Thursday, 21 April 2016

अस्ति स्वस्तरुणी-कराग्र-विगलत् में वस्तु का अर्थ

अस्ति स्वस्तरुणी-कराग्र-विगलत्-कल्पप्रसूनाप्लुतं
वस्तु प्रस्तुत-वेणुनाद-लहरी-निर्वाण-निर्व्याकुलम् ।
स्रस्त-स्रस्त-निरुद्ध-नीविविलसद्-गोपीसहस्रावृतं
हस्तन्यस्त-नतापवर्ग-मखिलोदारं किशोराकृति ।।

अनुवाद- जो वेणुनाद- लहरी के माधुर्य-आनन्द से निर्व्याकुलया निश्चल हैं; स्वर्गीय (स्वर्ग की) तरुणियों के कराग्रभाग से निकले कल्पतरुओं के पुष्पों द्वारा छा गए हैं; स्खलित नीवियों वाली सहस्र-सहस्र गोपियों से घिरे हैं; जिनके हाथ में प्रणतजनों का अपवर्ग (मोक्ष, परमगति) विद्यमान है; जो सभी के प्रति उदार हैं- ऐसी एक किशोराकृति वस्तु श्रीवृन्दावन में नित्य विराजमान है ।। 2 ।।

श्रीलीलाशुक प्रेमोन्मत्त दशा में श्रीवृन्दावन जा रहे हैं। कुछेक वैष्णव सहचर उनका अनुगमन कर रहे हैं। वे उनसे पूछते हैं- स्वामिन्! आप इतनी व्याकुलता लिए कहाँ जा रहे हैं? वहाँ ऐसी क्या वस्तु है, जिसके लिए आप इतने आकुल हैं? तब श्रीलाशुक के चित्त में श्रीकृष्ण का असीम माधुर्य-सिन्धु उच्छलित हो उठा। साथ ही साथ त्रिवेणीसंगम में सरस्वती प्रवाह की तरह कृष्ण के ऐश्वर्य का स्फुरण भी हुआ। श्रीकृष्ण की स्वयं भगवत्ता के निरूपण में उनके प्रभाव, वैभव, अंशावतार, शक्ति-आवेश अवतार आदि की बातें कहने लगे। फिर श्रीकृष्ण के बाल्य, पौगण्ड आदि स्वविलास की बातें सुनाई। स्वप्रकाशरूप की बात भी कही। श्रीकृष्ण ही समस्त भगवत स्वरूपों के परमाश्रय हैं- चित्त शक्ति और उसके विलास अनन्त वैकुण्ठों के आश्रय हैं- माया शक्ति और उसके वैभव अनन्त ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं- जीव शक्ति के भी वे एक मात्र परम आश्रय हैं- वे ही सर्वोत्तम हैं, सर्वभजनीय, परतत्वरूप हैं। इस प्रकार उन्होंने श्रीकृष्ण का निरूपण किया। श्रीमद्भागवत (2/10/1-2) में आश्रयतत्त्वरूप में श्रीकृष्ण का ही वर्णन हुआ है-

“अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ।।
दशमस्य विशुद्धयर्थ नवानमिह लक्षणम् ।
वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ।।”
“सर्ग, विसर्ग आदि दस लक्षणों से युक्त है श्रीमद्भागवत शास्त्र। दसवाँ पदार्थ या आश्रयतत्व ही श्रीकृष्ण हैं। महात्मागण इस आश्रयतत्व की विशुद्धि के लिए या तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए सर्ग आदि नौ लक्षणों का श्रुति प्रमाण की सहायता से कहीं साक्षात् रूप से, कहीं तात्पर्य वृत्ति द्वारा वर्णन किया करते हैं।” श्रीलीलाशुक ने जब श्रीकृष्ण का निरूपण किया सर्वभजनीय परम तत्व वस्तु के रूप में, तो उनके हृदयगत आवेश के वश श्रीकृष्ण उनके आगे स्फुरित हो गए। तैसे ही उन्होंने प्रलाप के रूप में इस श्लोक का उच्चारम किया। पहले इसका बाहरी अर्थ बताया जा रहा है।

