Wednesday, 23 December 2015

जगत को आनन्दित करने वाले आनंद कन्द श्री कृष्ण को आनन्द मिलता है श्री राधा से

राधे राधे
🌾🌹आज की "ब्रज रस धारा"🌹🌾
दिनांक 23/12/2015

1. -आनंद कन्द श्री कृष्ण से त्रिभुवन को आनंद प्राप्त होता है परन्तु श्री कृष्ण को आन्दित करती है श्री राधा जी.2. -श्रीकृष्ण का माधुर्य, उनका रूपकोटि-कोटि कामदेव के सौंदर्य को लजाने वाला है, पर श्रीकृष्ण के नेत्र श्रीराधा के अप्रतिम रूप सौंदर्य का दर्शन करके ही शीतल होतेहै.3.-श्रीकृष्ण की कलित-ललित वंशी-ध्वनि चतुर्दश भुवनो को आकर्षित करती है, पर श्रीकृष्ण के कान श्रीराधा के वाक्य सुधा पान से ही तृप्त होते है.4.-श्रीकृष्ण के दिव्य अंग गंध से जगत सुगन्धित होता है, जगत के समस्त मनमोहक सुगंध श्रीकृष्ण के अंग-गंध से ही सुगन्धित है, परन्तु श्रीकृष्ण के प्राण नित्य श्रीराधाके अंग-सुगंध के लोभी बने रहते है.5.-साक्षात् रस रूप रसराज शिरोमणि श्रीकृष्ण के रस से जगत सुरसित है, पर श्रीकृष्ण राधारानी के अधर रस केवशीभूत है.6.-श्री कृष्ण का स्पर्श कोटि-कोटिशशांक (चंद्रमा)सुशीलता ,है किन्तु श्याम सुशीलता प्राप्त करते है श्रीराधा के अंग स्पर्श से इतना सब होने पर भी श्रीराधा के प्रति श्रीकृष्ण की प्रीति अत्यंत प्रबल होने पर भी,श्रीकृष्ण के प्रति राधा की उज्जवल निर्मल प्रीति कही अधिक है.वे अपने विचित्र विभिन्न भाव तरंग रूप अनंत सुख समुद्र में श्रीकृष्ण को नित्य निमग्न रखने वाली महाशक्ति है.ऐसी श्री राधा की महिमाश्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन कह सकता है.पर वे भी नहीं कह सकते क्योकि राधा गुण स्मृति मात्र से हीवे इतने विहल हो जाते है, कि उनका कंठ रुध जाता है और शब्दोच्चारण ही संभव नहीं होता.फिर हम तो कह ही कैसेसकते है ये उनकी लीला उनके गुण के सागर में से मानो एक बूंद ही है.इतना होने पर भी श्री राधा रानी को देखो न वे विलासमयी रमणी है, न वे कवि ह्रदय की कल्पना है, न उनमे किसीप्रकार का गुण रूप सौंदर्य अभिमान है.धन्य है वे राधा रानी और उनकी कायव्युह रूपा त्याग प्रेम की जीती जागती प्रतिमा श्री गोपीजन और धन्य है वह दिव्य व्रज जहाँ ऐसी दिव्य लीलाएँ होती है.

        🌹लाड़ली जी के चरण सेवक🌹           "श्याम सुन्दर गोस्वामी"
                  बृज रसिक बरसाना धाम

राधा जी के भाव

राधा जी के भाव

वो जो हैं, जहाँ हैं, जैसे हैं, मेरे हैं। मैं जो हूँ, जहाँ हूँ, जैसी हूँ, उनकी हूँ।
यदि वे आराधक हैं, तो मैं राधा हूँ। वे निशा हैं, तो मैं कालिमा हूँ। वे श्याम हैं, तो मैं श्यामा हूँ। वे प्रकाश है तो मैं रश्मि हूँ। वे चन्द्र हैं, तो मैं ज्योत्स्ना हूँ। वे सूर्य हैं, तो मैं किरण हूँ। वे शरीर हैं, तो मैं प्राण हूँ। वे मन हैं तो मैं मनन हूँ। वे बुद्धि हैं, तो मैं निर्णय हूँ। वे चित्त हैं, तो मैं जीवन हूँ। वे धारणा हैं, तो मैं धर्म हूँ। वे किसी काल, किसी देश, किसी अवस्था मे मुझसे पृथक होने संभव ही नही हैं।

