जय जय श्री हरिवंश
प्रेम का उदय सहज और निर्हेतुक होता है।यह निमित्त रहित,नित्य अखंडित एक रस रहता है।इसकी मूलभूत प्रेरक रति निर्हेतुक होती है अतः यह और इसलिए क्रीड़ा भी अनादि और अनंत होती है।इसकी रति प्रमोज्जवल होती है।अतः यह लोक वेड मर्यादाओ से विमुक्त निर्भीक और स्वतंत्र होती है।यह क्षण-क्षण में नवीन वर्द्धमान किन्तु उच्छरखलता शून्य गंभीर होती है।इस रति का एक-एक कण अजरत्व और अमरत्व दायक है।
(श्रीहित हरिवंश)
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