अधीश्वरी है कुँजन की
स्वामिनी वहीँ निकुँजन की
सेज सजाती नित नव मनहर की
लता-पता से बहे रसधारा
वल्लरी बन त्रिभुवन सजाती
मोहन रहे ना कुँजन बिन
रसीली सब भुवन को निकुँज सी सजाती
मधुरा रहती नित रसमयी धारा
पर मुख पर तृषा छुट ही जाती
रसराज को जो रस सुधा पिलाती
तृषित रसिकशेखर को वहीँ सुहाती
"तृषित"
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