जो इहलोक और परलोक को भी छोड़ दे वो गोपी है
श्रीमद्भागवत के रासपंचाध्यायी में प्रथम अध्याय में श्लोक २४ ,२५,२६ में भगवान गोपियों को स्त्री धर्म की शिक्षा दे रहे है.
"भर्तु: शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो हामायया
तद्धन्धूनां च कल्याण्य:प्रजानां चानुपोषणम्"(24)
अर्थात - अप्रिय पक्ष - कल्याणी गोपियों ! स्त्रियों का परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई बंधुओ कि निष्कपट भाव से सेवा करे और संतान का पालन पोषण करे.
"दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोपि वा
पतिःस्त्रीभर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी"(25)
अर्थात -अप्रिय पक्ष - जिन स्त्रियों को उत्तम लोक प्राप्त करने कि अभिलाषा हो वे यदि पति पातकी न हो तो, दुःशील, दुर्भाग्यशाली, वृद्ध, असमर्थ, रोगी और निर्धन होने पर भी इहलोक और परलोक में सुख चाहने वाली रमणी को उसका परित्याग नहीं करना चाहिए. इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण फिर कहते हैं-
यहाँ भगवान गोपियों को स्त्री धर्म के बारे में बता रहे है. कि पति चाहे कैसा भी क्यों ना हो उसे नहीं छोडना चाहिये,परन्तु २५ वे श्लोक में अंत में स्वयं एक बड़ा गूढ़ शब्द "लोकेप्सुभिरपातकी" कह दिया, अर्थात यदि पति पातकी ना हो तो? अर्थात पापी न हो.
इसके दो अर्थ निकलते है पहला रोगी हो, निर्धन हो, असमर्थ हो, वृद्ध हो जब ऐसे भी पति को छोड़ने की बात शास्त्रों में कही गई है तब में तो इन सब में शामिल भी हूँ,मै भी रोगी हूँ, गोपियों के अन्दर बैठी प्रिया जी से कह रहे है , मुझे भी आपके प्रेम का रोग लगा है, मै भी निर्धन हूँ, मुझे प्रेम की भिक्षा दो, और इन सबसे ऊपर नित्य, सत्य, पति भी मै ही हूँ.दोनों तरह से पति तो वास्तव में मै ही हूँ.
दूसरा अर्थ ये है कि पातकी को छोड़कर, तो इस संसार में पापी कौन नहीं है? जब वंशी बजी तो किसी के पति ने ऐसा नही कहा- जाओ! जाओ! अर्थात इससे स्पष्ट है कि गोपियों के पतियो को एतराज था वे नहीं चाहते थे कि गोपियाँ जाए.और ठाकुर जी स्वयं योगमाया के द्वारा प्रत्येक गोपी की जैसी सकल, सूरत,स्वभाव,पहनावा था उतने ही करोडो रूप लेकर उनके घरों में विद्यमान हो गए थे,जिससे किसी को भी पता ही नहीं चला कि गोपी हमारे साथ नहीं है. वरना किसी एक कि भी पत्नी इतनी रात को उन्हें घर में दिखायी नहीं देती तो लट्ठ लेकर सभी उसे ढूंढने निकल पड़ते.बड़ा हंगामा हो जाता.
जो भगवान के खिलाफ जाए, जिसकी बुद्धि इतनी गन्दी वस्तु (हाड-मास,मलमूत्र के बने गोपी के शरीर)को देने में भी बुद्धि लगाता है. क्या वे पातकी नहीं है? जब तक पाप कराने वाली जननी माया हम संसारियो के साथ है तब तक हम पाप ही पाप करते रहते है,
उस पर भी पूर्व जन्म के संचित पाप, वर्तमान जन्म के पाप, और प्रतिदिन,प्रति क्षण,करते जा रहे है, मंदिर और गुरु के द्वार पर भी खड़े है कोई सुंदर लड़की या वस्तु दिख गई भगवान से नजर हटकर उसे ही देखने लगे,यहाँ भी पाप नहीं छूट रहे, फिर बाहर की बात तो कौन करे.
गोपियाँ मानो यही कह रही है परम पति तो आप ही हो,ये पति तो हर जन्म में बदलते रहते है. इसे तो जन्म और मृत्यु लगी है,अभी जिससे इतना प्यार था उसके चले जाने पर कहते है हमें उसकी मिट्टी में जाना है,अब वही देह मिट्टी हो गई. यहाँ कोई किसी के लिए नहीं रोता, कोई किसी की भक्ति नहीं करता, सब अपनी भक्ति करते है. सब स्वार्थ के लिए रोते है. उस मरने वाले से स्वार्थ था. इसलिए रो रहे है.
पति के मर जाने पर पत्नी भी कहती है -
जा दिन मन पंछी उड़ि जइहैं,
घर के कहिहि वेग ही काढो, भूत भये कोहू खाहिहै,
जा जियो सो प्रीत घनेरी, सोहू देख डरई है,
जा दिन मन पंछी उड़ि जइहैं.
और भगवान साथ-साथ दो भय भी दिखा रहे है. इहलोक और परलोक का
"अस्वर्ग्यमशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्
जुगुप्सितं च सर्वत्र हौपपत्यं कुलस्त्रियाः"(26)
अर्थात - कुलीन स्त्रियों के लिए जार पुरुष कि सेवा सब तरह से निंदनीय ही है.अन्य पुरुषों के साथ रहने वाली स्त्रियों का परलोक बिगड़ता है स्वर्ग नहीं मिलता, इस लोक में अपयश मिलता है.सुख समाप्त हो जाता है. यह कुकर्म स्वयं तो अत्यंत तुच्छ क्षणिक है ही, इसमे प्रत्यक्ष वर्तमान में भी कष्ट ही कष्ट है. मोक्ष आदि कि तो बात ही कौन करे? साक्षात् परम भय नरक आदि का हेतु है.
भगवान श्रीकृष्ण के सतीत्व संबंधी वचनों के बाद गोपियों ने जो जवाब दिया है उससे यह स्पष्ट होता है कि महारास कामक्रीड़ा नहीं हैं. गोपियां कहती हैं कि पति पालन-पोषण करता है और पुत्र नरक से तारता है. लेकिन पुत्र और पति यह भूमिकाएं अल्पकाल तक ही निभाते हैं. आप तो जन्म-जन्मांतरों तक व्यक्ति के पालन पोषण का कार्य करते हैं और स्वर्ग के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं. इसलिए हे श्याम!हमारी परीक्षा मत लीजिए. सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम