Wednesday, 30 November 2016

अधम करे प्यारौ कृपा भतेरी। प्यारी जु आँचल

प्राण प्यारे युगल हम अधम जीवो पर भी कितनी कृपा करते है न।जरा नही विचारते की कौन योग्य कौन अयोग्य,बस अपना प्रेम लुटाते जाते है,कृपा करते जाते है।
मै नैनो से अंधी( क्योकी युगल की ऐसी कृपा वर्षा नही देखती सो अंधी ही हू),मतिहीन( युगल के चरणो मे मति नही लगायी तब ऐसी मति का होना भी न होने समान ही),बाँवरी हू न जाने क्यू मै इतने कृपामय युगल का नाम नही लेती।
किंतु इतने पर भी तुम मुझ पर कृपा बरसाते ही गये।कभी भी तुमने कृपा वर्षा मे जरा सी भी देरी न की।जब जैसी आवश्यकता देखी अकारण करूणा बरसा दी तुमने।
मेरा ह्रदय कितनी कुटिलताओ से भरा हुआ है।बुद्धि विषयो मे फसी हुई मति से कुमति हो गयी है तभी तो यह मनमोहनी,प्राण प्यारी छबी को नही निरखती।( जिस भाति निरखना चहिए उस भाति नही निरखती,बस बाहर बाहर देखती है)।
तब भी तुमने मुझे अपनी दासी बनाने से कभी इंकार न किया।मुझे अपनी दासी स्वीकार किया।हे करूणामय यह आपकी कृपा ही तो है।
आपकी ऐसी करूणा,कृपा को देखकर भी मेरे नैन बहते नही है ना ही आपकी सेवा न कर पाने के कारण यह ह्रदय जलता है।यह जलकर राख नही हो रहा है।( यह मेरी कुटिलता के कारण ही न)
मै तो सदा से अधम कुटिल ही हू किन्तु इतने पर भी आपने मुझे निर्मल की और केवल निर्मल ही नही की।निर्मल करके अपनी करूणा की नजर से मुझे देखा।
हे नाथ अब ऐसी कुछ कृपा कर दो की मेरी यह अधमता छूट जाए और यह प्यारी आपके चरणो की दासी बन जाए।

अधम करे प्यारौ कृपा भतेरी।
नैन को अंध मतिहिन बाँवरो,नाय काय नाम कौ टेरी।
ता पेई कृपा बहुत तुम किन्ही,नेक ना किन्ही देरी।
कुटिलता भरौ हिय बिषय कुमति हौ,छबि प्यारो प्राण न हेरी।
ता पै करत चेरी मोय अपनो,दया कृपामय तेरी।
बहत न नैन जरत न हिय नेक,नाय हुयो राख को ढेरी।
अधम कुटिल ता पै निर्मल किन्ही,मोय करूणा सो हैरी।
ऐसी करो किरपा अधमताई छूटै,बने चेरी चरणा सो प्यारी।

प्यारी जु "आँचल"

