Sunday, 10 April 2016

श्रीराधाभाव की एक झाँकी भाग 2

श्रीराधाभाव की एक झाँकी
भाग 2

श्रीकृष्ण को नित्य अपने सांनिध्य में ही देखकर सोचती हैं कि मेरे मोह में प्राणनाथ यथार्थ सुख से वंचित हो रहे हैं। अच्छा हो, मुझे छोड़कर ये अन्यत्र चले जायँ तथा सुख-सम्पादन करें, पर श्रीकृष्ण कभी इनसे पृथक् नहीं होते। इस प्रकार प्रेम का प्रवाह चलता रहता है। परम त्याग, परम प्रेम और परम आनन्द— प्रेम की इस पावन त्रिवेणी का प्रवाह अनवरत बहता ही रहता है।
एक विचित्र बात तब होती है, जब श्रीकृष्ण मथुरा पधार जाते हैं, श्रीराधा तथा समस्त गोपीमण्डल एवं सारा व्रज उनके वियोग से अत्यन्त पीड़ित हो जाते हैं।
यद्यपि श्रीश्यामसुन्दर माधुर्यरूप में नित्य श्रीराधा के समीप ही रहते हैं, पर लोगों की दृष्टि में वे चले जाते हैं। मथुरा से संदेश देकर वे उद्धवजी को व्रज में भेजते हैं।
श्याम-सखा श्रीउद्धवजी व्रज में आकर नन्दबाबा एवं यशोदा मैया को सान्त्वना देते हैं, फिर गोपांग-समूह में जाते हैं; वहाँ बड़ा ही सुन्दर प्रेम का प्रवाह बहता है और उसमें उद्धव का समस्त चित्तप्रदेश आप्रावित हो जाता है। तदनन्तर वे श्रीराधिकाजी से एकान्त में बात करते हैं। श्रीराधा की बड़ी ही विचित्र स्थिति है। वे जब उद्धवजी से श्रीश्यामसुन्दर का मथुरा से भेजा हुआ संदेश सुनती हैं, तब पहले तो चकित-सी होकर मानो संदेह में पड़ी हुई-सी कुछ सोचती हैं। फिर कहने लगती हैं—

