Sunday, 10 April 2016

श्री राधाभाव की एक झाँकी

श्रीराधाभाव की एक झाँकी
भाग 1

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठयं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगीसिद्धीरपुनर्भवं वाव समन्जस त्वा विरहय्य काक्षे।।
अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्।।[1]
भक्त हृदय वृत्रासुर ने मरते समय श्रीभगवान् से प्रार्थना की— ‘हे सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर इन्द्रपद, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम— सारी पृथ्वी का एकछत्र राज्य, पाताल का एकाधिपत्य, योग की सिद्धियाँ और अपुनर्भव— मोक्ष भी नहीं चाहता। जैसे पक्षियों के बिना पाँख उगे बच्चे अपनी माँ चिड़िया की बाट देखते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ गैया का दूध पीने के लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी प्रियतमा पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिये छटपटाती रहती है, वैसे ही कमलनयन! मेरा मन आपके दर्शन के लिये छटपटा रहा है।’
उपर्युक्त वाक्य भगवत्प्रेमी के हृदय की त्यागमीय अभिलाषा के स्वरूप को व्यक्त करते हैं। भगवत्प्रेमी सर्वथा निष्काम होता है। प्रेम में किसी भी स्व-सुख की कामना को स्थान नहीं है। प्रेमी देना जानता है, लेना जानता है नहीं। प्रेमास्पद के सुख के लिये उसका सहज जीवन है, उसके जीवन का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक विचार और प्रत्येक कल्पना है। प्रेमास्पद प्रभु को सुखी बनानी वाली सेवा ही उसके जीवन का स्वभाव है। उसको छोड़कर वह संसार के— इहलोक, परलोक के बड़े-से-बड़े भोग की तो बात ही क्या, पाँच प्रकार की मुक्तियाँ देने पर भी स्वीकार नहीं करता—
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः।।[1]
भगवान् (श्रीकपिलदेव) कहते हैं— ‘मेरे प्रेमी भक्त— मेरी सेवा को छोड़कर - सालोक्य (भगवान् के नित्यधाम में निवास), सार्ष्टि (भगवान् के समान ऐश्वर्य-भोग), सामीप्य (भगवान् के समीप रहना), सारूप्य (भगवान् के समान रूप प्राप्त करना) और एकत्व (भगवान् में मिल जाना— ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाना)— ये (पाँच प्रकार की दुर्लभ मुक्तियाँ) दिये जाने पर भी नहीं लेते।’

भगवत्प्रेमियों की पवित्र प्रेमाग्नि में भोग-मोक्ष की सारी कामनाएँ, संसार की सारी आसक्तियाँ और ममताएँ सर्वथा जलकर भस्म हो जाती हैं। उनके द्वारा सर्वस्व का त्याग सहज स्वाभाविक होता है। अपने प्राणप्रियतम प्रभु को समस्त आचार अर्पण करके वे केवल नित्य-निरन्तर उनके मधुर स्मरण को ही अपना जीवन बना लेते हैं। उनका वह पवित्र प्रेम सदा बढ़ता रहता है’ क्योंकि वह न कामनापूर्ति के लिये होता है न गुणजनित होता है। उसका तार कभी टूटता ही नहीं, सूक्ष्मतर रूप से नित्य-निरन्तर उसकी अनुभूति होती रहती है और वह प्रतिक्षण नित्य-नूतन मधुर रूप से बढ़ता ही रहता है। उसका न वाणी से प्रकाश हो सकता है, न किसी चेष्टा से ही उसे दूसरे को बताया जा सकता है—

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्।[2]
इस पवित्र प्रेम में इन्द्रिय-तृप्ति, वासना सिद्धि, भोग-लालसा आदि को स्थान नहीं रहता। बुद्धि, मन, प्राण, इन्द्रियाँ— सभी नित्य-निरन्तर परम प्रियतम प्रभु के साथ सम्बन्धित रहते हैं। मिलन और वियोग— दोनों ही नित्य-नवीन रसवृद्धि में हेतु होते हैं। ऐसा प्रेमी केवल प्रेम की ही चर्चा करता है, प्रेम की चर्चा सुनता है, प्रेम का ही मनन करता है, प्रेम में ही संतुष्ट रहता और प्रेम में ही नित्य रमण करता है। वह लवमात्र के लिये भी किसी भगवत्प्रेमी का संग प्राप्त कर लेता है तो उसके सामने मोक्ष तक को तुच्छ समझता है। श्रीमद्भागवत में आया है—
तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवम्।
भगवत्संगिसंगस्य मर्त्याना किमुताशिषः।।[1]
‘भगवदासक्त प्रेमी भक्त के लवमात्र के संग से स्वर्ग और अपुनर्भव— मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती, फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है।’ इस परम पवित्र, भुक्ति-मुक्ति-त्याग से विभूषित उज्ज्वलतम प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति व्रजगोपियों में हुई। उनमें श्रीकृष्ण-सुख-लालसा के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। अपनी कोई चिन्ता उन्हें कभी नहीं हुई। ये सब गोपांगनाएँ श्रीराधारानी की कायव्यूहरूपा हैं और उन्हीं के सुख-सम्पादनार्थ अपना जीवन अर्पण करके प्रेम का परम पवित्र आदर्श व्यक्त कर रही है। इनमें श्रीराधारानी की सखियों में आठ प्रधान— ललिता, विशाखा, चित्रा, चम्पकलता, सुदेवी, तुंगविद्या, इन्दुलेखा और रंगदेवी। इनमें प्रत्येक की अनुगता आठ-आठ किंकरियाँ हैं तथा अनेक मन्जरीगण हैं। ये सभी श्रीराधा-माधव की प्रीतिसाधना में ही नित्य संलग्न रहती हैं। इन सबकी आधार रूपा हैं श्रीराधिकाजी। प्रेमभक्ति का चरम स्वरूप श्रीराधाभाव है। इस भाव का यथार्थ स्वरूप श्रीराधिका के अतिरिक्त समस्त विश्व के दर्शन में कहीं नहीं मिलता।