व्यसन (नशा) , प्यारी जु , आँचल

अरी सुन प्रीती का व्यसन( नशा ) बडा ही अद्भुद होता है।
यह व्यसन शब्द जो हमने सुना है यदि पूछे की इसका क्या अर्थ होता है? तो सुन व्यसन का अर्थ होता है नशा,मद।जिसमे मनुष्य स्वयं की सुध बुध भुला दे वही व्यसन कहलाता है।
जिसमे जीव अपने आप ही अपने आप को भुला दे,अपने आप को उनकी प्रीती मे खो दे वही व्यसन है।
जब मेरा तुम्हारा कुछ न बचे।प्रेमी और प्रेमास्पद के बीच के सब भेद मिट जावे,केवल तुम और तुम्हारा ही रह जावे तब वह स्थिति प्रीती का व्यसन कहलाती है।
तब जीव अपने आप को भुलाकर( मै कौन हू,क्या हू आदि )केवल प्रीती ही शेष रह जाये और केवल व्यसन(नशा) ही एकमात्र याद रह जाये बाकी सब वह भुला ही दे।
तब जो ह्रदय के भीतर होगा वह ही बाहर ही दीखेगा।बाहर भीतर एकसमान हो जायेगा।तब मेरा कोई है अथवा मै किसी का हू यह भी याद न रहेगा।
जब यह पता न हो की पहले क्या हुआ और बाद मे क्या होना है।जब कुछ भी भान न रहे तब जानना चाहिए की हमे व्यसन हो चुका है।
जगत मे ओर जितने भी व्यसन है सब कोई जीव का विनाश ही करते है किंतु प्रीती का(प्रेमरूपी) व्यसन तो सारे जगत मे मिलना दुर्लभ है।यह जीव का मंगल ही करता है।
इसमे जीव को कुछ भान ही नही रहता की वह कहा है किस स्थिति मे है।उसे कोई कुछ कहे तो कहता रहे,उसे कुछ अंतर ही नही पडता।
ऐसा प्रेम का प्रीती रूपी व्यसन कब मिले,कब प्यारी ऐसी व्यसनी होगी।ऐसी कृपा कब हो कहिए।

प्रीत व्यसन अद्भुद अरी होहि।
व्यसन सुनि कहा अरथ कहि तो,नशा होहि मद जे होहि।
स्व बिसराय दिन्ही स्व कौ,व्यसन होय जोई स्व खोई।
मैरो तिहारौ बचिहै कछु ना,रहि जावै बचौ सब कछु तोहि।
आप बिसराय प्रीती ही हुई जाय,रहि जावै व्यसन भूलिहै सबहि।
जोई हिय बसिहै सोई बाहर दिखिहै,याद अापनो रहवे न कोई।
पहिलै कहा कहा बादहु होनौ,नाय पतौ रहिहै व्यसन सो होहि।
बिगारै सबहि ओरहु व्यसन तो,प्रीत व्यसन जगत भारी होहि।
कहा परे कौन बिधि परे हौ,कौई कछु कहवे कहवे जोई जोई।
लगिहै व्यसन प्रेम प्रीत कौ कबहु,कबहु प्यारी व्यसनी ऐसो होहि।

प्यारी जु "आँचल"

Tuesday, 29 November 2016

बात सखी प्रेम की थोरी ना बहुत , आँचल प्यारी जु

सखी प्रेम की बाते थोडी नही है बहुत है।इतनी है की सब कहने मे आ ही नही सकती फिर भी सब कुछ न कुछ कहते है।
सब लोग प्रेम प्रेम जपते रहते है,मुझे प्रेम,इसे प्रेम ऐसा कहते रहते है किंतु सच मे प्रेम क्या है पूर्ण रूप से यह कौन कह सका है,सब जगत मे यू ही बस कुछ ही प्रेम को जानकर घूमते फिरते है।
जब जीवन मे प्रेम आता है तब सब कुछ चला जाता है केवल प्रेम ही जीवन मे शेष रह जाता है और कुछ शेष नही रहता,हर ओर केवल प्रेम ही प्रेम दिखाई देता है,हर व्यक्ति वस्तु प्रेम मे डूबी हुई नजर आती है।इस प्रकार प्रेमी के जीवन मे प्रेम के अतिरिक्त कुछ रहता ही नही,वह जिधर देखता है उसे प्रेम ही दिखाई पडता है। अपने प्रियतम के अतिरिक्त उसे कुछ ओर सुहाता ही नही है।
प्रेमी को चारो ओर ही अपने प्रियतम का दर्शन होने लगता है,हर ओर उसे अपने पिय की छबि ही मुस्कुराती हुई दिखाई देती है और यह तब होता है जब सभी ओर से सबका संग छोड दिया जाता है केवल पिय का संग ही ह्रदय मे आठो पहर रह जाता है।तब केवल उन्ही की बाते यादे संग होती है बाकी सब व्यर्थ का संग छोड दिया जाता है।
तब ऐसे मतवाले हुए प्रेमी की कोई ओर(जगत) सुध नही लेता ना ही कोई उसे संग रखता है।सब छोड देते है ऐसे प्रेमी को जिसे प्रत्येक दिशा मे प्रेम पुष्प ही खिले हुए दिखाई देते है।फिर वह जगत के लिए अयोग्य ही हो जाता है,इसके किसी काम का नही रहता।
जैसे सब प्रेम के बारे मे कहते है सबसे सुनकर सबकी कही हुई बाते ही प्यारी भी यहाँ कह रही है।इसमे कुछ भी नयी बात नही है।इसे प्रेम के बारे मे यद्यपि कुछ भी नही पता है( कोई अनुभव नही ),क्योकी प्रेम तो इसे हुआ ही नही,तब भी केवल कहे सुने के आधार पर ही इसने यह सब कहा है।

