Saturday, 30 April 2016

राधिके! तुम मम जीवन - मूल।

राधिके! तुम मम जीवन - मूल।
अनुपम अमर प्रान - संजीवनि, नहिं कहुँ कोउ समतूल।।
राधिके!...

जस सरीर में निज निज थानहिं सबही सोभित अंग।
किंतु प्रान बिनु सबहिं ब्यर्थ, नहिं रहत कतहुँ कोउ रंग।।
राधिके!....

तस तुम प्रिये! सबनि के सुख की एकमात्र आधार।
तुम्हरे बिना नहीं जीवन - रस, जासौं सब कौं प्यार।।
राधिके!....

तुम्हारे प्राननि सौं अनुप्रानित,तुम्हरे मन मनावन।
तुम्हरौ प्रेम - सिंधु - सीकर लै करौं सबहि रसदान।।
राधिके!....

तुम्हरे रस भंडार पुन्य तैं पावत भिच्छुक चून।
तुम सम केवल तुमहि एक हौ, तनिक न मानौ ऊन।।
राधिके!....

सोऊ अति मरजादा, अति संभ्रम - भय - दैन्य- सँकोच।
नहिं कोउ कतहुँ कबहुँ तुम - सी रसस्वामिनि निस्संकोच।।
राधिके!....

तुम्हरौ स्वत्व अनंत नित्य, सब भाँति पूर्न अधिकार।
कायब्यूह निज रस - बितरन करवावति परम उदार।।
राधिके!....

तुम्हरी मधुर रहस्यमई मोहनि माया सौं नित्य।
दच्छिन बाम रसास्वादन हित बनतौ रहूँ निमित्त।।
राधिके!....

