साधना के पथ पर दो का संग नहीँ
रास पंचाध्यायी के इस श्लोक में शुकदेव जी कहते है -गोपियाँ बड़े रहस्य को प्रकट करती हुई वंशी ध्वनि की ओर दौडती जा रही है.
"निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीत्मानसाः
आजग्मुर न्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोल कुण्डलाः"
अर्थात - भगवान का वह वंशीवादन भगवान के प्रेम को उनके मिलन की लालसा को अत्यंत उकसाने वाला बढ़ाने वाला था यो तो श्याम सुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था.अब तो उनके मन कि सारी वस्तुएँ भय संकोच धैर्य मर्यादा आदि की वृतिया भी छीन ली वंशी ध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गई.
जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए वे गोपियाँ भी एक दूसरे को सूचना न देकर यहाँ तक कि एक दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपा कर जहाँ वे थे वहाँ के लिए चल पड़ी.
यहाँ जब गोपियों ने भगवान की वांसुरी की ध्वनि सुनि तो वे सभी एक दूसरे को बिना बताये ही दौड पड़ी,यहाँ तक कि एक गोपी दूसरी गोपी को अपने मन में भाव भी नहीं बताती.और वैसे यदि वे फूल भी तोडने जाती तो एक दूसरे को बताकर साथ में लेकर चलती, पर ये बात गोपियाँ लोक व्यवहार में ही करती,लेकिन यहाँ बात भगवान की है,ठाकुर जी का पथ स्वतंत्र है वहाँ अकेले ही चलना है दो का संग नहीं.
क्योकि वहाँ दो होते ही विक्षेप होगा,इसलिए गोपी अकेले ही चली है.और रास पंचाध्यायी के इस श्लोक में बहुत रहस्य की बात है.गोपियाँ साधारण नहीं है जन्मो की तपस्वी है,जन्मो-जन्म साधना करी है.और इस समय का इंतज़ार किया है.
और वंशी क्या है जो अपने वश में कर ले वो वंशी है जिसमे से अमृत कि धारा बहें,जो कामनाओ को मिटाए काम क्रोध आदि विकार लीन हो जाए,प्रेम को जगा दे,सारी धराए ऊपर से नीचे बहती है परन्तु वंशी की धारा उलटी है नीचे से उपर तक जाती है.वे गोपियाँ भगवान के उस धारा प्रवाह में चलि संसार की धारा छोड़कर,बस दौडी चलि जा रही है. तृषित
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