श्रीराधा और उनके नाम की महिमा
राधा राधा नाम को सपनेहूँ जो नर लेय।
ताको मोहन साँवरो रीझि अपनको देय।।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–उन राधा से भी उनका ‘राधा’ नाम मुझे अधिक मधुर और प्यारा लगता है। ‘राधा’ शब्द कान में पड़ते ही मेरे हृदय की सम्पूर्ण कलियां खिल उठती हैं। कोई भी मुझे प्रेम से राधा नाम सुनाकर खरीद सकता है। राधा मेरा सदा बंधा-बंधाया मूल्य है। राधा समस्त प्रेमीजनों की मुकुटमणि है। राधा के समान प्राणाधिक प्रिय दूसरा कहीं कोई नहीं है। वह सदा-सर्वदा मेरे वक्ष:स्थल पर निवास करती हैं।
श्रीराधा नाम की महिमा को श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बताया है–’जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुन लेता हूं, उसी समय उसे अपनी उत्तम भक्ति-प्रेम दे देता हूं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो वह दौड़कर श्रीहरि के धाम में पहुंच जाता है।’
‘रा’ शब्द का उच्चारण करने पर उसे सुनते ही माधव हर्ष से फूल जाते हैं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्रीराधा का नाम-श्रवण करने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूं।’
सामवेद में ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है। ‘राधा’ नाम के पहले अक्षर ‘र’ का उच्चारण करते ही करोड़ों जन्मों के संचित पाप और शुभ-अशुभ कर्मों के भोग नष्ट हो जाते हैं। ‘आकार’ के उच्चारण से गर्भवास (जन्म), मृत्यु और रोग आदि छूट जाते हैं। ‘ध’ के उच्चारण से आयु की वृद्धि होती है और आकार के उच्चारण से जीव भवबंधन से मुक्त हो जाता है। राधा नाम का ‘र’ श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की भक्ति और दास्य प्रदान करता है। ‘आकार’ समस्त अभिलाषित पदार्थ और सिद्धियों की खान ईश्वर की प्राप्ति कराता है। ‘धकार’ का उच्चारण भगवान के साथ अनन्तकाल तक रहने का सुख, सारूप्य और उनका तत्वज्ञान प्रदान करता है। ‘आकार’ श्रीहरि की भांति तेजोराशि, दानशक्ति, योगशक्ति और श्रीहरि की स्मृति प्रदान करता है।
राधा देवी जगत्कर्त्री जगत्पालनतत्परा।
जगल्लयविधात्री च सर्वेशी सर्वसूतिका।। (बृहन्नारदीय पुराण)
अर्थात्–श्रीराधाजी जगत की रचना करने वाली, उसके पालन में तत्पर रहने वाली और प्रलय के समय संहार करने वाली हैं तथा सम्पूर्ण जगत की प्रसविनी (जननी) हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के भक्त को दास्य-रति प्रदान करने वाली एकमात्र ये ही हैं; क्योंकि सम्पूर्ण सम्पत्तियों में ये इस दास्यसम्पत्ति को ही सर्वश्रेष्ठ मानतीं हैं। इनके चरण-कमल के नख का दर्शन पाने के लिए ब्रह्माजी ने साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी परन्तु वे स्वप्न में भी श्रीराधा का दर्शन प्राप्त नहीं कर सके। उसी तप के प्रभाव से ये वृन्दावन में प्रकट हुई हैं, जहां ब्रह्माजी को भी इनका दर्शन प्राप्त हो सका।
काहू के बल भजन को काहू के आचार।
व्यास भरोसे कुँवरि के सोवत पाँव पसार।।
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