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

कृपापत्र मिला। आपके प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में इस प्रकार हैं-
भगवान श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। उनकी प्रत्येक लीला आनन्दमयी है। उनकी मधुर लीला को आनन्द-श्रृंगार भी कह सकते हैं। परंतु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उनका यह आनन्द-श्रृंगार मायिक जगत् की कामक्रीडा कदापि नहीं है। भगवान की ह्लादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी तथा उनकी स्वरूपभूता गोपियों के साथ साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की परस्पर मिलन की जो मधुर आकांक्षा है, उसी का नाम आप आनन्द-श्रृंगार रख सकते हैं। यह काम-गन्धरहित विशुद्ध प्रेम ही है। श्रीकृष्ण की लीला में जिस ‘काम’ का नाम आया है, वह अप्राकृत ‘काम’ है। ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ भगवान के सामने प्राकृत काम तो आ ही नहीं सकता।
वैष्णव भक्तों ने रति के तीन प्रकार बतलाये हैं - ‘समर्था’, ‘समन्जसा’ और ‘साधारणी’। ‘समर्था’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के सुख की एकमात्र स्पृहा और चेष्ठा रहती है। यह अप्राकृत है और व्रजमात्र में श्रीमती राधिकाजी में ही इसका पूर्ण विकास माना जाता है। ‘समन्जसा’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के और अपने - दोनों के सुख की स्पृहा रहती है; और ‘साधारणी’ रति उसका नाम है, जिसमें केवल अपने ही सुख की आकांक्षा रहती है। इन तीनों में ‘समर्था’ रति सबसे श्रेष्ठ है। इसका प्रसार महाभाव तक है। यही वास्तविक ‘रस-साधना’ है।
प्रेम के भी तीन भाव बतलाये गये हैं - ‘मधुवत्’, ‘घृतवत्’ और ‘लाक्षावत्’। ‘मधु’ भाव का प्रेम वह है, जो मधु की भाँति स्वाभाविक ही मधुर है, जिसमें स्नेह, आदर, सम्मान, सेवा आदि अन्य किसी भाव का न तो जरा-सा मिश्रण ही है और न आवश्यकता ही है, जो नित्य-निरन्तर अपने ही अनन्य भाव में आप ही प्रवाहित है। ये प्रेम होता है केवल प्रेम के लिये। इसमें प्रेमास्पद का सुख ही अपना परम सुख होता है। अपना कोई भिन्न सुख रहता ही नहीं। इस प्रेम में प्रेमास्पद का स्वार्थ ही अपना एकमात्र स्वार्थ होता है। पूर्ण आत्मसमर्पण ही इसका रहस्य है और नित्यवर्धनशीलता ही इसका स्वभाव है। यह वस्तुतः अनिर्वचनीय भाव है। ‘घृत’ भाव का प्रेम वह है, जिसमें पूर्ण स्वाद और माधुर्य उत्पन्न करने के लिये घृत में नमक, चीनी आदि की भाँति अन्य रसों के मिश्रण की आवश्यकता है। साथ ही, घृत जैसे सर्दी पाकर कड़ा हो जाता है और गरमी पाकर पिघल जाता है, वैसे ही विविध भावों के सम्मिश्रण से इस प्रेम के भी रंग बदलते रहते हैं। यह प्रेमास्पद के द्वारा आदर-सम्मान पाकर बढ़ता है और उपेक्षा-घृणा पाकर मर-सा जाता है। इसमें प्रेमी अपने प्रेमास्पद को सुखी तो बनाना चाहता है, परंतु स्वयं भी उसके द्वारा विविध भावों में सुख की आकांक्षा रखता है। यदि प्रेमास्पद से आदर-सम्मान नहीं मिलता तो यह प्रेम घट जाता है। इस प्रेम में स्वार्थ का सर्वथा अभाव नहीं है। न इसमें पूर्ण समर्पण ही है।
‘लाक्षा’ भाव का प्रेम वह है, जो चपड़े के समान स्वाभाविक ही रसहीन और कठोर होने पर भी जैसे चपड़ा अग्नि का स्पर्श पाकर पिघल जाता है, वैसे ही प्रेमास्पद को देखकर उदय होता है। प्रेमास्पद के द्वारा भोग-सुख प्राप्त करना ही इसका लक्ष्य होता है।
श्रीराधिकाजी के प्रेम को ‘मधुवत्’ चन्द्रावलीजी आदि के प्रेम को ‘घुतवत्’ और कुब्जा आदि के प्रेम को ‘लाक्षावत्’ कह सकते हैं।
इसी प्रकार राग के भी तीन प्रकार माने गये हैं - ‘मन्जिष्ठा, ‘कुसुमिका’ और ‘शिरीषा’।
‘मन्जिष्ठा’ नामक लाल रंग की चमकीली बेल का रंग जैसे धोने पर या अन्य किसी प्रकार से नष्ट नहीं होता और अपनी चमक के लिये किसी दूसरे वर्ण की भी अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार ‘मन्जिष्ठा नामक’ राग भी निरन्तर स्वभाव से ही चमकता और बढ़ता रहता है। यह राग श्रीराधा-माधक के अंदर नित्य प्रतिष्ठित है। यह राग किसी भी भाव के द्वारा विकार को प्राप्त नहीं होता। प्रेमोत्पादन के लिये इसमें किसी दूसरे हेतु की आवश्यकता नहीं होती। यह अपने-आप ही उदय होता है और बिना किसी हेतु के आप ही निरन्तर बढ़ता रहता है।
‘कुसुमिका’ राग उसे कहते हैं, जो कुसुम्भ के फूल के रंग की तरह हृदय क्षेत्र को रँग देता है और मन्जिष्ठा और शिरीषादि दूसरे रागों को अभिव्यन्जित करके सुशोभित होता है। कुसुम्भ के फूल का रंग स्वयं पक्का नहीं होता, परंतु किसी दूसरी कषाय वस्तु को साथ मिला देने पर वह पक्का और चमकदार हो जाता है। वैसे ही यह राग भी श्रीकृष्ण के मधुर मोहन सौन्दर्यादि कषाय के द्वारा पक्का और चमकदार हो जाता है।
‘शिरीषा’ राग अल्पकालस्थायी होता है। जैसे नये खिले हुए शिरीष के पुष्प में पीली-सी आभा दिखायी देती है, परंतु कुछ ही समय मे वह नष्ट हो जाती है, वैसे ही यह राग भी भोगसुख के समय उत्पन्न होता है और वियोग में मुरझा जाता है। इसी से इसका नाम ‘शिरीषा’ है।
जिनका जीवन श्रीकृष्ण-सुख के लिये है, उनकी रति ‘समर्था’ प्रेम ‘मधुवत्’ और राग ‘मन्जिष्ठा’ होता है। जिनका दोनों के सुख के लिये है, उनकी रति ‘समन्जसा’, प्रेम ‘घृतवत्’ और राग ‘कुसुमिका’ होता है; और जिनका प्रेम केवल निजेन्द्रियतृप्ति के लिये ही होता है, उनकी रति ‘साधारणी’, प्रेम ‘लाक्षावत्’ और राग ‘शिरीषा’ होता है। इनमें पहले भाव उत्तम, दूसरे मध्यम और तीसरे अधम हैं। जयजय श्यामाश्याम ।।।

