Wednesday, 13 April 2016

शिखिपिञ्छमौलि

शिखिपिञ्छमौलि

शिखिपिञ्छमौलि’ इस विशेषण द्वारा श्रीकृष्ण की माधुर्य-स्फूर्ति सूचित हुई है। यहाँ पर श्रील कविराज गोस्वामिपाद ने अपनी सारंगरंगदा टीका में श्रीमद्भागवत के श्रीकृष्णमाधुरी विषयक निम्नलिखित श्लोकों के भाव को स्मरण कराया है-

“तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ।।”[2]
अर्थात् शूरनन्दन श्रीकृष्ण व्रजवनिताओं के आगे आविर्भूत हुए। उनका मुखकमल मृदुमन्द हास्य से उत्फुल्ल है, पीतवस्त्र धारण किए हैं, गले में वनमाला है, रूप में वे साक्षात् मदनमोहन हैं।

“यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग-, मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः, परं पदं भूषणभूषणांगम् ।।”[3]
उद्धवजी ने विदुर से कहा- भगवान् श्रीकृष्ण का वह रूप मर्त्यलीला के लिए उपयोगी है, श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया का बल प्रदर्शित करने के लिए ही वह रूप प्रकाशित किया था, वह रूप उनके स्वयं के लिए भी विस्मयजनक है- वह सौभाग्यातिशय का परस आस्पद और भूषण का भी भूषणस्वरूप अर्थात् परमसुन्दर है।

श्री मन्महा प्रभु ने श्रीसनातन गोस्वामिपाद के आगे इस श्लोक का कैसा अपूर्व आस्वादन किया है-

“कृष्णेर मधुर रूप शुन सनातन !
जे रूपेर एक कण, डुबाय सर्वभुवन,
सर्वप्राणी करे आकर्षण ।।
योगमाया चिच्छक्ति, विशुद्धसत्त्व-परिणति,
तार शक्ति लोके देखाइते।
एइ रूप-रतन, भक्तगणेर गूढ़धन,
प्रकट कैल नित्यलीला हैते ।।
रूप देखि आपनार, कृष्णेर हय चमत्कार,
आस्वादिते मने उठे काम।
स्वसौभाग्य जार नाम, सौन्दर्यादि गुणग्राम,
एइ रूप तार नित्यधाम ।।
भूषणेर भूषण अंग, ताहे ललित त्रिभंग,
तार उपर भ्रूधनु-नर्तन ।
तेरछ-नेत्रान्त-वाण, जार दृढ़ सन्धान,
बिन्धे राधा-गोपीगण-मन ।।
कोटि ब्रह्माण्ड परव्योम, ताँहा जे स्वरूपगण,
ता-सभार बले हरे मन ।
पतिव्रता शिरोमणि, जारे कहे वेदवाणी,
आकर्षये सेइ लक्ष्मीगण ।।

चढ़ि गोपी-मनोरथे, मन्मथेर मन मथे,
नाम धरे मदनमोहन ।
जिनि पञ्चशर-दर्प, स्वयं नवकन्दर्प,
रास करे लइया गोपीगण ।।
निज-सम सखा-संगे, गो-गण चारणरंगे,
वृन्दावने स्वच्छन्द विहार ।
जाँर वेणुध्वनि शुन, स्थावर-जंगम-प्राणी,
पुलक कम्प अश्रु बहे धार ।।
मुक्ताहार बकपाँति, इन्द्रधनु पिञ्छतति,
पीताम्बर बिजुरी-सञ्चार ।
कृष्ण नव जलधर, जगत्-शस्य-उपर,
बरिषये लीलामृतधार ।।
माधुर्य-भगवत्ता-सार, व्रजे कैल परचार,
ताहा शुक व्यासेर नन्दन ।
स्थाने-स्थाने भागवते, वर्णियाछे जानाइते,
जाहा शुनि माते भक्तगण ।।”[1]
“गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं, लावण्यसारमसमोर्द्धमनन्यसिद्धम् ।
दृगभिः पिवन्त्यनुसवाभिनवं दुराप-, मेकान्तधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य ।।”[2]
मथुरा-नागरियाँ बोलीं- गोपियों ने ऐसी क्या अनिर्वचनीय तपस्या की है, जिसके फलस्वरूप वे श्री-ऐश्वर्य-यश के एकान्त आस्पद, दुष्प्राप्य, अद्वितीय और लावण्यसार स्वरूप श्रीहरि की रूप-सुधा अपने नयन-चषकों से पी रही हैं।

इस श्लोक का भी अपूर्व आस्वादन किया हे महाप्रभु ने-

“तारुण्यामृत पारावार, तरंग लावण्यसार,
ताते जे आवर्त भावोद्गम् ।
वंशीध्वनि चक्रवात्, नारीर मन तृणपात,
ताहा डुबाय ना हय उद्गम ।।
सखि हे ! कोन तप कैल गोपीगण ।
कृष्ण-रूप-माधुरी, पिवि पिवि नेत्र भरि,
श्लाध्य करे जन्म तनु मन ।।
जे माधुरी ऊर्द्धआन, नाहि जार समान,
परव्योमे स्वरूपेर गणे ।
जेहों सब-अवतारी, परव्योमे अधिकारी,
ए माधुर्य नाहि नारायणे ।।
ताते साक्षी सेइ रमा, नारायणेर प्रियतमा,
पतिव्रतागणेर उपास्या ।
तेहों जे माधुर्य लोभे, छाड़ि सब कामभोगे,
व्रत करि करिल तपस्या ।।
सेइत माधुर्यसार, अन्यसिद्धि नाहि जार,
तेहों माधुर्यादि-गुणखनि ।
आर जत प्रकाशे, तार दत्त गुण भासे,
जाहाँ जत प्रकाशे कार्य जानि ।।

