Tuesday, 15 December 2015

विप्रलम्ब और मिलन रूपी दो भावो को गोपियों ने धारण किया

विप्रलम्ब और मिलन रूपी दो भावो को गोपियों ने धारण किया

शुकदेव जी रासपंचाध्यायी के ४ श्लोक में कह रहे है -

"निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं
व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीत्मानसाः
आजग्मुर न्योन्यमलक्षितोद्यमाः
स यत्र कान्तो जवलोल कुण्डलाः"(4)

अर्थात - भगवान का वह वंशीवादन भगवान के प्रेम को उनके मिलन की लालसा को अत्यंत उकसाने वाला बढ़ाने वाला था यो तो श्याम सुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था.अब तो उनके मन कि सारी वस्तुएँ भय संकोच धैर्य मर्यादा आदि की वृतिया भी छीन ली वंशी ध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गई.

जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए वे गोपियाँ भी एक दूसरे को सूचना न देकर यहाँ तक कि एक दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपा कर जहाँ वे थे वहाँ के लिए चल पड़ी.वे इतने वेग से चली थी कि उनके कानो के कुंडल झोंके खा रहे थे.

1. व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीत्मानसाः- श्याम सुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था.अब तो उनके मन कि सारी वस्तुएँ भय संकोच धैर्य मर्यादा आदि की वृतिया भी छीन ली वंशी ध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गई.

भगवान ने मन की चोरी करी. चीर हरण लीला से वस्त्रों कि चोरी करि, गोवर्धन लीला से, घरों को भी हर लिया, और वंशी ध्वनि से अंगों का भी हरण किया अर्थात गोपियों कि सुध बुध खो गई, और फिर अब भगवान ने मन की चोरी करि, क्योकि मन नहीं आता तो कोई नहीं आता.

ब्रजे वसंतम नवनीत चौरम, ब्रजांगनानाम वसनैका
चौरम अनेक जन्मार्जित पाप चौरम , चौराग्र गण्यम पुरुषम नमामि

अर्थ - जिसने ब्रज में रहकर माखन चुराया , ब्रज की गोपियों का मोह लज्जा रुपी वस्त्र चुराया , जो जीवात्मा द्वारा जन्म -जन्मान्तर में संचित किये गये पापों को चुराता हैं मै उन चोरों के शिरोमणि भगवान को नमस्कार करता हूँ.

मन की ही तो प्रधानता है पहले जहाँ कही हमें जाना होता है तो मन ही तो वहाँ जाता है बाद में हम अर्थात हमारा शरीर जाता है इसी तरह जब हम कही से वापस आते है तब पहले मन वहाँ से वापस आता है फिर हमारा शरीर वापस आता है. शरीर कहाँ है ये जरुरी नहीं है, मन कहाँ है, मन में चिन्तन कहाँ का चल रहा है ये जरुरी है. इसलिए श्रीकृष्ण ने मन की भी चोरी की. सब कुछ श्रीकृष्ण ने ही चुराया गोपियों ने कुछ नहीं किया.

2. स यत्र कान्तो "जवलोल कुण्डलाः"- वे इतने वेग से चली थी कि उनके कानो के कुंडल झोंके खा रहे थे.

गोपियों के कुंडल साधारण नहीं है मानो विप्रलम्ब और मिलन रूपी दो भाव रूपी कुंडल गोपी के कानो में पड़े हुए है. वरना शुकदेव जी क्यों यहाँ गोपियों के श्रृंगार की चर्चा मृत्यु के मुख में जाते हुए परीक्षित जी से करते? वंशी के अन्दर इतने नाद है जिसे कोई नहीं जानता केवल गोपियाँ ही जानती है, और जब वह नाद रूपी वंशी उनके कानो में पड़ती है तो वे चल पडी.

इसलिए गहने भी विशेष है. इसलिए संतजन कहते है भागवत की श्रृंगार सामग्री से अपने जीवन को अलंकृत कर लो गिरिराज जी को अपने नेत्रो में बसाकर उन्हें की काजल के रूप में धारण करो,व्रज रज रूपी बिंदी मांथे पर लगाओ, कथा श्रवण रूपी कुंडल कानो में धारण करो और ताली रूपी नाद ही हाथो में कंगन के रूप में धारण करो, नाम संकीर्तन रूपी हार गले में पहनो, और संकीर्तन में नुपुर कौन से बाँधो, कृष्ण प्रेम में नाच उठे ऐसे नुपुर धारण करो.

जब संसार का प्राणी इन साधारण श्रृंगार से रीझ जाता है,तब इन भागवत के श्रृंगार सामग्री को धारण करने से दुनिया बनाने वाले कृष्ण कैसे नहीं रीझगे. तृषित

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