भगवत् प्रेम - भाई जी

भगवत्प्रेम

भगवत्प्रेम के पथिकों का एकमात्र लक्ष्य होता है-भगवत्प्रेम। वे भगवत्प्रेम को छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहते- यदि प्रेम में बाधा आती दीखे तो भगवान के साक्षात् मिलन की भी अवहेलना कर देते हैं, यद्यपि उनका हृदय मिलन के लिये आतुर रहता है। जगत का कोई भी पार्थिव पदार्थ, कोई भी विचार, कोई भी मनुष्य, कोई भी स्थिति, कोई भी सम्बन्ध, कोई भी अनुभव उनके मार्ग में बाधक नहीं हो सकता। वे सबका अनायास- बिना ही किसी संकोच, कठिनता, कष्ट और प्रयास के त्याग कर सकते हैं। संसार के किसी भी पदार्थ में उनका आकर्षण नहीं रहता। कोई भी स्थिति उनकी चित्त भूमि पर आकर नहीं टिक सकती, उनको और नहीं खींच सकती। शरीर का मोह मिट जाता है। उनका सारा अनुराग, सारा ममत्व, सारी आसक्ति, सारी अनुभूति, सारी विचार धारा, सारी क्रियाएँ एक ही केन्द्र में आकर मिल जाती हैं; वह केन्द्र होता है केवल भगवत्प्रेम - वैसे ही जैसे विभिन्न पथों से आने वाली नाना नदियाँ एक समुद्र में आकर मिलती हैं।

शरीर के सम्बन्ध, शरीर का रक्षण-पोषण भाव, शरीर की आसक्ति,(अपने या पराये) शरीर में आकर्षण, (अपने या पराये) शरीर की चिन्ता-सब वैसे ही मिट जाते हैं जैसे सूर्य के उदय होने पर अन्धकार। ये तो बहुत पहले मिट जाते हैं। विषय- वैराग्य, काम-क्रोधदिका नाश, विषाद-चिन्ता का अभाव, अज्ञानान्धकार का विनाश भगवत्प्रेम-मार्ग के अवश्यम्भावी लक्षण हैं! भगवत्प्रेम का मार्ग सर्वथा पवित्र, मोहशून्य, सत्त्वमय, अव्यभिचारी, त्यागमय और विशुद्ध होता है। भगवत्प्रेम की साधना अत्यन्त बढ़े हुए सत्त्वगुण में ही होती है। उस में दीखने वाले काम क्रोध, विषाद, चिन्ता, मोह आदि तामसिक वृत्त्तियों के परिणाम नहीं होते, वे तो शुद्ध सत्त्व की ऊँची अनुभूतियाँ होती हैं, जिनका स्वरूप बतलाया नहीं जा सकता। भूल से लोग अपने तामस विकारों को उनकी श्रेणी में ले जाकर ‘प्रेम’ नाम को कलंक्ति करते हैं।
वे तो बहुत ही ऊँचे स्वर की साधना के फलस्वरूप होती हैं। उनमें-हमारे अन्दर पैदा होने वाली भोग-वासना की सूक्ष्म और स्थूल तमोगुणी वृत्तियों का कहीं लेश भी नहीं होता। बहुत ऊँची स्थिति में पहुँचे हुऐ महात्मा लोग ही उनका अनुभव कर सकते हैं, वे कथन में आने वाली चीजें नहीं हैं- कहना-सुनना तो दूर रहा, हमारी मोहाच्छन्न् बुद्धि उनकी कल्पना भी नहीं कर सकती। भगवत्कृपा से ही उनका अनुमान होता है तभी उनकी अस्पष्ट-सी झाँकी होती हैं। इस अस्पष्ट झाँकी में ही उनकी इतनी विलक्षणता प्रतीत होती है कि जिससे यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि ये चीजें दूसरी ही जाति की हैं।