सखी, प्रियतम और मैं दो है ही नहीं, मैं हूँ ही नहीं, प्रियतम ही प्रियतम हैं। प्रियतम हैं ही नहीं, मैं ही मैं हूँ। परंतु प्रीति के लिए मैं प्रिया वे प्रियतम हो जाते हैं। मैं उन्हे प्रेम करती हूँ, और वे मेरे प्रेम का भोग करते हैं। वे संयोग और वियोग के भोक्ता हैं। फिर तू इतनी क्यों दुखी है। जब मैं उनसे वियुक्त होती ही नहीं, हो पति ही नहीं, फिर उनकी अपनी इच्छा से मुझे वे त्यागे, या भोगें। यह उनकी ही रुचि तो है। वे अपनी रुचि के अनुसार सुखी हों। यही तो मेरे अस्तित्व का अर्थ है। फिर तू क्यों दुखी है।

सखी! मुझे न जाने क्या हो गया है। जब मैं नेत्र खोलती हूँ, तो उन्हे बाहर देखती हूँ। और जब मैं नेत्र बंद करती हूँ, तो वे मेरे भीतर मुझमे भरे दिखते है। मैं चलती हूँ, तो उनके संग। बैठती हूँ, तो उनकी गोद मे। मैं खाती पीती, सब कर्म उनके संग ही करती हूँ। उनका प्यार ही मेरा अस्तित्व है। अनेक रूप, अनेक विधान, अनेक व्यक्तियों के रूप मे वे मुझे ठगने की चेष्टा करते है, पर सब समय मेरा प्रेम उनका छल मिटा देता है।

सखी! जैसे समुद्र मछली के ऊपर नीचे, दायें बाएँ आगे पीछे, भीतर बाहर भरा है। वैसे ही मैं उनकी सर्व और से शरण हूँ। वे मेरी पूरी शरण है। मैं गोरी काली, सुरुपा कुरूपा, सद्गुनी दुर्गुणी, भली बुरी उनकी हूँ। और वे जैसे भी है मेरे हैं। वो जो हैं, जहाँ हैं, जैसे हैं, मेरे हैं। मैं जो हूँ, जहाँ हूँ, जैसी हूँ, उनकी हूँ । तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

जो इहलोक और परलोक को भी छोड़ दे वो गोपी है

जो इहलोक और परलोक को भी छोड़ दे वो गोपी है

श्रीमद्भागवत के रासपंचाध्यायी में प्रथम अध्याय में श्लोक २४ ,२५,२६ में भगवान गोपियों को स्त्री धर्म की शिक्षा दे रहे है.

"भर्तु: शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो हामायया
तद्धन्धूनां च कल्याण्य:प्रजानां चानुपोषणम्"(24)

अर्थात - अप्रिय पक्ष - कल्याणी गोपियों ! स्त्रियों का परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई बंधुओ कि निष्कपट भाव से सेवा करे और संतान का पालन पोषण करे.

"दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोपि वा 
पतिःस्त्रीभर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी"(25)

अर्थात -अप्रिय पक्ष -  जिन स्त्रियों को उत्तम लोक प्राप्त करने कि अभिलाषा हो वे यदि पति पातकी न हो तो, दुःशील, दुर्भाग्यशाली, वृद्ध, असमर्थ, रोगी और निर्धन होने पर भी इहलोक और परलोक में सुख चाहने वाली रमणी को उसका परित्याग नहीं करना चाहिए. इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण फिर कहते हैं-

यहाँ भगवान गोपियों को स्त्री धर्म के बारे में बता रहे है. कि पति चाहे कैसा भी क्यों ना हो उसे नहीं छोडना चाहिये,परन्तु २५ वे श्लोक में अंत में स्वयं एक बड़ा गूढ़ शब्द "लोकेप्सुभिरपातकी" कह दिया,  अर्थात यदि पति पातकी ना हो तो? अर्थात पापी न हो.

