Tuesday, 5 April 2016

वृन्दावन अर्थात् -- तृषित

वृंदावन अर्थात् --

प्रेमानन्द सुधा सार सर्वस्वमूर्ति है भगवान श्री कृष्ण ।
उनके हृदय से पूर्णानुराग रस सार सुधाजलनिधि समुद्भुत निर्मल निष्कलंक चन्द्र स्वरूपा है वृषभानु नन्दिनी । उनका हृदय ही वृन्दावन है । उनके हृदय के रसोद्रेक की जडिमा है वहीँ है इस वनराज की जडिमा ।
श्रीराधे हृदि ते रसेन जडिमा , जाड्यं रसमयं यच्च तदवृन्दावन मेव हि ।

यह वृन्दावन व्रजांगना वृंद (समूह) का जीवन है - व्रजांगनावृन्दस्य जीवनं वृन्दावनम् । रसिकवृन्द और गुणवृंद का रक्षण और सञ्चार इससे ही है यानि रसिकजनों के एकमात्र जीवन का आलम्बन यह श्री वृन्दावन धाम है - "वृन्दस्य गुणसमूहस्य गुनिसमूहस्य अवनम् यस्मात् तत्" ।

श्री वृन्दावन वृंदा का यौवन अर्थात् देदीप्यमान स्वरूप ही है - वृंदायाः यौवनं वृंदावनम् ।
वृंदा की स्थिति यह है कि हर स्थिति में श्री कृष्ण के चरणारविन्दों में सुशोभित होना । जब प्रभु शालिग्राम रूप में विराजमान हो, तब वह तुलसी रूप में सेवा करती हैं । जब प्रियतम् प्राणधन पुरुषोत्तम रूप में प्रभु अवतार लेते है , तब वृन्दावन के रूप में प्रकट होती है । यहाँ जो यमुना है वह वृन्दा के हृदय की प्रेमानन्द रस सरिता है । जो तरु है , वें वृंदा के रोमान्च हैं और जो भूमि है वह देह है ।

उद्धव जी भगवान से न्यून नहीँ , "नोद्धवोsण्वपि मन्युनः " ऐसे परम् भगवत् सम , भगवत् संगी , उद्धव जी भी श्री ब्रज के भक्तों के पदपंकज रज के संस्पर्श के लोभ से वृंदावन धाम में तृण-गुल्मादि की स्पर्हा प्रकट करते है - "वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधिनाम्" ।

श्रीमद् प्रबोधानन्द सरस्वती और अन्य रसिक आचार्य भी वृंदावन रस से बाहर श्री हरि की भी उपेक्षा करने की सलाह देते है - "मिलन्तु चिन्तमणिकोटिकोट्यः, स्वयं हरिर्द्वारमुपैति स्तवरः " विपिन राज सीमा के बाहर हरि हूँ को न निहार । यद्यपि मिले कोटि चिंतामणि तउ न हाथ पसार । "

भगवदाकार से आकारित वृत्ति पर भगवत् तत्व का प्राकट्य होता है उसे भी वृन्दावन कहते है , इस तरह साभास अव्याकृत एवम् साभास चरमा वृत्ति को भी वृन्दावन कहते है ।

रसिक सन्तों ने व्रज तत्व को हिततम् वेदवेद्य प्रेमतत्व का स्वरूप अर्थात् प्रेम की पराकाष्ठा का शरीर माना है । प्रेम तत्व के व्रजधामरूप शरीर में श्री व्रजनवयुवतिजन इंद्रियाँ रूपा हैं । मन स्वरूप श्री वर्जराजकिशोर रसिकेन्द्र है । प्राणरूपा प्रज्ञास्वरूपा श्री व्रजनवयुवति कदम्बमुकुटमणि कीर्तिकुमारी श्रीराधा जी है । "यो वै प्राणः सा प्रज्ञा " । रसमय युगल प्रियाप्रियतम और उनके रसमय परिकरों संग रसमयी लीला का धाम अप्राकृत श्री व्रज भी रसमय है । जिस वृंदावन में प्रवेश से कीट पतंग भी सच्चिदानन्दघन स्वरूप हो जाते है । -- सत्यजीत तृषित ।

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