नाम एक-से हैं-- वस्तुगत भेद तो इतना है कि उनसे हमारी लौकिक वत्त्तियों का कोई सम्बन्ध ही नहीं जोड़ा जा सकता, तुलना ही नहीं होती। भगवान की कृपा से- इस प्रेम मार्ग में कौन कितना आगे बढ़ा होता है, कौन किस स्तर पर पहुँचा होता है, यह बाहर की स्थिति देखकर कोई नहीं जान सकता; क्योंकि यह वस्तु बाहर आती ही नहीं। यह तो अनुभव रूप होता है। जो बाहर आती है, वह तो प्रायः नकली होती है। जिसे हम अप्रेमी मानते हैं, सम्भव है वह महान प्रेमी हो। जिसे हम दोषी समझतें हैं, सम्भव है वह प्रेममार्ग पर बहुत आगे बढ़ा हुआ महात्मा हो; और जिसे हम प्रेमी समझ बैठते हैं, सम्भव है वह पार्थिव मोह में ही फँसा हों। भगवत्प्रेमियों को कोटिशः नमस्कार है। उनकी गति वे ही जानें। सीधी और सरल बातें जो करने की हैं, वे तो ये सात है-

भोगों मे वैराग्य की भावना।
कुविचार, कुकर्म, कुसगं का त्याग।
विषय-चिन्तन का स्थान भगवच्चिन्तन को देने की चेष्टा।
भगवान का नाम-जप।
भगवद्गुण-गान-श्रवण।
सत्यसंग-स्वाधयाय का प्रयत्न।
भगवात्कृपा में विश्वास बढ़ाना।
जयजय श्यामाश्याम ।।।

हित राधावल्लभ भावना

भावना

‘भावना’ से तात्पर्य उस सेवा से है जो किसी बाह्य उपादान के बिना केवल मन के भावों के द्वारा निष्पन्न होती है। इस सेवा में सेव्य, सेवा की सामग्री एवं सेवक भाव के द्वारा उपस्थापित होते हैं। इस सेवा का समावेश ‘ध्यान’ के अनतर्गत होता है। इस सेवा में भी सर्व प्रथम सखी भाव को अपने मन में स्थिर करना होता है। भावना के अभ्यासी को यह तीव्र आकांक्षा अपने मन में जगानी होती है कि ‘मुझको जिस भाव का आश्रय है, वही जिनका भाव है, भगवान के उन नित्य संगीजनों[1] जैसा प्रेम मुझ में भी हो।’

निजोपजीव भावानां भगवन्नित्य संगिनाम्।
जनानां यादृशो रागस्ताट्टगस्तु सदा मयि।।[2]

‘अभ्यासी को सखीजनों के भाव की भावना में स्थिर रहना चाहिये क्योंकि उस भाव को लक्ष्य करके अपने अन्दर बढ़ी हुई भावना - वल्ली कभी फलहीन नहीं होती।'

इत्थं भावनयास्थेयं स्वस्मिस्न्तस्मभिलक्षिता।
समृद्धा भावना वल्ली न वंध्या भवति ध्रवम्।।[3]

इस सम्प्रदाय के भाव के अनुकूल भावना के अभ्यास का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर एवं मन को एकाग्र करके पहिले मंत्रोपदेष्टा गुरु के सखी रूप को और फिर सम्प्रदाय - प्रवर्तक गुरु के सखी रूप को श्रद्धा पूर्वक नमस्कार करना चाहिये। तदनन्तर श्रीमद् वृन्दावन का ध्यान करना चाहिये ‘जिसमें लताओं के ही नाना प्रकार के भवन बने हुए हैं और जिसकी दिशायें विचित्र पक्षियों के समूह के नाद से मुखरित हैं। उपासक, इस वृन्दावन में प्रियतम सं संयुक्त प्रिया का और प्रिया से संयुक्त प्रियतम का एवं इन दोनों का मिलन ही जिसके जीवन का एकमात्र आधार है उस सखी - समुदाय का, भली प्रकार से स्मरण करे। जो युगल परस्पर दर्शन, स्पर्शन, गंध ग्रहण, और श्रवण में ही तत्पर रहते हैं एवं इन बातों को छोड़कर जिनमें परस्पर कोई अन्य व्यवहार है ही नहीं, उनकी शैय्या पर विराजमान होने से पूर्व की एवं शैय्या से उठने के पश्चात् की मधुर रस भरी नित्य लीला का मन के द्वारा संस्मरण करें।'
श्रीमद् वृन्दावनं ध्यायेन्नानाद्रुम लतालयम्।
विचित्र पत्रिनिवह मुखरीकृत दिड्मुखम्।।
प्रियां दयित संयुक्तां दयितं च प्रिया युतम्।
तत्संगमैक जीवातु मालिव्यू हं च संस्मरेत्।।
यौ दर्शस्पर्शनाघ्राणा श्रवणेषु च तत्परौ।
परस्परं तदितर व्यवहार वियोगिनौ।।
नित्यां स्वारसिकीं लीलां मनसा संस्मरेत्प्रभो:।
शैया रोहणात: पूर्वां परां शम्यावरोहणात्।।[1]