‘उद्धव! तुम मुझको यह किसका कैसा संदेश सुना रहे हो? तुम झूठमूठ मुझे क्यों भुलावें में डाल रहे हो? मेरे प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर तो यहीं हैं। वे कब परदेश गये? कब मथुरा गये? वे तो सदा मेरे पास ही रहते हैं। मुझे देखे बिना एक क्षण भी उनसे नहीं रहा जाता, मुझे न पाकर वे क्षणभर में व्याकुल हो जाते हैं; वे मुझे छोड़कर कैसे चले जाते? फिर मैं तो उन्हीं के जिलाये जी रही हूँ, वे ही मेरे प्राणों के प्राण हैं। वे मुझे छोड़कर चले गये होते तो मेरे शरीर में ये प्राण कैसे रह सकते?’
उद्धव! तुम मुझको किसका यह सुना रहे कैसा संदेश?
भुला रहे क्यों मिथ्या कहकर? प्रियतम कहाँ गये परदेश?
देखे बिना मुझे पलभर भी कभी नहीं वे रह पाते!
क्षणभर में व्याकुल हो जाते, कैसे छोड़ चले जाते?
मैं भी उनसे ही जीवित हूँ, वे ही हैं प्राणों के प्राण।
छोड़ चले जाते तो कैसे तन में रह पाते ये प्राण?
इतने में ही श्रीकृष्ण खड़े दिखलायी दिये। तब राधा बोलीं— ‘अरे देखो, उधर देखो, वे नन्दकिशोर कदम्ब के मूल में खड़े कैसी निर्निमेष दृष्टि से मेरी ओर देख रहे हैं और मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं! देखो तो, मेरे मुख को कमल समझकर प्राणि प्रियतम के नेत्र-भ्रमर मतवाले होकर मधुर रस-पान कर रहे हैं।’
देखो-वह देखो, कैसे मृदु-मृदु मुसकाते नंदकिशोर।
खड़े कदम्ब-मूल अपलक वे झाँक रहे हैं मेरी ओर।।
देखो, कैसे मत्त हो रहे, मेरे मुख को पंकज मान।
प्राण प्रियतम के दृग-मधुकर मधुर कर रहे हैं रसपान।।
‘देखो, भौंहे चलाकर और आँखें मटकाकर वे मेरे प्राणधाम मुझसे इशारा कर रहे हैं तथा अत्यन्त आतुर होकर मुझको एकान्त कुन्ज में बुला रहे हैं। उद्धव! तुम भौंचक-से होकर कदम्ब की ओर कैसे देख रहे हो? क्या तुम्हें श्यामसुन्दर नहीं दिखायी देते, अथवा क्या तुम उन्हें देखकर प्रेम में डूब गये हो?’
भ्रकुटि चलाकर, दृग मटकाकर मुझे कर रहे वे संकेत।
अति आतुर एकान्त कुन्ज में बुला रहे हैं प्राणनिकेत।।
कैसे तुम भौंचक-से होकर देख रहे कदम्ब की ओर?
क्या तुम नहीं देख पाते? या देख हो रहे प्रेम-विभोर।।
श्रीराधिकाजी यों कह रही थीं कि उन्हें श्यामसुन्दर के दर्शन होने बंद हो गये; तब वे अकुला उठीं और बोलीं—
‘हैं, यह सहसा क्या हो गया? श्यामसुन्दर कहाँ छिप गये? हाय! वे आनन्दनिधान मनमोहन मुझे क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं? वे लीलामय क्या आज पुनः आँखमिचौनी खेलने लगे? अथवा मैंने उनको तुम्हें दिखा दिया, इससे क्या उन्हें लाज आ गयी और वे कहीं छिप गये?’
हैं, यह क्या? सहसा वे कैसे, कहाँ हो गये अन्तर्धान?
हाय, क्यों नहीं दीख रहे मुझको मनमोहन मोदनिधान?
आँखमिचौनी लगे खेलने क्या वे लीलामय फिर आज?
दिखा दिया मैंने तुमको, क्या इससे उन्हें आ गयी लाज?
‘नहीं, नहीं! तब क्या वे सचमुच ही मुझे छोड़कर चले गये? हाय! क्या वे मुझसे मुख मोड़कर मुझे अपरिमित अभागिनी बनाकर चले गये? हाय उद्धव! तुम सच कहते हो, तुम सत्य संदेश सुनाते हो? वे चले गये, हा! वे मेरे लिये रोना शेष छोड़कर चले गये!’
प्रतिपल जो अपलक नयनों से मुझे देखते ही रहते,
सुखमय मुझे देखने को जो सभी द्वन्द्व सुख से सहते।
मुरा दुःख दुःख अति उनका, मेरा सुख ही अतिशय सुख।
वे कैसे मुझको दुःख देकर खो देते निज जीवन-सुख।।
इतना कहते-कहते ही राधा का भाव बदला। उनके मुख पर हँसी छा गयी और उल्लासित होकर वे कहने लगीं - ‘हाँ ठीक, वे चले गये। मुझे परम सुख देने के लिये ही वे मथुरा में जाकर बसे हैं। मैं इसका रहस्य समझ गयी। मैं सुखी हो गयी मुझे सुख देने वाले प्रियतम के इस कार्य को देखकर! मुझे वे सब पुरानी बातें याद आ गयीं, जो मुझमें-उनमें हुआ करती थीं। उनके जाने का कारण मैं जान गयी। वे मुझे सुखी बनाने के लिये ही गये हैं। इसी से देखो, मैं कैसी प्रफुल्लित हो रही हूँ - मेरा अंग-अंग आनन्द से किस प्रकार रोमान्चित हो रहा है।’
मुझे परम सुख देने को ही गये मुधपुरी में बस श्याम।
समझ गयी, मैं सुखी हो गयी, निरख सुखद प्रियतम का काम।।
याद आ गयी मुझको सारी मेरी-उनकी बीती बात।
जान गयी कारण, इससे हो रही, प्रफुल्लित, पुलकित-गात।।
“बताऊँ, क्या बात है? मुझमें न तो कोई सद्गुण था, न कोई रूप-माधुरी ही। मैं दोषों की खान थी। पर मोह विवश होने के कारण मनमोहन श्यामसुन्दर को मुझमें सौन्दर्य दिखलायी देता और वे मुझे अपना सर्वस्व - तन-मन-धन देकर मुझ पर न्योछावर हुए रहते! वे बुद्धिमान् होकर मोहवश मुझे ‘मेरी प्राणेश्वरी’, ‘मेरी हृदयेश्वरी’ कहते-कहते कभी थकते ही नहीं। मुझे इससे बड़ी लज्जा आती, बड़ा संकोच होता। मैं बार-बार उन्हें समझाया करती - ‘प्रियतम! तुम इस भ्रम को छोड़ दो।’ पर मेरी बात मानना तो दूर रहा, वे तुरंत मुझे हृदय से लगा लेते, मेरे कण्ठहार बन जाते, मैं उन्हें अपने गले से लिपटा हुआ पाती!

