जीव पतंगा
दीपक पर पतंगे के जलने की तरह आत्मा का परमात्मा में प्रेम विभोर होकर आत्म समर्पण करने का हैं जीव और ब्रह्म के बीच माया ही प्रधान बन्धन हैं वही दोनों को एक दूसरे से पृथक् किए हुए हैं। अहंता, स्वार्थपरता, ममता संकीर्णता का कलेवर ही जीव की अपनी पृथक्ता एवं सीमा बाँधता हैं उसी की ममता में वह ईश्वर को भूलता और आदेशों की उपेक्षा करता है। इस अहंता कलेवर को यदि नष्ट कर दिया जाए तो जीव और ब्रह्म की एकता असंगत हैं ईश्वरीय प्रेम में प्रधान बाधक यह ममता अहंता ही है ब्रह्म को दीप ज्योति का भी अहंता कलेवर युक्त जीव को पतंगा का प्रतीक माना गया है। पतंगा अपने कलेवर को प्रिय पात्र दीपक में एकीभूत होने के लिए परित्याग करता है। आत्म समर्पण करता है। कलेवर का उत्सर्ग करता है। अपनी सम्पदा, विभूति एवं प्रतिभा को प्रभु की प्रसन्नता के लिए सर्वमेघ यज्ञ कर्ता की तरह होम देता है। विश्व मानव की पूजा प्रसन्नता के लिए साधक का परिपूर्ण समर्पण यही आत्म यज्ञ है। इसमें अपने को होमने वाला नरमेष करने वाला ईश्वरीय सान्ध्यि की सर्वोच्च गति को पाता है।
जिस माया मग्नता के कारण ईश्वर और जीव में विरोध या उसका समर्पण कर देने पर ईश्वरीय अनन्त विभूतियों का अधिकारी साधक बन जाता है और उसे प्रभु का असीम प्यार प्राप्त होता है। बिछुड़ने की वेदना दूर होती है और दोनों एक दूसरे के गले मिल कर अनिर्वचनीय आनन्द का रसास्वादन करते हैं।
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