Friday, 4 December 2015

विरह

एक पुरानी रचना फिर सामने आई
विरह ।।
विरह में जो आनन्द है वह मिलन में कहाँ? विरह ही तो हमें उनके गुणों और हमारे जीवन में उनकी महत्ता का ज्ञान कराता है। वे जब जीव से बहुत प्रेम करते हैं तब अपने प्रेम के सर्वोत्कृष्ट फ़ल, विरह का आनन्द देते हैं। जगत में भी अपने किसी प्रियजन से बिछोह के बाद ही हम अपने जीवन में उसकी महत्ता को अनुभव कर पाते हैं। रास में भी अंतर्ध्यान होने के पीछे यही रहस्य है। मिलन में तो सुध-बुध खो जाती है, आनन्द कहाँ? मिलन में प्रतिक्षण विरह की आशंका व्याप्त रहती है किन्तु विरह में कैसी आशंका? एक ही विश्वास; मिलन होगा ही ! कब? वे जानें ! और मिलन की भी आकांक्षा नहीं ! क्योंकि वे तो साथ हैं ही; प्रतिपल, प्रतिक्षण ! विरह में जब "लीला घटती" है तब कैसा अदभुत गोपन परमानन्द ! कृष्ण के मथुरा आने पर क्या गोपियाँ उनके दर्शन के लिये आ नहीं सकतीं थीं किन्तु क्या वे आयीं? क्योंकि विरह में जो मिला, मिलन में नहीं ! यही तो रसिकों/प्रेमियों की अमूल्य निधि है; उनकी पूँजी है। पहले तो मिलन के लिये उसकी संध्या समय तक राह तकनी पड़ती थी कि आ रहे होंगे रसिकशेखर श्यामसुन्दर, गौओं के साथ ! किन्तु अब? अब तो वह प्रतिक्षण साथ ही हैं। अब कैसी प्रतीक्षा? अब कहाँ जाकर उनकी बाट देखना ! अब तो वे कहीं जाते ही नहीं ! उनकी ही लीला ! उनका ही चिंतन ! पहले तो कभी=कभी ही अंक से लगने का सौभाग्य मिलता था किन्तु अब कैसी दुविधा? सब समय उनके अंक में ! गाढ़ालिंगन में ! न लोक-लाज जाने का भय, न मर्यादा-भंग का भय ! कोई भय नहीं और साँवरा अपने पास ! उसके इतर कोई चिंतन नहीं ! कुन्ज हैं, निकुन्ज हैं; वे दृश्य भी, अदृश्य भी ! वे छोड़ते ही नहीं ! कभी छोड़ेगे भी नहीं ! तो अब कहाँ जाना? मेरा प्रियतम, मेरे पास ! प्रतिक्षण मिलन ! प्रतिक्षण विरह ! स्वयं उनकी भी तो यही अवस्था होती है ! विरह में चिंतन करते-करते श्रीकिशोरीजी की देह श्यामल हो जाती है और वे पुकार उठती हैं - राधे ! राधे !! राधे !!! और साँवरे की देह मानो स्वर्णिम हो उठती है और वे भी सुध-बुध भूलकर पुकार उठते हैं - हे कृष्ण ! हे माधव !! हे मनमोहन !!!
जय जय श्री राधे !

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