Sunday, 24 April 2016

साधक साधना साध्य में अभेदता

अभेद में गजब की शक्ति है ।
अगर किसी भी वस्तु , काल से हम अभेदता पाते है या मान ही लेते है तब भविष्य में वह सिद्ध भी हो जाता है । अगर परस्पर पृथक् मानते तब पृथकता ही सिद्ध होती है ।
मान्यता इतनी गहरी बात है कि जिसने अभिन्न जाना वह अपने साक्ष्य प्रमाण भी दे दे तो भी पृथकता जानने वाले उसे सहज न माने क्योंकि उनके सन्मुख पृथकता के प्रमाण है ।
जैसा कि मै मानता हूँ शब्द नित्य है , वेद नित्य है , श्री भगवत् नाम भी नित्य है । यहाँ तक नित्य संसार भी है वहाँ ।
अब इस मान्यता से मुझे तो इनके नित्यता का प्रमाण मिल भी जाता है पर व्यक्त करने पर भी वह स्वीकार्य नहीँ होता ।
जैसे नाम नित्य है , हमारे द्वारा लिया नाम में नाम लेने का अभिमान है , जबकि नाम स्वयं ईश्वर है यह मान लेने पर हम नाम के आश्रित होते है और नाम लेना फिर नाम का प्राप्त होना अनुभव होता है ।
नाम भगवान है , अतः वह जब भी प्रगट होंगे अपनी इच्छा से होंगे । अपने करने से हुआ यह हटने से (कर्तत्व का अभिमान ) ,  नाम स्वरूप साक्षात् होते है । यहाँ नाम के उच्चारण में भी हमारा ध्यान नाम श्रवण में होता है जैसे कही कहा जा रहा हो और हम रिपीट कर रहे हो । यह लिखित सिद्ध होने पर भी देह अभिमान हटे बिन ग्रहण नहीँ होती ।
कृपा ही सर्व साधन और प्राप्तियों का मूल है ।
कृपा का जितना विस्तार होगा , अहम् की उतनी सत्ता पिघल जायेगी ।

जैसे एक और बात कहीँ वेणु बज रही है यहाँ वेणु वादक को अगर वेणु का श्रोता कहू तो आश्चर्य होगा , वेणु नाद तो नित्य है उसके कुछ परमाणु वादक को सुनाई आने से वहीँ वादन होने लगता है , इस अवस्था में वादक दिव्य स्थितियों का अनुभव करता है , अगर वादक पलायन कर कही रसमय वेणु की लहरियों में खो गया तो यह वादन कैसे घटा , यह भी श्रवण से हुआ ।
यहाँ सुनी वेणु के आश्रय से भी नित्य वेणु श्रवण की प्राप्ति हो सकती है क्योंकि वेणु नाद नित्य है तब इस प्राकृत स्वर में भी आंशिक है ही वह पकड़ ली जावें तब वह मधुर धाम रस निकुँज में लें जाती है । वहाँ यह वेणु नाद नित्य ध्वनित है कभी इसका विराम नहीँ इसके रस , स्वर परिवर्तन से लीला रस में नवीनता का सञ्चार रहता है । कभी प्रतीत हो वेणु नाद रुक गया वह तब भी नहीँ रुकता नित्य रहता है , रुकता तो नित्य कहना ही नहीँ होता ।
महाप्रेमी और आंतरिक रस प्रगट ज्ञानी जानते है , साध्य , साधक , साधन में भेद नहीँ । वैसे ही वेणु , श्रोता , वादक अभिन्न है ।
या कहे भजन रस से मिलने वाले ईश्वर , भजन रस , और भजन रस करने वाले साधक भी अभिन्न है ।
यहाँ साधक भी साध्य हो सकता है , जैसे श्री जी या किन्हीं सखी के पास वेणु हो तब सखी साधक और साध्य दोनों है ,  भगवान भी तब साधक और साध्य दोनों है , वेणु सुन उन्हें अह्लाद भी होता है , वह लालसामय याचना भी करने लगते है रस की । वेणु के फलस्वरूप मिलने वाले भी वें ही है , अतः साधक और साध्य दोनों , इतना ही नहीँ यह वेणु भी वहाँ वहीँ ही है । वेणु या अन्य ऐसा ही कुछ स्रोत रस , रस देने वाला , रस लेने वाला तीनोँ है ।
इनके आश्रय से जब रस गहन होता है तब यह युगल को और सखियों को प्राप्य (प्राप्त करने योग्य) लगते है । साधन होने पर भी यह साधक और साध्य है । इन्हीं भावनाओं से रस सम्प्रदाय भी है ।
जैसे हरिदासी भाव में ललितास्वरूपा स्वामी हरिदास जु साधक भी है । अन्य के लिये साध्य तत्त्व (यानी जिनके मिलने पर सर्व रस स्वयं प्राप्त हो) और साधना भी वहीँ है नाम रूप में । यहाँ और गहनता में कहा जावें तो त्रिगुण पास की निवृत्ति हेतु ही साधना होती है । भगवान की और से प्रवेश (एन्ट्री) ही है , अपने सत् रज तम् छुट जावें इसलिये त्रिपुर साधना होती है ।
जेलर की आज्ञा से ही कारावास छूटता है । त्रिपुरा ही ललिता रूप प्रियाप्रियतम संग है । अतः वहीँ गहनता में साधना हुई , साध्य हुए , क्योंकि अगर सीधे युगल रस मिल जावें और रस के पात्र न मिले तब रस टिकता नहीँ , सखियाँ रस पात्र भी है , स्वयं रस भी , अतः उनका आलम्बन होना आवश्यक है । ऐसा न हो कोई साधक अधिक गहन रूदन करें तब श्री जी गोद में उठा कर चुप कराकर उस साधक के अनुकूल सखी या मञ्जरी को सौंप रस दीक्षा का आदेश करती है ।
उदाहरण एक मत का दिया सभी मत में ऐसा ही है । साधक , साध्य , साधन में अभिन्नता जिसे जैसा मान्यता वश दिखे वह उसे ही साध्य जान लेता है - सत्यजीत तृषित ।

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