Wednesday, 16 December 2015

एक भगवान ही तो है जो तन ही अच्छा मन देखते है

एक भगवान ही तो है जो तन ही अच्छा मन देखते है

शुकदेव जी ऋषि रूपा गोपियों के लिए आगे कहते है -

"लिम्पन्त्य: प्रमृजन्त्योsन्या अजन्त्य काश्र्च लोचने
व्यत्यस्तवस्त्राभरणा: काश्रिच्त कृष्णान्तिकं ययु:"(7)

अर्थात -  कोई कोई गोपी अपने शरीर में अंगराग चंदन और उबटन लगा रही थी और कुछ आँखों में अंजन लगा रही थी वे उन्हें छोड़कर और उलटे पलटे वस्त्र धारण कर श्री कृष्ण के पास पहुँच ने के लिए चल पड़ी.

इस श्लोक में शुकदेव जी ऋषि रूपा गोपियों लिए कहते है कि ऋषि रूपा गोपियाँ अपने स्वरुप में आबंध है कामी कब रिझता है जब अच्छा तन हो और परमात्मा कब रीझता है जब अच्छा मन हो.

गोपी बड़ी सावधानी से, एकाग्रता से, सोने की सलाई से, मणि जड़ित डिब्बी में से अंजन लगा रही है, यहाँ शुकदेव जी देखी हुई बात कह रहे है क्योकि जो देख कर बोले वो दिखाता है, और जो पढके बोले वो बोलता है सुनाता है, शुकदेव जी के सामने प्रत्यक्ष लीला चल रही है. इसलिए वे इतनी सूक्ष्म से सूक्ष्म बात कह रहे है.

कृष्ण प्रेम के लिए द्रष्टि शुद्ध चाहिये, और द्रष्टि तपस्या, वृत, साधन से, द्रष्टि शुद्ध नहीं होती, द्रष्टि शुद्ध होती है सत्संग से,उद्धव जी को गोपियों ने यदि द्रष्टि दी थी.सत्संग एक द्रष्टि प्रदान करता है. क्योकि कृष्ण प्राप्ति के लिए उस रस की प्राप्ति के लिए द्रष्टि चाहिये.

और गोपी के पास वह द्रष्टि थी, जैसे ही नाद रूपी दुति वंशी पहुँची और कृष्ण प्यारे का संदेश गोपी को दिया वैसे ही गोपी ने सारे श्रृंगार अस्त व्यस्त कर लिए,अब तक एकाग्रता से अंजन लगा रही थी अब सारे चेहरे पर काजल पोत लिया.

वंशी बोली - गोपी ये कैसा श्रृंगार कर लिया ?

गोपी बोली - अरी निगोडी वंशी ! मेरा प्यारा काला उसके प्रेम में मै भी काली, इस संसार में एक मात्र वही तो है जो तन नहीं देखता मन देखता है.

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