सखी प्रेम की बाते थोडी नही है बहुत है।इतनी है की सब कहने मे आ ही नही सकती फिर भी सब कुछ न कुछ कहते है।
सब लोग प्रेम प्रेम जपते रहते है,मुझे प्रेम,इसे प्रेम ऐसा कहते रहते है किंतु सच मे प्रेम क्या है पूर्ण रूप से यह कौन कह सका है,सब जगत मे यू ही बस कुछ ही प्रेम को जानकर घूमते फिरते है।
जब जीवन मे प्रेम आता है तब सब कुछ चला जाता है केवल प्रेम ही जीवन मे शेष रह जाता है और कुछ शेष नही रहता,हर ओर केवल प्रेम ही प्रेम दिखाई देता है,हर व्यक्ति वस्तु प्रेम मे डूबी हुई नजर आती है।इस प्रकार प्रेमी के जीवन मे प्रेम के अतिरिक्त कुछ रहता ही नही,वह जिधर देखता है उसे प्रेम ही दिखाई पडता है। अपने प्रियतम के अतिरिक्त उसे कुछ ओर सुहाता ही नही है।
प्रेमी को चारो ओर ही अपने प्रियतम का दर्शन होने लगता है,हर ओर उसे अपने पिय की छबि ही मुस्कुराती हुई दिखाई देती है और यह तब होता है जब सभी ओर से सबका संग छोड दिया जाता है केवल पिय का संग ही ह्रदय मे आठो पहर रह जाता है।तब केवल उन्ही की बाते यादे संग होती है बाकी सब व्यर्थ का संग छोड दिया जाता है।
तब ऐसे मतवाले हुए प्रेमी की कोई ओर(जगत) सुध नही लेता ना ही कोई उसे संग रखता है।सब छोड देते है ऐसे प्रेमी को जिसे प्रत्येक दिशा मे प्रेम पुष्प ही खिले हुए दिखाई देते है।फिर वह जगत के लिए अयोग्य ही हो जाता है,इसके किसी काम का नही रहता।
जैसे सब प्रेम के बारे मे कहते है सबसे सुनकर सबकी कही हुई बाते ही प्यारी भी यहाँ कह रही है।इसमे कुछ भी नयी बात नही है।इसे प्रेम के बारे मे यद्यपि कुछ भी नही पता है( कोई अनुभव नही ),क्योकी प्रेम तो इसे हुआ ही नही,तब भी केवल कहे सुने के आधार पर ही इसने यह सब कहा है।
बात सखी प्रेम की थोरी ना बहुत।
प्रेम प्रेम जपिहै प्रेम नाय जानिहै,ऐसेहु जगत मा फिरिहै सबहि।
जावे सबै आवे प्रेम बचिहै न कछु,बिनु पीय कछु भावे न तबहि।
दीखे चहु ओर पीय प्राण ही प्यारौ,जानिहै गयो संग आयो पिय तबहि।
कौन वा की सुधि लेय राखिहै कौन वा कौ,दिखिहै प्रेम को फूल दिशि सबहि।
प्यारी कही सुनी बाता कहवै बिनु बात,जानिहै न कछु बात प्रेम को जबहि।
प्यारी जु "आँचल"
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