष्ठों से निकलती हैं, उनके पीछे अधरों पर वंशी धरे वे न चलें तो गायें चरेंगी वन में? जब तक गोप मथुरा से नहीं लौटे थे, यही गायें तो हैं जो वन से गोष्ठ और गोष्ठ से वन में भागती फिरती थीं। तृण मुख में लेना ही भूल गयी थीं। अब ये पुनः पुष्ट हो गयी हैं। भरपूर दूध देती हैं। ये किसी और को देखकर प्रसन्न हो सकती हैं?
हम सब प्रतिदिन प्रातः जाते उन पर लाजा नहीं फेंकतीं? सायं हम सबके भाई पुष्प, किसलय पत्र, नव धातुओं से इतना श्रृंगार किये लौटते हैं, अपने उन प्रिय सखा के बिना क्या इनको शरीर-सजाना सूझता? नाचते, कभी पीछे मुड़ते और कभी किसी ओर चपल दृष्टि से देखते गोरज-मण्डित अलकें, वनमाल, भाल वे ही तो मेरी सखी के समीप गवाक्ष में सायं पुष्प प्रक्षिप्त कर जाते हैं। मेरी स्वामिनी सायं प्रसन्न होती हैं, पुलकित होती हैं उस पुष्प को हृदय से लगाकर।
मेरी इन स्वामिनी की शिथिल वेणी किसके कर गूँथते हैं- क्या अब यह भी पहिचानना मैं भूल गयी हूँ। इनको कष्ट न हो, इसलिए केशों को वे खींच नहीं पाते। उलटे उनके करों का स्वेद आर्द्र कर देता है केशों को और उनकी केशों में कुसुम-सज्जा की यह कला क्या और किसी के लिए सम्भव है?
एक ओर यह सब सत्य है और दूसरी ओर मेरी स्वामिनी की व्याकुलता है। व्रजेश्वरी मैया, बाबा और उनके सब सखा- सुबल भैया, भद्र भी तो बार-बार रोते क्रन्दन करते हैं। सब तो कहते हैं- 'हाय! कन्हाई हमें छोड़ गया!'
सुनती हूँ कि वे मथुरा में हैं। बार-बार हृदय में हूक उठती है- 'वे नहीं आये!' लेकिन तब यह देखती क्या हूँ? मुझे समय भी तो नहीं है इसका समाधान करने का। किसी को मथुरा भेजा नहीं जा सकता। सुना है कि वहाँ आये दिन मगधराज जरासन्ध की सेना ही नगर को घेरे शिविर डाले पड़ी रहती है। वे उसके युद्ध में व्यस्त हैं। उन्होंने आने को कहा है। जरासन्ध की विपत्ति टलते ही आवेंगे। ऐसे में किसी को वहाँ जाने से उन्हें संकोच होगा उनका ध्यान व्रज की ओर आया तो विचलित होंगे। अभी तो उनको पूरा ध्यान- पूरी शक्ति जरासन्ध से मथुरा के अपने आश्रितों को बचाने में ही लगाना चाहिये।
वे मथुरा में हैं? यहाँ नहीं है वे? यह भी कहाँ निश्चय कर पाती हूँ। स्वामिनी का यह प्रातः गोचारण के समय और सायं गौओं के लौटने के समय उत्फुल्ल गवाक्ष पर बैठना, वन उनका स्मित-शोभित कमल मुख, वह लहराता मयूर-मुकुट, वह फहराता पीतपट, वक्ष पर वनमाला और वंक दृगों की हृदयहारी विलोकनि- यह प्रतिदिन का स्पष्ट सत्य कैसे अस्वीकार कर दूँ? मथुरा में पता नहीं कौन है। हम सबका किसी भगवान वासुदेव से प्रयोजन भी क्या? हमारे ये व्रजनवयुवराज- ये तो यहीं हमारे मध्य हैं।
मेरी स्वामिनी बहुत सरला, बहुत भोली हैं। ये दिनभर का भी यह वियोग सह नहीं पातीं। गोचारण-श्रान्त वे रात्रि में भी कभी भवन में सो जाते हैं, निकुञ्ज में नहीं पधारते, यह स्वामिनी समझ नहीं पाती हैं। कैसे समझाऊँ इन्हें? इनका यह उन्माद- यह व्याकुता- यह क्रन्दन और मूर्छा मेरे मानस को मथित किये रहती है।