प्रकट सेवा जिस प्रकार मंगला आरती से शयन आरती पर्यन्त होती है, उसी प्रकार भ्साावना का भी क्रम है। दोनों सेवाओं में भेद यह है कि प्रकट सेवा स्थूल देश काल से आवद्ध है और भावना में इस प्रकार का कोई बंधन नहीं है। भावना में ऐसी लीलाओं का भी समावेश हो जाता है जिनका दर्शन प्रकट सेवा में संभव नहीं है। उदाहरण के लिये सायंकालीन सेवा में उत्थापन केे बाद बन - विहरण, जल-केलि, कंदुक - क्रीड़ा, दान लीला आदि लीलाओं का चिंतन करने की व्यवसािा भावना -पद्धति में दी हुई है। इसी प्रकार संध्या आरती के पश्चात् रास लीला का चिंतन होता है।

प्रकट सेवा से भावना मे सेवा का अवकाश अधिक रहता है, इसीलिये इयस सेवा का महत्व अधिक है। दूसरी बात यह है कि प्रकट सेवा में मन का पूरा योग न होने पर भी सेवा का कार्य चलता रहता है किन्तू भावना में मन के इधर - उधर होते ही सेवा रुक जाती है और सेवाको पूर्ण करने के लिये मन को स्थिर होना ही पड़ता है। मन को वश में करने के लिये यह अभ्यास श्रेष्ठ है। मन स्थिर होकर जिस विषय का चिन्तन करता है उसी के प्रति उसमें राग उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल पदार्थ में राग का नाम ही ‘प्रेम ’ है। भावना के द्वारा, इसीलिये, अणिक प्रेमोत्पत्ति मानी गई है।

इस सम्प्रदाय के साहित्य में ‘अष्टयामों’ का एक स्वतन्त्र एवं महत्वपूर्ण स्थान है। इस अष्टयामों में रस - सिद्ध संतों की भावना का वांगमय प्रकट हुआ है। प्रायः सभी पहुँचे हुए रसिकों ने अष्टयामों की रचना की है जिनमें से अनेक उपलब्ध हैं। अकेले श्री वृन्दावन दास चाचाजी के चैदह अष्टयाम प्राप्त हैं। इन रसिकों के अधिकांश सुन्दर पद अष्टयामों में ही ग्रंथित हैं। अष्टयामों में युगल की अष्ट कालिक लीला का चमत्कार पूर्ण गान एवं सखी जनों की रसमयी सेवा का विशद वर्णन रहता है। भावना का अभ्यास करने वाले को यह अष्टयाम अत्यन्त सहायक होते हैं। प्रेमपूर्ण मनोयोग के साथ किसी अष्टयाम का गान कर लेने से भावना का कार्य सरस रीति से निष्पन्न हो जाता है।
जय जय श्यामाश्याम जी ।