इसके दो अर्थ निकलते है पहला रोगी हो, निर्धन हो, असमर्थ हो, वृद्ध हो जब ऐसे भी पति को छोड़ने की बात शास्त्रों में कही गई है तब में तो इन सब में शामिल भी हूँ,मै भी रोगी हूँ, गोपियों के अन्दर बैठी प्रिया जी से कह रहे है , मुझे भी आपके प्रेम का रोग लगा है, मै भी निर्धन हूँ, मुझे प्रेम की भिक्षा दो, और इन सबसे ऊपर नित्य, सत्य, पति भी मै ही हूँ.दोनों तरह से पति तो वास्तव में मै ही हूँ.

दूसरा अर्थ ये है कि पातकी को छोड़कर, तो इस संसार में पापी कौन नहीं है? जब वंशी बजी तो किसी के पति ने ऐसा नही कहा- जाओ! जाओ! अर्थात इससे स्पष्ट है कि गोपियों के पतियो को एतराज था वे नहीं चाहते थे कि गोपियाँ जाए.और ठाकुर जी स्वयं योगमाया के द्वारा प्रत्येक गोपी की जैसी सकल, सूरत,स्वभाव,पहनावा था उतने ही करोडो रूप लेकर उनके घरों में विद्यमान हो गए थे,जिससे किसी को भी पता ही नहीं चला कि गोपी हमारे साथ नहीं है. वरना किसी एक कि भी पत्नी इतनी रात को उन्हें घर में दिखायी नहीं देती तो लट्ठ लेकर सभी उसे ढूंढने निकल पड़ते.बड़ा हंगामा हो जाता.

जो भगवान के खिलाफ जाए, जिसकी बुद्धि इतनी गन्दी वस्तु (हाड-मास,मलमूत्र के बने गोपी के शरीर)को देने में भी बुद्धि लगाता है. क्या वे पातकी नहीं है? जब तक पाप कराने वाली जननी माया हम संसारियो के साथ है तब तक हम पाप ही पाप करते रहते है,

उस पर भी पूर्व जन्म के संचित पाप, वर्तमान जन्म के पाप, और प्रतिदिन,प्रति क्षण,करते जा रहे है, मंदिर और गुरु के द्वार पर भी खड़े है कोई सुंदर लड़की या वस्तु दिख गई भगवान से नजर हटकर उसे ही देखने लगे,यहाँ भी पाप नहीं छूट रहे, फिर बाहर की बात तो कौन करे.

गोपियाँ मानो यही कह रही है परम पति तो आप ही हो,ये पति तो हर जन्म में बदलते रहते है. इसे तो जन्म और मृत्यु लगी है,अभी जिससे इतना प्यार था उसके चले जाने पर कहते है  हमें उसकी मिट्टी में जाना है,अब वही देह मिट्टी हो गई. यहाँ कोई किसी के लिए नहीं रोता, कोई किसी की भक्ति नहीं करता, सब अपनी भक्ति करते है. सब स्वार्थ के लिए रोते है. उस मरने वाले से स्वार्थ था. इसलिए रो रहे है.

पति के मर जाने पर पत्नी भी कहती है -
जा दिन मन पंछी उड़ि जइहैं,
घर के कहिहि वेग ही काढो, भूत भये कोहू खाहिहै,
जा जियो सो प्रीत घनेरी, सोहू देख डरई है,
जा दिन मन पंछी उड़ि जइहैं.
और भगवान साथ-साथ दो भय भी दिखा रहे है. इहलोक और परलोक का

"अस्वर्ग्यमशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्
जुगुप्सितं च सर्वत्र हौपपत्यं कुलस्त्रियाः"(26)

अर्थात - कुलीन स्त्रियों के लिए जार पुरुष कि सेवा सब तरह से निंदनीय ही है.अन्य पुरुषों के साथ रहने वाली स्त्रियों का परलोक बिगड़ता है स्वर्ग नहीं मिलता, इस लोक में अपयश मिलता है.सुख समाप्त हो जाता है. यह कुकर्म स्वयं तो अत्यंत तुच्छ क्षणिक है ही, इसमे प्रत्यक्ष वर्तमान में भी कष्ट ही कष्ट है. मोक्ष आदि कि तो बात ही कौन करे? साक्षात् परम भय नरक आदि का हेतु है.