श्रीराधा शंका, संकोच, संशय, सम्भ्रम आदि से सर्वथा शून्य परम आत्मनिवेदन की पराकाष्ठा है। रति, प्रेम, प्रणय, मान, स्नेह, राग, अनुराग और भाव— इस प्रकार उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ परम त्यागमय पवित्र प्रेम अन्त में जिस स्वरूप को प्राप्त होता है उसे ‘महाभाव’ कहा गया है। इस महाभाव के उदय होने पर क्षणभर भी प्रियतम का वियोग नहीं होता। श्रीराधा इसी महाभाव की प्रत्यक्ष मूर्ति है। वे महाभाव-स्वरूपा है। श्रीकृष्ण की समस्त प्रेयसीगणों में वे सर्वश्रेष्ठ हैं। नित्य-नव परम सौन्दर्य, नित्य-नव माधुर्य, नित्य-नव असमोर्ध्व लीला चातुर्य की विपुल नित्यवर्धनशील दिव्य सम्पत्ति से समलंकृत प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर श्रीराधा के प्रेम के आलम्बन हैं और श्रीराधा इस मधुर रस की श्रेष्ठतम आश्रय हैं। ये श्रीराधा कभी प्रियतम के संयोग-सुख का अनुभव करती हैं और कभी वियोग-वेदना का। इनका मिलन-सुख और वियोग-व्यथा— दोनों ही अतुलनीय तथा अनुपमये हैं।

श्रीरूपगोस्वामी महोदय वियोग की एक झाँकी का दर्शन इस प्रकार करते हैं—
अश्रूणामतिवृष्टिभिर्द्विगुणयन्त्यर्कात्मजानिर्झरं
ज्योत्स्नीस्यन्दिविधूपलप्रतिकृतिच्छायं वपुर्बिभ्रती।
कण्ठान्तस्त्रुटदक्षराद्य पुलकैर्लब्ध्वा कदम्बाकृतिं
राधा वेणुधर प्रवातकदलीतुल्या कचिद् वर्तते।।
श्रीराधिका की एक सखी श्यामसुन्दर से कहती हैं— ‘वेणुधर! तुम्हारे अदर्शन से राधा की दशा आज कैसी हो रही है! उनके नेत्रों से जल की इतनी वर्षा हो रही है कि उससे यमुनाजी का जल बढ़कर दूना हो गया है। उनके शरीर से इस प्रकार पसीना झर रहा है, जैसे चाँदनी रात्रि में चन्द्रकान्त मणि पसीजकर रस बहाने लगती है। उनका शरीर भी चन्द्रकान्त मणि की भाँति ही स्तब्ध (निष्चेष्ट) हो गया है और उसका वर्ण भी उसी मणि के सदृश पीला पड़ गया है। उनके कण्ठ की वाणी रुक-रुककर निकलती है तथा उसका स्वर भंग हो गया है। उनका सर्वांग कदम्ब के केसर की भाँति पुलकित हो रहा है। भयंकर आँधी-पानी में जैसे केले का वृक्ष काँपकर भूमि पर गिर जाता है, वैसे ही उनकी अंगलता भूमि पर गिर पड़ी है।’

ये सब महान् भाव-तरंगे श्रीराधा के महाभाव-सागर को प्रकट दिखला रही है।
वस्तुतः श्रीकृष्ण, श्रीराधा, श्रीगोपांगना समूह एवं उनकी मधुरतम लीलाओं में कोई भेद नहीं है। रस-स्वरूप श्रीश्यामसुन्दर ही अनन्त-अनन्त रसों के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही अनन्त-अनन्त रसों का समास्वादन करते हैं। वे स्वयं ही आस्वाद्य, आस्वादक और आस्वाद बने हैं तथापि श्रीराधा-माधव का मधुरातिमधुर लीला-रस-प्रवाह अनादि-अनन्त रूप से चलता रहता है। श्रीकृष्ण और श्रीराधा का कभी बिछोह न होने पर भी वियोग लीला होती है; पर उस वियोग लीला में भी संयोग की अनुभूति होती है और संयोग में भी वियोग का भान होता है। ये सब रस-समुद्र की तरंगे हैं। प्रेम का स्वभाव श्रीराधा के अंदर पूर्णरूप में प्रकट है, इसलिये वे अपने में रूप-गुण का सर्वथा अभाव मानती हैं।

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