बात सखी प्रेम की थोरी ना बहुत।
प्रेम प्रेम जपिहै प्रेम नाय जानिहै,ऐसेहु जगत मा फिरिहै सबहि।
जावे सबै आवे प्रेम बचिहै न कछु,बिनु पीय कछु भावे न तबहि।
दीखे चहु ओर पीय प्राण ही प्यारौ,जानिहै गयो संग आयो पिय तबहि।
कौन वा की सुधि लेय राखिहै कौन वा कौ,दिखिहै प्रेम को फूल दिशि सबहि।
प्यारी कही सुनी बाता कहवै बिनु बात,जानिहै न कछु बात प्रेम को जबहि।

प्यारी जु "आँचल"

Sunday, 27 November 2016

श्री ठाकोरजी का श्रृंगार

*जय श्री कृष्ण*
*श्री ठाकोरजी का श्रृंगार*

*श्री ठाकोरजी ने श्री कंठ मे स्वर्ण की *हंसुली* धारण की हुई है। वह ये सूचित करते है की श्री ठाकोरजी ने श्री स्वामिनीजी के दोनों श्री हस्त को अपने श्री कंठ मे धारण किये हुए है। उस हंसुली मे चित्र-विचित्र नकशि की हुई है; जो श्री स्वामिनीजी के श्री हस्त आभूषण रूप है।

*श्री कंठ मे प्रभु
३ लर ,  ५ लर,  ७ लर,  ९ लर, १३ लर,    तथा  २१ लर की माला धारण करते है।
*३ लर*  - सात्विक, राजस तथा तामस ऐसे तीन प्रकार के भाव से आती है।
*५ लर*  की माला श्री स्वामिनीजी, श्री चंद्रावलीजी, श्री यमुनाजी, कुमारिकाओ तथा सभी श्री स्वामिनीजी के भाव से आती है।
*७ लर*  - राजस, तामस, सात्विक तथा ४ युथाधिपति के भाव से आती है।
*९ लर* - नव प्रकार के भक्तो के भाव से आती है।
*१३ लर* - भक्तो के १२ अंग तथा श्री स्वामिनीजी के भाव से आती है।
*२१ लर*  - दस प्रकार के भक्त श्रुतिरूपा के, नव प्रकार के भक्त कुमारिका के, राजस, तथा सात्विक मिल कर कुल २१ का भाव होता है।
         *शिक्षा*
*श्रीकंठ मे अंत मे श्री चरणारविंद तक वन माला आती है जिसमे तुलसी और अनेक प्रकार के फूल; सभी श्री स्वामिनीजी, श्री यमुनाजी, सखी सहचरीजी और दूती के भाव के है।

