गोपियाँ ऐसे उज्ज्वल रस में स्थित है जहाँ सारे रस फीके है
रास पंचाध्यायी के प्रथम अध्याय में श्री शुकदेव जी वर्णन कर रहे है कि किस तरह जब वंशी रूपी दुति गोपियों के घर-घर गई है.वंशी क्या करती है? श्रीकृष्ण प्रेमरस से लबालब भरे हुए है. श्रीकृष्ण अखिल रसामृत सिंधु विग्रह है, ये वंशी अधरों पर विराजमान होकर उनके अन्दर से उस प्रेम,आनंद रूपी रस को खीचती है, अब इसके पास पेट तो है नहीं, अन्दर से पोली है इसलिये एक छिद्र से रस खीचती है, और बाक़ी के छिद्रों से उस रस से प्रेमियों को रंगीला कर देती है.
वंशी पिचकारी का कार्य करती है जैसे पिचकारी होती है वह टेसू के रस निकलकर जो रंग बनाया जाता है उसे अपने में लेती है फिर सबको सराबोर कर देती है, इसी तरह वंशी भी है,ये वंशी रूपी दुति गोपियों के घर जाकर कृष्ण प्यारे का संदेश दे रही है तब जो-जो गोपी जिस-जिस काम में लगी हुई थी उसे ज्यो का त्यों छोड़कर दौड पड़ी. छटवे श्लोक में शुकदेव जी कह रहे है -
"परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्य शिशून पय:
शुश्रूषन्त्य:पतीन काश्रिच्श्रदश्रन्त्योsपास्य भोजनम "(6)
अर्थात - जो गोपी भोजन परस रही थी वे परसना छोड़कर, जो छोटे छोटे बच्चो को दूध पिला रही थी वे दूध पिलाना छोड़कर जो पतियों की सेवा शुश्रुषा कर रही थी, वे सेवा शुश्रुषा छोड़कर, और जो स्वयं भोजन कर रही थी वे भोजन करना छोड़कर अपने कृष्ण के पास चल पड़ी.
सारी गोपियाँ राधारानी जी की कायव्यूहरूपा है, उनके रोमो से प्रकट हुई है, सभी के अंदर राधारानी जी ही विराजमान है.इसलिए वे सभी गोपियाँ अस्पर्शा है,किसी पुरुष में इतना सामर्थ ही नहीं है कि गोपियों के साथ विहार, संयोग तो दूर रहा, भगवान के अतिरिक्त उन्हें कोई स्पर्श भी नहीं कर सकता.
यहाँ जो श्लोक में आया है गोपियाँ बच्चो को दूध पिला रही थी, उन्हें पिलाना छोड़कर भागी, इस कथन में कठोरता आ जायेगी, और ठाकुर जी तो कोमल मृदुल स्वभाव वालो को ही स्वीकार करते है.क्योकि इस संसार में एक मईया का अपने बच्चे से जो सम्बन्ध है वह सबसे शुद्धतम सम्बन्ध है.
इसलिए अपने बच्चो को छोड़कर नहीं भागी दूसरे के बच्चो को संभाल रही थी,उन्हें अपने स्तन का दूध नहीं पिला रही थी, क्योकि गोपियाँ तो उज्जवल रस में स्थित है उनके अन्दर वात्सल्य रस कहाँ से आयेगा ?
फिर आया है भोजन परोसना छोड़कर और स्वयं भोजन करना छोड़कर भागी है, भोजन का सम्बन्ध मन से होता है, जैसा अन्न वैसा मन बनता है और मन तो पहले ही ठाकुर जी के पास चला गया, अब किस मन को अन्न से बनाना है,और दूसरा अर्थ ये भी है कि जब मन ही नहीं है तो वेमन से क्या अच्छा बनेगा, क्या अच्छा परोसना और क्या खाना, इसलिए गोपियाँ भागी है. जब तक षडरस
{मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ।।
रसास्वात् षट् मधुराम्ललवण कटु तिक्त कषाय (च.चि. १)} तक जीव उलझा है । तो कैसे आत्मा सहित सभी इंद्रियों एक ही परम् सुमधुर रस का पान हो सकेंगा । सभी भाँति शब्द, स्पर्श, रूप , गन्ध आदि भी तो श्री कृष्ण रूपी रस का पान गोपी को करना है । रास के लिए अन्य भौतिक रस छूटे तो ही भगवत् रस सही मायने में समझ आ सकेगा । भौतिक रस में तनिक भी ईच्छा भगवत् रस के पूर्ण रसास्वादन की घनघोर बाधक है । सत्यजीत "तृषित" .
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