भगवान श्रीकृष्ण के सतीत्व संबंधी वचनों के बाद गोपियों ने जो जवाब दिया है उससे यह स्पष्ट होता है कि महारास कामक्रीड़ा नहीं हैं. गोपियां कहती हैं कि पति पालन-पोषण करता है और पुत्र नरक से तारता है. लेकिन पुत्र और पति यह भूमिकाएं अल्पकाल तक ही निभाते हैं. आप तो जन्म-जन्मांतरों तक व्यक्ति के पालन पोषण का कार्य करते हैं और स्वर्ग के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं. इसलिए हे श्याम!हमारी परीक्षा मत लीजिए. सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम

संसार के सारे सम्बन्ध व्यर्थ के है

श्री कृष्ण रास मंडल में आई गोपियों से कह रहे है -

"राजन्येषा घोररूपा घोरसत्वनिषेविता
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभि:सुमध्यमा:"(19)

अर्थात - सुंदरी गोपियों रात का समय है यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इससमे बड़े बड़े भयावने जीव जंतु इधर उधर घूमते रहते है.अतः तुम सब तुरंत व्रज में लौट जाओ रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिये. यहाँ फिर श्री कृष्ण दोनों पक्षों में बोल रहे है

विप्रिय पक्ष में कह रहे है - तुम स्त्रियों का अकेले घूमना अच्छा नहीं है.यहाँ सारी तैयारी तो ठाकुर जी ने ही की है. शरद पूर्णिमा की रात, चंद्रमा,सभी चीजे गोपियों ने कुछ नहीं किया तभी तो शुकदेव जी ने कहा है - कि गोपियाँ तो वंशी सुनकर जैसी थी वैसे ही दौड पड़ी, अस्त व्यस्त ही भागी, उन्होंने तैयारी नही की. अब उसी सुंदर रात्रि को घोर कह रहे है.

प्रिय पक्ष में कह रहे है - तुम क्यों डर रही हो? ये ही तो उचित समय है इसी समय तो मेरी प्रिया होने का उचित समय है. कैसा सुंदर चंद्रमा है कैसी सुन्दर रात्रि है. शरद ऋतु आ गई. सब गोपियों के अतःकरण में विराजमान श्री प्रिया जी से कह रहे है अब आओ ना और ऊपर से गोपियों से कह रहे है क्यों आ गई हो?

                                                      "मातर: पितर: पुत्रा भ्रातर: पतयश्रच व:
विचिन्वन्तिहपश्यन्तो मा कृढवं बन्धुसाध्वसम्"(20)
अर्थात -  तुम्हे ना देखकर तुम्हारे माँ, बाप, पति, पुत्र और भाई, बन्धु ढूंढ रहे होगे. उन्हें भय में ना डालो.

विप्रिय पक्ष - माता, पिता, भाई, बन्धु, सबको छोड़कर क्यों आ गई.

प्रिय पक्ष - ये माता, पिता, भाई, बन्धु,पुत्र, सब व्यर्थ के सम्बन्ध है, ये सब बाट निहार रहे है, तुम इनकी बाते सुनकर क्यों रुक गई. मै तुम्हारा प्रियतम तुम्हारी बाट कब से जुह रहा हूँ, उन्हें छोड़कर मुझे देखो,भय मत करो. तृषित । श्यामाश्याम

Tuesday, 22 December 2015

अधीश्वरी है कुँजन की कविता , तृषित

अधीश्वरी है कुँजन की
स्वामिनी वहीँ निकुँजन की
सेज सजाती नित नव मनहर की
लता-पता से बहे रसधारा
वल्लरी बन त्रिभुवन सजाती
मोहन रहे ना कुँजन बिन
रसीली सब भुवन को निकुँज सी सजाती
मधुरा रहती नित रसमयी धारा
पर मुख पर तृषा छुट ही जाती
रसराज को जो रस सुधा पिलाती
तृषित रसिकशेखर को वहीँ सुहाती
"तृषित"