मैं गुण से, सौन्दर्य से रहित थी; प्रेमधन से दरिद्र थी, कला-चतुरता से हीन थी; मूर्खा, बहुत बोलने वाली, झूठे ही मान-मद से मतवाली, मन्दमति तथा मलिन स्वभाव की थी।

मुझसे बहुत-बहुत अधिक सुन्दरी, सद्गुण-शीलवती, सुन्दर रूप की भंडार अनेकों सुयोग्य सखियाँ थीं, जो प्रियतम को अत्यन्त सुख देने में समर्थ थीं। मैं उनसे नाम बता-बताकर प्रियतम को उनसे स्नेह करने के लिये कहती; परंतु वे कभी भूलकर भी उनकी ओर नहीं ताकते और सबसे अधिक - अधिक क्यों, वे प्रियतम सारा ही प्यार सब ओर से, सब प्रकार से, अनन्य रूप से केवल मुझको ही देते।

इस प्रकार प्रियतम का बढ़ा हुआ व्यामोह देखकर मुझे बड़ा संताप होता और मैं देवता से मनाया करती कि ‘हे प्रभो! आप उनके इस मोह को शीघ्र हर लें।’ मेरा बड़ा सौभाग्य है कि देवता ने मेरी करुण पुकार सुन ली। मेरे प्राणनाथ मोहन का मोह आखिर मिट गया और अब वे मथुरा में अपार आनन्द प्राप्त कर रहे होंगे।

मेरे प्राणाराम वे किसी नगर निवासिनी चतुर सुन्दरी को प्राप्त करके अनुपम सुख भोग रहे होंगे।
मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। आप मैं परम सुखवती हो गयी। आज मेरे भाग्य खुल गये, जो मुझको आनन्द-मंगलमय, जीवन को सजाने वाला, सुख की खानरूप श्यामसुन्दर का यह संदेश सुनने को मिला।’