*श्री ठाकोरजी भ्रमर स्वरुप से सभी भक्तो के रस का अनुभव करते है।

*पीले चमेली के पुष्प श्री स्वामिनीजी के भाव से आते है।

*श्वेत चमेली श्री चंद्रावली जी के भाव से आते है ।

*मोगरा - श्री चंद्रावली जी के हास्ययुक्त दंत-पंकित के भाव से आते है ।

*चंपा - कुमारिकाओ के भाव से आते है ।

* गुलाब के पुष्प श्री स्वामिनीजी के हास्य के भाव से आते है।

*सभी पुष्प तथा मणका विविध ब्रजभक्तो के भाव से आते है। प्रभु निज भक्तो को इस प्रकार बताते है कि : -
*" मैं इनको अहर्निश कंठ मे धारण करता हु।"*

*श्री... के शृंगार के बाद *गूंजा माला* अवश्य आवे।

*'शृंगाररसमंडन* ' मे श्री गुसांईजी वर्णन करते है कि 'श्री स्वामिनीजी मान मे बिराजे है। उस समय लीलांतर्गत श्री गोपीजन श्री स्वामिनीजी से कहते है कि आपकी नासिका के मोती के ऊपरी भाग मे आपके नेत्रो मे रहे अंजन की श्याम रंग का हल्का प्रकाश गिर रहा है और मोती के निचे भाग मे आपके अधरष्ठ के लाल हल्का रंग गिर रहा है ।

*यह देख उस मोती के स्वरुप के रात-दिन दर्शन करने के लिये श्री ठाकोरजी श्वेत  और लाल रंग गूंजा की माला सदा अपने वक्षःस्थल पर धारण करते है। लाल और श्वेत रंग को संयोग तथा विप्रयोग भी माना जाता है।

*श्री.. के कंठ मे तुलसी की माला श्री स्वामिनीजी के श्री अंग की सुगंध का अनुभव करवाते है।

*कमल माला श्री स्वामिनीजी के हृदय का भाव है। कमल माला श्री ठाकोरजी के हृदय के साथ श्री स्वामिनीजी के हृदय के मिलन का भाव बताते है।

श्री वृन्दावन में षड गोस्वामी पाद जी समाधि

🏛🌿 *श्री वृन्दावन में षड गोस्वामी पाद जी समाधि*🌿

1) *श्रील रूप गोस्वामी*-
श्री श्री राधा दामोदर जी मन्दिर🙏🏼

2) *श्रील जीव गोस्वामी*-
श्री श्री राधा दामोदर जी मन्दिर🙏🏼🌸

3) *श्रील सनातन गोस्वामी जी*-
श्री मदन मोहन जी मन्दिर🙏🏼🌺

4) *श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी*-
श्री राधाकुंड🙏🏼🌸

5) *श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी*-
श्री राधा रमण जी मन्दिर🙏🏼🌺

6) *श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी*-
दो स्थानों पर श्री राधाकुंड और चौसठ समाधी।उनका दिव्य शरीर विधर्मियो के हाथ न पड़े इसलिए उनका दाह संस्कार कर उनके पार्थिव अवशेषों को समाधी दी गई🙏🏼🌸