Friday, 29 April 2016

यामिनी एक रसमय गिलहरी भाग 1

मेरे प्रियतम् .....
कब से रस क्षेत्र के द्वार पर हूँ इन लताओं और वृक्षों पर चढ़ उतर खोज रही हूँ किन्हीं को , किन्हें ? अरे मेरे प्राण सर्वस्व प्रियाप्रियतम ।
यूँ तो सभी के जाने पर भी निकुँज से बाहर नहीँ निकलती परन्तु कल न जाने क्यों प्रिया प्रियतम पीछे पीछे यहाँ बाहर आ गई और फिर रस क्षेत्र अदृश्य ही हो गया । यहाँ रस क्षेत्र (निकुँज) की गिलहरी का बाहर क्या काम , मेरे तो सब भोग और रस वहीँ है, अतः तभी से निर्जल हूँ ।यहाँ का जल ना ही तो प्यास ही बुझाता है , न ही कोई फल वैसा रसीला जैसा वहाँ प्रियतम द्वारा प्रिया संग चखा हुआ फल । जिस पात्र से वह जल पिले उसी शेष रस जल को करुणामयी सखियाँ वहाँ नदियों और सरोवर में बारी बारी डाल देती है । वहीँ तो हम वहाँ पीते है । और कभी-कभी मैं तो रात्रि में भीतर ही रहती हूँ , वहाँ उनके थाल और जलपात्र से उनका रसमय प्रसाद पा लेती हूँ । पूछती नहीँ , पूछना क्यों ? गिलहरी हूँ कोई मानवीय देह नहीँ , इतना परायापन नहीँ मुझे आता , जो उनका हुआ वह स्वतः मेरा हुआ यह ही समझ आता है । बस पहले उन्होंने उसे पाया हो , वरन् तो इंद्र अमृत पिलायें ,नहीँ पीना । स्वयं देवता वैकुण्ठ लें जावें ,मुझे नहीँ जाना । जहाँ मेरे प्रियप्रियतम वहीँ मैं । हाँ इंद्र मुझे छल सकते है यह युगल पद रज बिछा कर पर वह जानते है इसका स्पर्श ही सम्पूर्ण विचारों का त्याग अर्थात् संन्यास और प्रियप्रियतम से तीव्र प्रेम अनुराग देने वाला है। अतः मैं सुरक्षित हूँ अपने प्रियप्रियतम के धाम , हाँ मुझे यूँ प्रेम मूर्छा में बाहर न आना था । अब न जाने यहीँ प्रकट रस साम्राज्य कहाँ चला गया सन्मुख वट , पीपल और कदम्ब के महावृक्ष है । कदम्ब के पोखर से न कोई आ रहा है न ही जा रहा है , कही यहीँ तो द्वार नहीँ ! पर मैं कहीँ जा नहीँ सकती , न जाने यह द्वार कहाँ लें जावें । यही प्रतीक्षा करना उचित है , हरि नहीँ उनका अद्भुत रस स्मरण तो संग है , और श्री प्रिया उनकी छवि का आभास ही मुझे मूर्छा दे रहा है न जाने कैसे अनेकों बार मैं उनकी गोद में जा चढ़ी और उन्होंने भी मुझे उठाया । यह कैसे हुआ ? क्योंकि इतना रस स्पर्श कैसे मुझे सहज स्वीकार हुआ जब स्मरण मात्र से रोमान्च हो रहा हो , सम्भव है यह श्री जी की ही कृपालीला हो ।
अहा वेणु रव की सौरभ कानों में उतरने लगी !  अब मुझे उतावला नहीँ होना , वें आते होंगे ! मेरा तन मन नाच रहा है , पर नहीँ , मुझे अब रस को भीतर उन्मुख करना होगा ! कहीँ नृत्य उन्माद में मैं पुनः बाहर न रह जाऊँ ! स्वयं को पूर्ण रसमय होने में ही युगों तक की पथ परिक्रमा होती है , फिर रस पान कर भी रस मयता से ऊपर उठ युगल संग करने हेतु की लालसा तो अहा , निःशब्द !!
लो अब तो स्पष्ट महक आने लगी , लम्बे समय से निर्जीव मेरे रन्ध्र जी उठे । जिस वायुमण्डल में प्रियाप्रियतम की अंग-सुअंग सौर्भित पवन ही न हो , पता नहीँ कैसे वहाँ कोई जीवित रह लेता है । मैंने तो कल से ही श्वांस रोक ही रखा था , अपने प्यारों को छु कर नहीँ आवें ऐसी प्राणवायु तो सर्वस्व हरण कर लेने वाली है ।
मेरे हृदय का स्पंदन प्रियप्रियतम के स्पर्श की सुगन्धित वायु स्पर्श से ही है , ना की यह जीवन जीवित रहने के लिये अपने सर्वस्व प्राणधन की सौरभ और महक रहित वायु पीने भर के लिए है , जीवन तो है उनके दिव्य संग में नित्य रज कण की सेवा । अपने मुख से गहन रस कक्षो में बिखरे पत्ते और रज कण को सम्पूर्ण दिवा रात्रि हटाते रहना । उन्हें तनिक भी असहजता न हो यही तो हमारा जीवन है , इसके अतिरिक्त स्वयं के होने का अन्य कोई कारण मुझे स्वीकार नहीँ .....
अहा फिर वहीँ गूँज , लग रहा है सखियों का समूह आ रहा है । इन्हीं सभी की तो प्रतीक्षा में थी मैं , फिर बैचेनी क्यों ? क्रमशः ..... सत्यजीत तृषित ।।।