Monday, 21 December 2015

जहाँ काम की भी दाल न गली

जहाँ काम की भी दाल न गली ।
भगवान कहते है - जो अनन्य भाव से भगवान के चरण कमलों में समर्पित हो जाता है तो हम उसके हाथ का खिलौना बन जाते है.इसलिए रासलीला में गोपी जो-जो करने को कहती ठाकुर जी वही करते.कोई गोपी कहती -प्यारे! बड़ी प्यास लगी है,ठाकुर जी अंजुली में जलभर लाते और उस गोपी को पिलाते.

किसी गोपी की चोटी खुल जाती ठाकुर जी बांधने लगते.कोई गोपी कहती प्यारे! रास करते करते गर्मी लग रही है तो ठाकुर जी झट अपने पीताम्बर से उसको पंखा झलने लगते.

रास के समय ही श्री नारद जी की प्रेरणा से काम व्रज में आया, उसी समय त्रिभंगललित प्रभु ने वासूरी बजाने के लिए उठाई अभी बजायी नहीं, केवल टेढ़ी चितवन से काम की ओर देखा, तो देखने मात्र से वह बेहोश हो गया,अभी तो राधा रानी और गोपियाँ आई ही नहीं है, शायद उन्हें देखकर काम तो प्राण ही छोड़ देता, भगवान ने उसे उठाकर व्रज से बाहर फेक दिया, तब वह गोपियों के पास गया,पर वहाँ भी उसकी दाल नहीं गली.

क्योकि गोपियों के चित्त में कृष्ण बसे हुए है,और जहाँ राम है वहाँ काम का, क्या काम है? जब चित्त कृष्ण के पास चला गया, तब काम फिर गोपियों के विरह की आग में जलकर भस्म हो गया.पर अभी गोपियों की देह शेष थी? कौन सी देह ?दिव्य देह सो काम उनकी कंचन देह के अंग-अंग में आकर बैठ गया.

जब गोपियाँ रास मंडल में आई तब भगवान गोपियों के साथ क्रीडा करते हुए,उनके अंगों का स्पर्श कर रहे है, मानो एक-एक अंग में से काम को निकाल-निकालकर परास्त करते जा रहे है.

"बाहुप्रसारपरिरंभकरालकोरु, नीविस्तनालभननर्मनखाग्रपतै,
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्वजसुंदरीणा, मुत्त्भयन् रतिपति रमयाचकार "

अर्थात - हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, नीवी, आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना, और मुस्काना. इन क्रियायो के द्वारा गोपियों के साथ वे भगवान श्री कृष्ण क्रीडा द्वारा आनंदित  करने लगे.अंत में काम परास्त होकर, लजाकर, भगवान के पुत्र होने का वरदान लेकर व्रज से गया है. सत्यजीत तृषित । श्यामाश्याम

