अनुराग चिंतामणि सोमगिरि पादकल्पतरु पल्लवशेखरेषु
श्रीकृष्णमाधुर्य में अनुराग उत्पन्न होता है, तो अनुरागी को कृष्णमाधुरी नवनवायमान लगती है। “सदानुभूतमपि यः कुर्यान्नवनवं प्रियम्”, अर्थात् जो सदा अनुभूत प्रिय को नव-नव रूप में अनुभव कराये, उसी का नाम ‘अनुराग’ है।
चिन्तनीय धर्म आदि से आरंभ कर श्रीकृष्ण की रसमय लीलाओं तक के जो प्रकाशक हैं, वे चिन्तामणि हैं। अर्थात् जो हम लोगदों की चिन्तनीय वस्तु को प्रकाशित करते हैं। अथवा परम भागवतगण भगवान् के जिन-जिन स्वरूपों का चिन्तन करते हैं, उन स्वरूपों में जो मणि या सर्वश्रेष्ठ है।
उधर श्रीकृष्ण हैं ‘सोमगिरि’। सोम का अर्थ है अमृत। उस अमृत के जो गिरि हैं अर्थात् पर्वत की तरह बहुत प्रकार से आस्वाद्य परमानन्द-रसराशि। अथवा जो उमा के साथ विद्यमान हैं, वे ‘सोम’- महादेव। ये महादेव जिनके प्रेम में सात्विक भाव स्तम्भ से युक्त होकर गिरि की तरह निश्चल रहते हैं, वे सोमगिरि हैं। अथवा जो सोम या महादेव के गिरि अर्थात् पूज्य हैं। इस प्रकार रसिक सन्तों ने श्रीकृष्ण को ही गुरु और शिक्षागुरु कहा है।
‘पादकल्पतरु पल्लवशेखरेषु’ इस पद में शेखर शब्द है। इस शेखर का अर्थ यही है कि काम आदि षड़ वर्ग, चक्षु आदि पंचेद्रियों से उत्पन्न पञ्चक्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश द्वारा मानव का चित्त सतत विक्षुब्ध होकर कुमार्ग पर चलता है। आदमी विश्वजयी होकर भी इन्हें नहीं जीत सकता इसलिए सुखी भी नहीं हो सकता। इन्हें पराजित करना है, तो जो विजयलक्ष्मी श्रीकृष्ण के पदनखाग्र को अवलम्बन बना विराजमान हैं, उसी श्रीकृष्णपाद कल्पतरुपल्लवशेखर की ओर दृष्टि रखकर उन विजयलक्ष्मी के शरणापन्न होना होगा, कारण- वह विजयलक्ष्मी या जय संपदा श्रीकृष्ण के पदनखों पर आश्रित है।
सत्यजीत तृषित ।।।
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