सौंदर्य लालसा

सौन्दर्य-लालसा

मनकी सौन्दर्य-लालसा को दबाइये मत, उसे खूब बढ़ने दीजिये; परंतु उसे लगाने की चेष्टा कीजिये परम सुन्दरतम पदार्थ में। जो सौंन्दर्य का परम अपरिमित निधि है, जिस सौन्दर्य-समुद्र के एक नन्हें-से कण को पाकर प्रकृति अभिमान के मारे फूल रही है और नित्य नये-नये असंख्य रूप धर-धरकर प्रकट होती और विश्व को विमुग्ध करती रहती है- आकाश का अप्रतिम सौन्दर्य, शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु का सुख-स्पर्श-सौन्दर्य, अग्नि-जल-पृथ्वी का विचित्र सौन्दर्य, अनन्त विचित्र पुष्पों के विविध वर्ण और सौरभ का सौन्दर्य, विभिन्न पक्षियों के रंग-बिरंगे सुखकर स्वरूप और उनकी मधुर काकलीका सौन्दर्य, बालकों की हृदयहारिणी माधुरी, ललनाओं का ललित लावण्य तथा माता-पत्नि-मित्र आदि का मधुर स्नेह-सौन्दर्य- ये सभी एक साथ मिलकर भी जिस सौन्दर्य-सुधासागर के एक क्षुद्र सीकर की भी समता नहीं कर सकते, उस सौन्दर्यराशि को खोजिये। उसी के दर्शन की लालसा जगाइये, सारे अंगों में जगाइये। आपकी बुद्धि, आपका चित्त-मन, आपकी सारी इन्द्रियाँ, आपके शरीर के समस्त अंग-अवयव, आपका रोम-रोम उसके सुषमा-सौन्दर्य के लिये व्याकुल हो उठे। बस, यह कीजिये। फिर देखिये, आपकी सौन्दर्य-लालसा आपको किस चिन्मय दिव्य सौन्दर्य-साम्राज्य ले जाती है।

अहा! यदि आपको एक बार उसकी जरा-सी झाँकी भी हो गयी तो आप निहाल हो जाइयेगा। फिर सौन्दर्य-लालसा मिटानी नहीं होगी। वह अमर हो जायगी और इतनी बढ़ेगी- इतनी बढ़ेगी कि मुक्ति सुख को भी खोकर स्वंय जीती-जागती बनी रहेगी और आप फिर उस सौन्दर्य-समुद्र में नित्य डूबते-उतराते रहेंगे। वह ऐसा सौन्दर्य है कि जिस दिन-रात अनन्त काल तक अविरत देखते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती, दर्शन की प्यास कभी मिटती ही नहीं, ‘अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी’ ही बनी रहती हैं। प्यास के बुझने की तो कल्पना ही नहीं, वरं ईंधनयुक्त घृत की आहुति से बढ़ती हुई अग्नि की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई वह अनन्त की ओर अग्रसर होती रहती है। पर यह प्यास-- यह दर्शन की बढ़ी हुई लालसा दर्शन से भी अधिक सुखदायिनी होती है। यह वह सौन्दर्य है, जिसे देखकर मुनियों के मरे हुए मनों में भी जीवन का संचार हो जाता है।