Sunday, 20 December 2015

प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति

प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति।
नन्दनन्दन, श्यामसुन्दर, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी-जिनके मुखारविन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान है, सिर पर मयूर-पिच्छ का मुकुट, गले में पीताम्बर, ठुमुक-ठुमुककर चलने वाला, बाँसुरी बजाने वाला जो मनमोहन प्राणप्यारा है, उसको प्राप्त करने की इच्छा, उत्कंठा, व्याकुलता, तड़प जब अपने ह्रदय को दग्ध करने लगे तब समझो कि प्यास जगी। और जब उसकी बात सुनकर, उसकी याद आने से, उसके लिये कोई कार्य करने से अपने ह्रदय में रस का प्राकट्य हो, अनुभव हो तब इसे तृप्ति कहते हैं।
श्रीहरि को ढूँढ़ने के लिये निकले और पानी में उतरे ही नहीं, किनारे पर ही बैठे रहे, इसका नाम प्यास नहीं है और जब प्यास ही नहीं तो तृप्ति कैसी? कहीं हम स्वयं को ही तो मृग-मरीचिका के भ्रम में नहीं डाल रहे ! छ्ल? स्वयं से ! प्यास और तृप्ति ! आनन्द के लिये प्यास और आनन्द की प्राप्ति पर तृप्ति ! संयोग और वियोग--प्रेम इन दोनों को लेकर चलता है। ईश्वर को मानना अलग बात है और उनसे प्रेम करना अलग ! श्रीहरि को याद करना अलग है और उनके वियोग में, उनकी प्राप्ति के लिये व्याकुल होना अलग बात है। भक्ति वहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से श्रीहरि के स्मरण में, श्रीहरि के भजन में, श्रीहरि की लीला-कथाओं के श्रवण में, श्रीहरि के सेवन में रस का ह्रदय में प्राकट्य होता है, आनन्द का प्राकट्य होता है। प्रेम की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये संयोग और वियोग दोनों ही आवश्यक हैं। वियोग न हुआ तो कैसे जानोगे कि क्या पाया था ! तड़प कैसे उठेगी फ़िर उसे पाने के लिये ! मूल्य तो वियोग के बाद ही मालूम हुआ ! अब फ़िर पाना है पहले से अधिक व्याकुलता, तड़प के साथ ! अब जो मिला तो आनन्द और अधिक बढ़ गया ! यही मनमोहन, सांवरे घनश्याम की प्रेम को उत्तरोत्तर बढ़ाने वाली लीला है जिसमें भगवान और भक्त दोनों ही एक-दूसरे के आनन्द को बढ़ाने के लिये संयोग और वियोग के झूले में झूलते रहते हैं। अजब लीला है कि दोनों ही दृष्टा हैं और दोनों ही दृश्य ! दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को अधिकाधिक सुख देना चाहते हैं ! दोनों ही दाता और दोनों ही भिक्षुक ! प्रेम ऐसा ही होता है। जागतिक नियमों से परे ! चूँकि प्रेम ईश्वर ही है सो यह अधरामृत है ! अधरामृत ? अ+धरा+अमृत ! जो अमृत धरा का नहीं है; यह जागतिक तुच्छ वासना नहीं है, जिसे हम सामान्य भाषा में प्रेम कह देते हैं। प्रेमी होना बड़ा दुष्कर है।
जो सीस तली पर रख न सके, वह प्रेम गली में आये ही क्यों !
जय जय श्री राधे ! radhasharan das ji

Saturday, 19 December 2015

जिसने परमात्मा के लिए सर्वस्व त्यागा वही महाभाग है

जिसने परमात्मा के लिए सर्वस्व त्यागा वही महाभाग है

शरद पूर्णिमा की रात में जब भगवान श्री कृष्ण के वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियाँ उस रास लीला की स्थली पर पहुँची,यहाँ एक बात जाननी जरुरी है,कि वंशी की आवाज सुनकर वन के पशु, पक्षी,वन्य जीव वृंदावन के अन्य गोप ग्वाले नहीं आये थे,क्यों ?

क्योकि उन्हें वंशी सुनाई ही नहीं दी.ये वंशी साक्षात् भगवान उस परम शक्ति परमात्मा का आवाहन है,और भगवान ने वंशी पर जिस जिसका आवाहन किया वही उस रास लीला स्थली पर पहुँच गया.इसलिए केवल गोपियाँ ही रास लीला में पहुँची.

"स्वागतं वो महाभागा:प्रियं कि करवाणि व:,व्रज्स्यानामयं कच्चिद ब्रूतागमन करणम्"

अर्थात - भगवान श्री कृष्ण कहते है -हे महाभाग्य्वती गोपियों तुम्हारा स्वागत है बतलाओ तुम्हे प्रसन्न करने के लिए मै कौन-सा काम करूँ ?व्रज में तो सब कुशल मंगल है न ?कहो इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गई ?

यहाँ "महाभाग" शब्द आया है, भगवान गोपियों के लिए महाभाग कह रहे है. महाभाग हर किसी के लिए नहीं आता,दो जगह ये शब्द भगवान ने कहा है पहला "गोपियों" के लिए दूसरा राजा "अमरीश" के लिए, वास्तब में महाभाग कौन है?