गोपीभाव दर्पण, नव नव क्षणे क्षण,
तार आगे कृष्णेर माधुर्य ।
दोहे करे हुड़ाहुड़ि, बाढ़े मुख नाहि मुड़ि,
नव नव दोंहार प्राचुर्य ।।
सेइरूप व्रजाश्रय, ऐश्वर्य-माधुर्यमय,
दिव्य गुणगण-रत्नालय ।
आनेर वैभव-सत्ता, कृष्णदत्त-भगवत्ता,
कृष्ण सर्व-अंशी सर्वाश्रय ।।”[1]
श्रीलगोपाल भट्ट गोस्वामिपाद भी कहते हैं- शिखिपिञ्छमौलि विशेषण द्वारा श्रीकृष्ण की सौंदर्य अतिशयता का सर्वमनोहरत्व बताया गया है। नाना प्रकार के स्वर्णमणि- अलंकारों के होते हुए भी श्रीकृष्ण के शिखिपिञ्छ (मोरपंख), धातुराग और पल्लवादि के अलंकार धारण करने से किशोरावस्था और उसका विलासत्व सूचित हुआ है। व्रजदेवियों द्वारा समालिंगित श्रीकृष्ण को देखकर वृन्दावन के मयूर भ्रम में पड़ जाते हैं- तड़ित लता-जड़ित (बिजलीयुक्त) नवीन मेघ समझकर परमानन्द में नाचने लगते हैं। श्रीकृष्ण भी उनके पंखों को प्रीतिपूर्वक मस्तक पर धारण करते हैं। ये मोर पंख श्रीकृष्ण के हृदय में व्रजदेवियों के रतिमुक्त केशकलाप और कृष्णदर्शन के समय उनके निर्निमेष (अपलक) नेत्रों की स्मृति जगा देते हैं।
श्रीकृष्ण का यही माधुर्य लीलाशुक के हृदय में स्फूर्त हुआ, तो वे श्रीकृष्ण के अंग के साथ उपमा देने योग्य पदार्थों की बात सोचने लगे। सोचकर देखा कि विश्व में ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिससे श्रीकृष्ण की अंगशोभा की उपमा दी जा सके। उन्होंने अनुभव किया कि जगत में जो कुछ भी सौंदर्य है, वह सभी श्रीकृष्ण की पदनख-शोभा के आगे भी अति तुच्छ है। तभी कहा, श्रीकृष्ण के चरणों की उँगलियाँ कल्पतरु के पल्लवों की तरह अति सुकोमल हैं, करुण और सर्वभीष्ट-पूरक हैं। उनके पंखों के अग्रभाग में जयश्री लीला (स्वेच्छा) से स्वयम्वर सुख प्राप्त करती हैं। ‘श्री’ का एक अर्थ है ‘शोभा’। एक बार शोभारानी ने विश्व में अपना मनोमत वर (पति) पाने की आकांक्षा से स्वयम्बरा कन्या की तरह हाथ में माला लेकर सर्वत्र परिभ्रमण किया, किंतु कोई वर पसंद न आया। क्रमशः चौदह भुवनों के चक्कर काटे, पर कहीं भी मनोमत वर न मिला। हारकर अपना दुःख लिए वह पृथ्वी पर ही लौट आई, भगवत इच्छा से श्रीवृन्दावन में प्रवेश किया।
शोभा को पता न था कि तब वहाँ अनन्त सुंदर अनन्त मधुर श्रीगोविन्द का आविर्भाव हो गया है। वह सोचने लगी- सारे विश्व में, चौदह लोकों में कही भी मनोमत वर नहीं मिला; यह वनाञ्चल बाकी है, भला यहाँ कौन मिलेगा? पर यह भी बाकी क्यों रहे, एक बार घूम कर देख ही लूँ। कुछ दूर गई थी कि शोभा ने श्रीगोविन्द का सर्वचित्ताकर्षक वेणुनाद सुना। वह नादमाधुर्य पर विमोहित हो वंशीध्वनि का अनुसरण कर उसी ओर दौड़ी और यमुनातट पर कदम्ब के नीचे त्रिभुवन प्रकाशित किए श्रीगोविन्दरूप को देखा। देखते ही मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ क्षणों बाद मूर्छा दूर हो हुई तो बोली- ‘हा भगवान् दर्पहारि ! तूने इस तरह मेरा दर्प नष्ट किया! मैं सोचती थी मेरे समान सुंदर त्रिभुवन में कोई नहीं, अतः स्वयं को सौंदर्य में ‘जयश्री’ मानती थी। किंतु हाय! अब जिन्हें देखा, मैं उनके किस अंग के योग्य हूँ? इनकी पदनखाग्रेरेखा के समान सौंदर्य भी तो मेरा नहीं।’ तब जयश्री शोभा स्वयम्बरा कन्या की तरह अपने हाथ की वरमाला श्रीगोविन्द के श्रीचरणनखाग्र को अर्पित कर सदा-सदा के लिए उनकी दासी बनकर श्रीपदनखाग्र की रसमाधुरी आस्वादन करने लगी- “यत्पादकल्पतरु पल्लवशेखरेषु लीला स्वयम्बरसं लभते जयश्रीः।”
श्रीलीलाशुक कहते हैं- श्रीकृष्ण के श्रीचरणनखों की रससुधा पान करने के लिए कोटि-कोटि जयश्री स्वतः ही उनके नखों की ओर दौड़ती हैं, अतएव मैं उनका और क्या जयकीर्तन करुँगा?
जय जय श्यामाश्याम ।सत्यजीत तृषित ।

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