श्रीवृषभानुनन्दिनी श्री श्रीराधिकाजी कहती हैं-
नवाम्बुदलसद्द्युतिर्नवतडिन्मनोज्ञाम्बरः
सुचित्रमुरलीस्फुरच्छरदमन्दचन्द्राननः।
मयूरदलभूषितः सुभगतारहारप्रभः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति नेत्रस्पृहाम्।।
सखी! नव जलधर की अपेक्षा जिनकी सुन्दर कान्ति है, नवीन विद्युत-माला से भी अधिक चमकीला जिनका मनोज्ञ पीताम्बर है, जिनका वदनचन्द्र निर्मल शारदीय पूर्ण चन्द्रमा की अपेक्षा भी समुज्ज्वल तथा चित्र-विचित्र सुन्दर मुरली के द्वारा सुशोभित है, जो मयूरपिच्छ से सुभूषित हैं और जिनके गले में निर्मल कान्तियुक्त श्रेष्ठ मोतियों की माला चमक रही है, वे मदनमोहन मेरे नेत्रों की दर्शन-स्पृहा बढ़ा रहे हैं।’
नेत्रों की ही क्यों— प्रत्येक इन्द्रिय की दर्शन-स्पृहा बढ़ रही है। सभी अंग उनके मधुर मिलन की उत्कट आकाक्षा से आतुर हैं। बार-बार मिलने पर भी वियोग की-विरह की ही अनुभूति होती है। वे फिर कहती हैं-

नदज्जलदनिःस्वनः श्रवणकर्षिसत्सिजिंतः
सनर्मरससूचकाक्षरपदार्थभंगयुक्तिकः।
रमादिकवरागनाहृदयहारिवंशीकलः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति कर्णस्पृहाम् ।।
‘सखि! जिनकी कण्ठध्वनि मेघ-गर्जन के सदृश सुगम्भीर है, जिनके आभूषणों की मधुर झनकार कानों को आकर्षित करती है, जिनके परिहास-वचनों में विविध भावभगिमाओं का उदय होता रहता है और जिनकी मुरलीध्वनि के द्वारा लक्ष्मी आदि देवियों का हृदय-हरण होता रहता है, वे मदनमोहन मेरे कानों की श्रवणस्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

कुरंगमदजिद्वपुःपरिमलोर्मिकृष्टांबनः
स्वकांगनलिनाष्टके शशियूताब्जगन्धप्रथः।
मदेन्दुवरचन्दनागुरूसुगन्धिचर्चार्चितः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति नासास्पृहाम्।।

‘सखि! जिनके मृगमदविजयी श्री अंग की सौरभतरंगों से अंगनाएँ वशीभूत हो जाती हैं, जो अपने देहस्थित अष्टकमल (दो चरणकमल, दो करकमल, दो नेत्रकमल, एक नाभिकमल और एक मुखकमल) के द्वारा कर्पूरयुक्त कमल की सुगन्ध का विस्तार कर रहे हैं और जो कस्तूरी, कर्पूर, उत्कृष्ट चन्दन, अगुरू आदि सुगन्धि-द्रव्यों के द्वारा निर्मित अंगराग से अंग-विलेपन किये हुए हैं, वे मदनमोहन मेरी नासिका की सुगन्ध-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

हरिन्मणिकपाटिकाप्रततहारिवक्षःस्थलः
स्मरार्त्ततरूणीमनःकलुषहन्तृदोरर्गलः।
सुधांशुहरिचन्दनोत्पलसिताभ्रशीतांगकः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति वक्षःस्पृहाम्।।
‘सखि! जिनका विशाल वक्षःस्थल इन्द्रनीलमणि के कपाट के सदृश मनोहर है, जिनके अर्गलासदृश बाहुयुगल प्रेम-पीड़ित तरूणीसमुदाय के मानस क्लेश को नाश करने में समर्थ हैं और जिनका अंग चन्द्रमा, हरि-चन्दन, कमल, कर्पूर और बादल के सदृश सुशीतल है, वे मदनमोहन मेरे वक्षःस्थल की स्पर्श-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

व्रजातुलकुलांगनेतररसालितृष्णाहर-
प्रदीव्यदधरामृतः सुकृतिलभ्यफेलालवः।
सुधाजिदहिवल्लिकासुदलवीटिकाचर्वितः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति जिव्हास्पृहाम्।।

‘सखि! जिनकी सुमधुर अधरसुधा उपमारहित व्रजकुलांगनाओं के इतर रस समूह की स्पृहा का अपहरण कर रही है तथा महान् पुण्यराशि होने पर ही प्राप्त की जा सकती है और जिनके द्वारा चर्वित ताम्बूल की बीड़ी अमृत को भी पराजित करती है, वे मदनमोहन मेरी जिव्हा की रस-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं। सत्यजीत तृषित ।