महाभाग वह है जो सारे जगत के संबंधो को तृण की भांति छोड़कर कृष्ण के पास आ गया वो महाभाग है.और भगवान यहाँ गोपियों का स्वागत कर रहे है,"स्वागतं वो महाभागा"जो भगवत सम्बन्ध को द्रढता से जोड़ लेता है उसका स्वागत भी भगवान करते है.

इसी तरह राजा अमरीश जी थे,जो एक राजा थे, परन्तु राज-काज, घर-गृहस्थी से उनका कोई लेना-देना नहीं था, बस दिन-रात अपने ठाकुर जी की भक्ति में लगे रहते थे, जगत के सारे संबंधो को तृण की भांति छोड़कर भगवान के लगे हुए थे. उनकी ऐसी निष्ठा थी,कि भगवान को भी अपना सुदर्शन चक्र उनकी और उनके नगर की सुरक्षा के लिए हमेशा दिन-रात २४ घंटे लगाना पड़ा था. इसीलिए उन्हें महाभाग कहा गया.

यहाँ एक बात और ध्यान देने की है,गोपियाँ हो या राजा अमरीश जी हो दोनों में से कोई भी संसार से भागा नहीं है,संसार में ही है अर्थात घर गृहस्थी,सम्बन्धी, स्वजन सभी के साथ है,किसी से दूर नहीं है,पर बाहर से सभी के साथ है परन्तु अन्दर कोई नहीं है,अंदर तो केवल एक ठाकुर जी ही बैठे है.ऐसा सम्बन्ध बने तभी बात बनती है. सत्यजीत तृषित । श्यामाश्याम ।

Friday, 18 December 2015

भगवान से सम्बन्ध जरुरी है भाव चाहे कैसा भी हो

भगवान से सम्बन्ध जरुरी है भाव चाहे कैसा भी हो

रास पंचाध्यायी में राजा परीक्षित शुकदेव जी से प्रश्न करते है -

"कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्तया मुने
गुणप्रवाहोंपरमस्तासं गुनाधियां कथम् "(12)

अर्थात -  राजा परीक्षित जी ने पूँछा -भगवन! गोपियाँ तो भगवान को केवल अपना प्रियतम ही मानती थी उनका उनमे ब्रह्म भाव नहीं था इस प्रकार उनकी द्रष्टि प्राकृत गुणों में ही आसक्त दीखती है. ऐसी स्थिति में उनके लिए गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई ?

तब भी परीक्षित जी ने ये प्रश्न किया. शुकदेव जी को ये प्रश्न कुछ अच्छा नहीं लगा परन्तु राजा परीक्षित जी ने ये प्रश्न संसार के निमित्त पूंछा इसलिए शुकदेव जी उत्तर में कहते है -

"उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैघ: सिद्धिं यथा गत:
द्विषन्न्पि हषीकेशमं किमुताधोक्षजप्रिया:"(13)

अर्थात - शुकदेव जी कहते है राजन! मै तुमसे पहले भी कह चूका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेष भाव रखने पर भी अपने प्राक्रत शरीर को छोड़कर अप्राकृत शरीर से उनका पार्षद हो गया ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति और उसके गुणों से अतीत भगवान श्री कृष्ण कि प्यारी है,और उनसे अनन्य प्रेम करती है वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जाएँ इसमें कौन सी आश्चर्य कि बात है.

जहाँ शुकदेव जी ने "भगवान" शब्द से रास की कथा प्रारंभ की, जहाँ वंशी,शरद पूर्णिमा, रात्रि, चंद्रमा,लता-पताये,वृक्ष, फूल, सभी कुछ अप्राकृत है. वहाँ गोपियों कैसे प्राकृत हो सकती है. और बात भाव की है, कैसे भजा ये जरुरी नहीं है? भजा ये जरुरी है.