वस्तु - ‘वस्तु अस्ति’ मूलकी इस उक्ति की व्याक्या में श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्री वृन्दावन में कोई एक वस्तु सर्वदा विराज रही है। यहाँ ‘वस्तु’ शब्द के प्रयोग की सार्थकता यह है कि जो भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालों में अविकृत रूप से विराजती है, वह वस्तु वाच्य है। तो क्या वे निराकार ब्रह्म हैं? बोले, नहीं- वे किशोराकृति हैं नित्य नवकिशोर मूर्ति। इन नित्यकिशोर श्रीकृष्ण की ही अंगप्रभा निराकार ब्रह्म है। “कृष्णेर अंगेर प्रभा परम उज्ज्वल। उपनिषद कहे जारे ब्रह्म सुनिर्मल।।” (चै.च.) गीता (14/27) में श्रीकृष्ण ने कहा है- ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्! “प्रतिष्ठा प्रतिमा; घनीभूतं ब्रह्मैवाहं यता घनीभूतः प्रकाश एवं सूर्य मंडल तद्वदित्यर्थः (श्रीधर स्वामी)” मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा अर्थात् घनीभूत ब्रह्म हूँ, जैसे सूर्यमण्डल घनीभूत प्रकाशस्वरूप है। अतएव ब्रह्म परमपुरष षड़ैश्वर्यपूर्ण भगवान् का ही अविर्भाव विशेष है। भगवद्दर्शन के प्रथम सोपान के रूप में निर्विकल्प (वैशिष्ट्यहीन) दर्शन ही ब्रह्मदर्शन है, अर्थात् सत् चित आनन्दस्वरूप ब्रह्म का प्राथमिक ज्ञान। स्वरूप का सम्यक् ज्ञान होने से अविद्या की निवृत्ति होती है और ब्रह्मदर्शन होता है, अर्थात् चित्त साम्य से ब्रह्म के साथ अपनी चित सजातीयता का अनुभव होता है। स्वरूप स्फूर्ति की परिपक्वता क्रम से जीव आत्माराम होता है। ये आत्मराम मुनि गण भी परब्रह्म श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट होकर श्रीकृष्ण का भजन करते हैं। “आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्यरुक्रमे। कुर्वन्त्य हैतुर्की भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।” (भ. 1/7/10) इसी से आत्मारामगण को आकर्षित करने वाले श्रीकृष्ण के रूप-गुण-लीला का माधुर्य-आधिक्य समझा जाता है।

सर्वाकर्षक सर्वाल्हादक महारसायन ।
आपनार बले करे सर्व-विस्मारण ।।
भुक्ति मुक्ति सिद्धि सुख छाड़ाय जार गंधे ।
अलौकिक शक्तिगुणे कृष्ण कृपा बान्धे ।।
शास्त्रयुक्ति नाहि इहा सिद्धांत विचार ।
एइ स्वभाव गुणे जाते माधुर्येर सार ।।[1]
यही कृष्ण नित्यकिशोराकृति हैं। जीव में देह-देही भेद हैं; जीवदेह विकार से जुड़ी है, उसका उपचय अपचय (वृद्धि-क्षय) है, इसलिए विनाशशील है। भगवत्देह वैसी नहीं है। भगवान् का देह-देही भेद नहीं; वे सच्चिदानन्दन विग्रह हैं, इसलिए वे ही वस्तु हैं। श्रीमद्भागवत में अनेक स्थानों पर यही परमतत्व ‘वस्तु’ के रूप में अभिहित हुआ है।

“वैद्यं वास्तव वस्तु शिवदम् (बा. 1/1/2) परम सुखद वास्तव वस्तु भगवान् ही इस भागवत का वेद्य है।” “बिनाच्युताद वस्तु परं न वाच्यम्”- अच्युत के बिना अन्य कोई परमवस्तु वाच्य नहीं। “नातः परं परमयद्भवतः स्वरूपम्” (भा. 3/9/3)- हे परमेश्वर ! आनन्दमय अद्वितीय स्वरूप तुमने भिन्न श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं दीखता। इन सब प्रमाणों से यह जाना जाता है कि कृष्ण ही वस्तु हैं।

श्रीपाद भट्ट गोस्वामी कहते हैं, भक्तों के हृदय में वास करते हैं तभी वस्तु हैं, किंतु इस वस्तु का आविर्भाव वृन्दावन में ही है। जैसे लीलाशुक ही कहते हैं-

“गोपालाजिर कर्दमे विहरसे विप्राध्वरे लज्जसे
व्रूषे गोधन-हंकृतैः स्तुतिशतैर्मौनं विधत्से सताम् ।
दास्यं गोकुल-पुंश्चलीषु कुरुषे स्वाम्यं न दान्तात्मसु
ज्ञातं कृष्ण तवांघ्रिपंकजयुगं प्रेमैकलभ्यं परम् ।।”[1]
“हे कृष्ण! तुम व्रज में ग्वालों के आँगन में कीचड़ में (घुटवन लीला में) आनन्द से विहार करते हो, किंतु ब्राह्मणों के पवित्र यज्ञस्थान पर आने में लज्जा करते हो। व्रज में गायों के हुंकार का उत्तर देते हो (गोचारण लीला में), किंतु महत्गण के शत-शत स्तुतिवाक्यों पर भी मौन धारण किए रहते हो। गोकुलबालाओं की दासता करने में भी (कैशोरलीला में) तुम्हें संकोच नहीं होता, किंतु जितेन्द्रियों का स्वामी बनने की भी इच्छा नहीं करते। समझ गया, व्रजवासियों का शुद्धप्रेम ही तुम्हें पाने का एक मात्र उपाय हैं।”

‘वस्’ धातु के आच्छादन, स्तम्भभाव आदि अर्थ भी हैं- “वस् निवासे, आच्छादने, स्तम्भ इति धातवः।” श्रीकृष्ण सभी को आच्छादित करते हैं, इसलिए ‘वस्तु’ हैं। इसके द्वारा स्वरूप से रसचमत्कारिता से प्रभाव- अतिशयता से श्रीकृष्ण का पूर्णत्व निरूपित हुआ। स्तम्भभाव के उपलक्षण से भक्तजन उनका भजन कर अश्रु पुलकादि सात्विक भावों से विभूषित हुए रहते हैं, तभी श्रीकृष्ण वस्तु हैं। यह वस्तु वृन्दावन में नित्य विराजती है, यह नव किशोराकृति है। संकलन सत्यजीत तृषित ।

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