सद्गुणहीन, रूप-सुषमा से रहित, दोष की मैं थी खान।
मोह विवश मोहन को होता मुझमें सुन्दरता का भान।।
न्यौछावर रहते मुझ पर सर्वस्व स-मुद कर मुझको दान।
कहते थकते नहीं कभी ‘प्राणेश्वरि!’ ‘हृदयेश्वरि!’ मतिमान।।
‘प्रियतम! छोड़ो इस भ्रम को तुम’ - बार-बार मैं समझाती।
नहीं मानते, उर भरते, मैं कण्ठहार उनको पाती।।
गुण-सुन्दरता-रहित, प्रेमधन-दीन, कला-चतुराई-हीन।
मुर्खा, मुखरा, मान-मद-भरी मिथ्या, मैं मतिमन्द मलीन।।
मुझसे कहीं अधिकतर सुन्दर सद्गुण-शील-सुरूप-निधान।
सखी अनेक योग्य, प्रियतम को कर सकतीं अतिशय सुख-दान।।
प्रियतम कभी, भूलकर भी, पर नहीं ताकते उनकी ओर।
सर्वाधिक क्यों, प्यार मुझे देते अनन्य प्रियतम सब ओर।।
रहता अति संताप मुझे प्रियतम का देख बढ़ा व्यामोह।
देव मनाया करती मैं, ‘प्रभु! हर लें सत्वर उनका मोह’।।
मेरा अति सौभाग्य, देव ने सुन ली मेरी करुण पुकार।
मिटा मोह मोहन का, अब वे प्राप्त कर रहे मोद अपार।।
पाकर सुन्दर चतुरा किसी नागरी को वे प्राणाराम।
भोग रहे होंगे अनपम सुख, पूर्ण हुआ मेरा मन-काम।।
परम सुखवती आज हुई मैं, खुले भाग्य मेरे हैं आज।
सुना श्याम-संदेश सुखाकर, मुद-मंगलमय, जीवन-साज।।
यह कहते-कहते ही पुनः भाव में परिवर्तन हो गया। वे दृढ़तापूर्वक बोली - “नहीं-नहीं, प्रियतम से ऐसा काम कभी हो ही नहीं सकता। मुझसे कभी पृथक् होना उनके लिये सम्भव ही नहीं। मेरा और उनका ऐसा सुन्दर, प्रिय और अनन्य-अनोखा सम्बन्ध है, जो कभी मिट ही नहीं सकता। मुझे छोड़कर ‘वे’ ओर उनको छोड़कर ‘मैं’ कभी रह ही नहीं सकते। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है। वे मैं हूँ, मैं वे हैं। दोनों एक तत्त्व हैं। दोनों सब प्रकार से एकरूप ही हैं।”

नहीं, नहीं! ऐसा हो सकता नहीं कभी प्रियतम से काम।
मेरा-उनका अमिट अनोखा प्रिय अनन्य सम्बन्ध ललाम।।
मुझे छोड़ ‘वे’ उन्हें छोड़ ‘मैं’ रह सकते हैं नहीं कभी।
‘वे मैं’ ‘मैं वे’ - एक तत्त्व हैं - एक रूप हैं भाँति सभी।।
राधा यों कह रही थी कि उन्हें श्यामसुन्दर सहसा दिखायी दिये। वे बोल उठीं - ‘अरे’, अरे उद्धव! देखो, वे सुजान फिर प्रकट हो गये हैं। कैसा मनोहर रूप है, कैसी सुन्दर प्रेमपूर्ण दृष्टि है। अधरों पर मृदु मुसकान खेल रही है। ललित त्रिभंग मूर्ति है। घुँघराले कुटिल केश हैं। सिर पर मोर-मुकुट तथा कानों में कमनीय कुण्डल झलमला रहे हैं। मुरलीधर ने अधरों पर मुरली धर रखी है और उससे मधुर तान छेड़ रखी है।’

अरे-अरे उद्धव! देखो, वे पुनः प्रकट हो गये सुजान।
प्रेमभरी चितवन सुन्दर छायी अधरों पर मृदु मुसकान।।
ललित त्रिभंग, कुटिल कुन्तल, सिर-मोर-मुकुट, कल कुण्डल कान।
धर मुरली मुरलीधर अधरों पर हैं छेड़ रहे मधु तान।।
यों कहकर राधा समाधिमग्न-सी एकटक देखती निस्तब्ध हो गयीं। इस प्रकार प्रेम-सुधा-समुद्र श्रीराधा में विविध विचित्र तरंगों को उछलते देखकर उद्धव अत्यन्त विमुग्ध हो गये। अनके सारे अंग सहसा विवश हो गये। उनको अपने शरीर की सुधि नहीं रही। उनके हृदय में नयी-नयी उत्पन्न हुई शोभा प्रेम-नदी में अकस्मात् बाढ़ आ गयी। कहीं ओर-छोर न रहा। वे आनन्दमग्न होकर भूमि पर लोटने लगे और उनका सारा शरीर शुभ राधा-चरण-स्पर्श-प्राप्त व्रजधूमि से धूसरित हो गया।

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