भगवान से सम्बन्ध कैसा है ये जरुरी नहीं है सम्बन्ध होना जरुरी है चाहे किसी भी प्रकार से हो. अनुकूलता का सम्बन्ध होगा तो चरणारविन्द की प्राप्ति हो जायेगी और यदि प्रतिकूलता का सम्बन्ध होगा तो मुक्ति मिल जायेगी.

"कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौह्दमेव च
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते"(15)

अर्थात - वह सम्बन्ध चाहे कैसा भी हो -काम का हो क्रोध का हो या भय का हो स्नेह नातेदारी या सौहार्द का हो चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य निरंतर अपनी वृतिया जोड़ दी जाए वे भगवान में जुडती है इसलिए भगवन्मय हो  जाती है और उस जीव को भगवान की ही प्राप्ति होती है.

परीक्षित जी पूंछना चाहते थे - कि सम्बन्ध तो हो, पर भगवान ब्रह्म है ये भी बोध हो.जैसे अर्जुन और युधिष्ठिर जी को विषाद हुआ था,अर्जुन को युद्ध से पहले और युधिष्ठिर जी को युद्ध के बाद तब अर्जुन को तो भगवान ने गीता का उपदेश दिया था और फिर ब्रह्म स्वरुप से विराट रूप के दर्शन कराये थे.

और युधिष्ठिर जी को भीष्म पितामह जी के पास ले जाकर उनसे उपदेश कराया था तब भीष्म पितामह जी ने कहा था तुम्हे क्या लगता है तुम सब ने युद्ध जीता है सबको मारा है.अरे ये जो सामने खड़े है इन्हें पहचानो, इन्हें ब्रह्म की द्रष्टि से देखोगे तो इनका स्वरुप जान सकते हो.और गोपियाँ तो यहाँ कान्त भाव से देखती है फिर वे कैसे पहचानेगी कि ये ब्रह्म है? ऐसा प्रश्न परीक्षित जी ने संस्कारों और इतिहास कि वजह से पूँछा था.

इस पर शुकदेव जी के कहा -  गोपियाँ जानती तो है कि वे ब्रह्म है, पर मानती नहीं है वे तो यही कहती है ब्रह्म होगे व्रज के बाहर हमारे लिए तो नंद नन्दन है. यदि तुम ब्रह्म होकर हमारे पास आओगे तो नजर उठकर भी नहीं देखेगी.वे तो वासुदेव नंदन को भी नहीं मानती केवल नन्दनन्दन श्री कृष्ण को ही मानती है और वे जानती भी है कि ये ब्रह्म है.आध्यात्म में अनुभव और अनुभूति दोनों साथ चलती है.

एक बार जब निकुंज में गोपियाँ श्री कृष्ण को ढूँढ रही थी तब श्री कृष्ण ने सोचा चतुर्भुज रूप रख लेता हूँ ये सोचकर वे चतुर्भुज रूप होकर बैठ गए,गोपियाँ आई, चतुर्भुज रूप देखकर विष्णु समझ कर प्रणाम करके ये कहते हुए आगे बढ़ गई,कि ये तो विष्णु है और हमारे श्यामसुंदर नहीं है, चलो सखी हमतो अपने नन्द नन्दन को कही दूसरे निकुंज में ढूँढते है.

जैसे कोई डॉक्टर है या वकील है जब काम पर होता है तो कोट पहन लेता है डॉक्टर सफ़ेद कोट पहन लेता अहे और वकील काला कोट पहन लेता है,परन्तु जब वे घर आते है तो वे अपना कोट उतार देते है घर पर वे डॉक्टर वकील नहीं रह जाते वे तो दुनिया ने लिए वकील और डॉक्टर है. घर पर कोई उन्हें डॉक्टर वकील साहब कहकर प्रणाम भी नहीं करता .

ठीक इसी प्रकार ननंद  नंद कृष्ण भी व्रज से बाहर ये ऐश्वर्य का कोट पहन लेते है और परन्तु जब व्रज में होते है तो इस कोट को उतार देते है.

गोपी गीत के चौथे श्लोक में कह भी रही है -

"न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले "

भवार्थ - हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा कर ने के लिए प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं. सत्यजीत तृषित । श्यामाश्याम