सत्संग और कृष्ण कथा से अपनी मनोवृति को शुद्ध करे
रासपंचाध्यायी के प्रथम अध्याय में आगे शुकदेव जी कहते है -
" ता वार्यमाणा: पतिभि:पितृभि्भ्रातृबंधूभि:
गोविंदा पहतात्मानो न न्य वर्तन्त मोहिता:"(8)
अर्थात - पिता और पतियों ने भाई और जाति बंधुओ ने उन्हें रोका उनकी मंगलमयी प्रेम यात्रा में विघ्न डाला परन्तु वे इतनी मोहित हो गई थी कि रोकने पर भी ना रूकी, ना रुक सकी, रूकती कैसे ? विश्वमोहन श्री कृष्ण ने उनके प्राण मन और आत्मा सब कुछ हरण जो कर लिया था.
श्रीकृष्ण की वंशी ने उन्हें इस तरह से खीचा कि किसी कि हिम्मत नहीं थी कि गोपियों को रोक सके,यहाँ जितने भी शब्द आये है, भाई, पिता, बंधू, पति, सभी पुल्लिग़ शब्द है, माता, सास, ननंद, बहिन, ये शब्द नहीं है. क्योकि माता, बहिन, सास, ये भी तो भागी होगी, जिस पुरुष में हिंसा होती है उसे ठाकुर की वंशी कैसे सुनाई दे सकती है. यहाँ तक कि भगवान शिव जी भी पुरुष रूप में रास में प्रवेश ना पा सके उन्हें भी गोपी रूप धारण करना पड़ा.
अब आगे के श्लोक में शुकदेव जी कहते है -
"अन्तर्ग्रहगता: कश्र्चिद गोप्योsलब्धविनिर्गमा:
कृष्णं ताद्भावनायुक्ता दध्यु मिर्लितलोचना:"(9)
अर्थात - उस समय कुछ गोपियाँ घरों के भीतर थी, उन्हें बाहर निकलने का मार्ग ही ना मिला, तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिए और बड़ी तन्यमता से श्रीकृष्ण के सौंदर्य, माधुर्य, और लीलाओ का ध्यान करने लगी.
जो गोपियाँ रुकी वे कौन सी गोपियाँ थी? क्योकि नित्यसिद्धा और श्रुतिरूपा ये तो सशरीर पहुँची. उन्हें रोकने का साहस किसी में ना था, उन्हें कोई रोक ही नही सकता था. जो गोपियाँ घरों के कैद हुई वे थी - "ऋषिरूपा गोपियाँ" क्योकि उनके किन्ही पुरुषों (पतियों)के साथ सम्बन्ध हो गया था, उनमे अखंड तेज नहीं था.
इसे हम और सरल शब्दों में इस प्रकार समझ सकते है कि जैसे बहुत से आम कोई तोड़ कर लाए, घर लाकर जब खाने बैठा तो पता चला उन सभी आमो में से कुछ एक आम कच्चे है तो वह क्या करेगा? उन कच्चे आमो को फेकेगा नहीं, उन्हें पकने के लिए एक दो दिन और रख देगा, जब वे एक दो दिन में पक जायेगे, तब फिर उन्हें खायेगा.
इसी तरह गोपियाँ भी जिनका तेज अखंड नहीं था वे घर में ही ध्यान में बैठ गई, क्योकि मनोवृति शुद्ध चाहिये, फिर जब शुद्ध हो जाए तो फिर सिद्ध चाहिये, जैसे यदि हम चावल बनाते है तो पहले उसे पानी से शुद्ध करते है फिर अग्नि पर चढाकर पकाते है और जब वे पक जाते है तब हम कहते है चावल सिद्ध हो गए.
इसी तरह ध्यान, जप से शुद्ध करना, किसी सत्संग में, कथा में जाना वहाँ कृष्ण रस से अपनी मनोवृति को शुद्ध करना फिर जिनका दिल कृष्ण विरह में, कृष्ण प्रेम में जल रहा हो, उनके पास बैठकर कृष्ण प्रेम का परिपाक करना. आप शुद्ध और सिद्ध
दोनो हो जाओगे.इसीलिए ऋषिरूपा गोपियाँ ध्यान में बैठी.
"दु:सहप्रेष्ठाविरहतीव्रतापधुता शुभा:
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्व्रत्या क्षीणमंगला:"(10)
अर्थात - अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण के असह विरह कि तीव्र वेदना से उनके ह्रदय में इतने व्यथा इतनी जलन हुई कि उनमे जो कुछ अशुभ संस्कारों का लेशमात्र अवशेष था वह भस्म हो गया. इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया.ध्यान में तुरत ही श्री कृष्ण प्रकट हो गए. उन्होंने मन ही मन बड़े प्रेम से, बड़े आवेग से, उनका आलिंगन किया. उस समय उन्हें इतना सुख इतनी शान्ति मिली, कि उनके सब के सब पुण्य के संस्कार एक साथ ही क्षीण होक गए.
इस श्लोक में गोपियों के पाप और पुण्य दोनों संस्कार भस्म हुए है."क्षीणमंगला:" शब्द आया है अर्थात उनके मंगल क्षीण हो गए. पाप बड़ी बात नहीं है,श्रीकृष्ण का एक नाम करोडो पाप राशि को नष्ट कर देता है व्यक्ति जीवन में इतने पाप ही नहीं कर सकता जिसे कृष्ण नाम मिटा ना सके.
जब रानियाँ गंगा जी में स्नान करने जाती है तो उनके माथे पर और वक्ष:स्थल पर लगी केसर,कस्तूरी, गंगाजी में मिल जाती है उसका इतना प्रभाव होता है कि जिस नंदनवन के मृग की वह कस्तूरी होती है वह तुरंत ही उस वन में ही रहकर चतुर्भुज रूप होकर वैकुण्ठ चला जाता है, यदि कोई पक्षी भी गंगाजी के ऊपर से निकल जाए,और उसकी मृत्यु हो जाए तो उसे भी परमगति प्राप्त हो जाती है.मुक्ति हो जाती है.
यहाँ गोपियाँ ध्यान से कृष्ण में समायी नहीं है क्योकि कृष्ण में समां जाना बड़ी बात नहीं है अर्थात मुक्ति किसी भक्त को नहीं चाहिये. इसलिए पाप बड़ी बात नहीं है.
अच्छे काम करके पाप मिट जायेगे, पर पुण्य कैसे मिटाओगे? मंगल हुआ, पुण्य हुए, सुविधा हुई, तो दुविधा और हो गई. पुण्य बहुत हो गए, उसका फल स्वर्ग मिल गया,वहाँ और मद,ऐश्वर्य, बढ़ गया, अहंकार बढ़ गया और पुण्य जब समाप्त हो गए तब फिर नीचे गिरा दिया गया.इसलिए यहाँ गोपियों कि दोनों चीजे नष्ट हुई है.
बड़ी चीज के लिए छोटी चीज हटानी ही पड़ती है इसलिए गोपियाँ पाप पुण्य से निवृत हो गई, ताकि पूरी जगह खाली हो जाए फिर उसमे केवल कृष्ण प्रेम ही भरा जाए. योगमाया के द्वारा प्राकृत देह छूट गई और अप्राकृत देह मिल गई उस अप्राकृत देह से गोपियाँ नित्य सिद्धा और श्रुति रूपा गोपियों से पहले ही श्री कृष्ण के पास पहुँच गई. सत्यजीत तृषित । श्यामाश्याम ।
bahut sunder lekh
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