Friday, 25 November 2016

श्यामसुन्दर की भीक्षा , लीला

[11/25, 11:48 PM] Sachin ji vrindavan fb: एक  बार श्री राधा रानी जी विशेष मान धारण कर लिया श्याम सुंदर जी बहुत प्रयास किया पर वो ना मानी
[11/25, 11:48 PM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर ने अद्भुत लीला सोची उनको मानने के लिए
[11/25, 11:51 PM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर एक बिक्षुक  शिव रूप में भेष बनाकर बरसाने आ गये
[11/25, 11:51 PM] Sachin ji vrindavan fb: और सभी घरो में जा कर भिक्षा मागने लगे
[11/25, 11:53 PM] Sachin ji vrindavan fb: सब गोपीओने देखा इतना सुंदर बिक्षुक योगी कहा से आया सब अपने अपने घर बुलाने लगी जो भिक्षा चाहिए योगी हम दे गे
[11/25, 11:56 PM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर योगी रूप में बोले तुम्हारे इस गाँव में कोई महा दानी है  क्या जो मुझे मन  वांछित दान दे सके
[11/25, 11:57 PM] Sachin ji vrindavan fb: गोपिया बोली हमारी स्वामिनी श्री राधा रानी जी है  वो आपको मन बाँचित दान दे सकती है
[11/25, 11:59 PM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर जी बोले हो ही नहीं सकता जो मुझे मेरा मन वांछित दान दे सके तुम्हारी स्वामिनी जी भी असमर्थ है
[11/26, 12:01 AM] Sachin ji vrindavan fb: सखिया बोली आप जानते ही क्या हमारी स्वामिनी जी श्री राधा जी बारे में अनंत कोटि व्रह्माण्ड की स्वामिनी जी है
[11/26, 12:02 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर बोले जो भी हो पर मेरा मन बाँचित फल नहीं दे सकती है
[11/26, 12:04 AM] Sachin ji vrindavan fb: सखियां बोली लगाओ सर्त अगर उन्होंने आपका मन बंचित फल भिक्षा में दे दिया तो आप सदा सर्वदा के लिए उनके चिर सेवक बन जाओगे
[11/26, 12:06 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर योगी भेष में बोले अगर नहीं दे पायी तो आप सभी सखिया मेरी दासी बन जाओगी गी
[11/26, 12:08 AM] Sachin ji vrindavan fb: सखिया बोली मंजूर है
सभी सखिया योगी जी को श्री राधा रानी जी के पास ले गयी ओर पूरी बात बतायीं
[11/26, 12:09 AM] Sachin ji vrindavan fb: सखियो ने किशोरी जू से बिनती को ये योगी आपसे मन बंचित भिक्षा चाहते है आप ऐसे प्रदान करे
[11/26, 12:11 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर जी को किशोरी जू में प्रणाम किया ओर पूछा ये योगी राज आपकी क्या इच्छा हौ आप क्या भिक्षा चाहते हो
[11/26, 12:12 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्याम सुंदर बोले मुझे लगता आप देने में असमर्थ है मेरा मन बंचित भिक्षा
[11/26, 12:14 AM] Sachin ji vrindavan fb: अगर आप नहीं दे पायी भिक्षा तो ये सभी सखिया मेरी दासी बन जायेगी सर्त के अनुसार
[11/26, 12:15 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर जी बोले पहले आप बचन दो आप मुझे मेरा मन बंचित फल प्रदान करोगे
[11/26, 12:17 AM] Sachin ji vrindavan fb: किशोरी जी बचन देती आप जो याचना करोगे में आपको उही बार प्रदान करुँगी
[11/26, 12:20 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर दोनों  हाथ जोड़े कर किशोरी जू से प्राथना करने लगे हे किशोरी आप मुझे अपना मान जो अपने धारण किया है वो भिक्षा में दे दे यही मेरी मन बंचित फल है
[11/26, 12:23 AM] Sachin ji vrindavan fb: किशोरी जू सखिया समझ गयी ये वो प्राण वल्लभ श्यामसुन्दर है
[11/26, 12:23 AM] Sachin ji vrindavan fb: पर किशोरी जू बचन जो दे दिया था तो कृपा करके अपने  मान को भिक्षा उनको प्रदान करदी
[11/26, 12:25 AM] Sachin ji vrindavan fb: श्यामसुन्दर जी मन बंचित भिक्षा पा कर पुलकित हो गये ओर बोले त्रिलोकी में ऐसा महान दानी ओर कोई नहीं किशोरी जी जैसा
[11/26, 12:27 AM] Sachin ji vrindavan fb: सखिया बोली योगी जी अब तो आप हमारी किशोरी जू के चिर सेवक हो गये है चिर काल के लिए

आली पिय प्यारी , प्यारी जु आँचल , सखी विशेष

आली पिय प्यारी छाँह होहि।
दुई देह ज्यौ वाकी छाँवली,तैसेई जानिहौ सखी ओ सहेली।
जलहि शीत ज्यौ बिलग ना होहि,त्यौहि सखिन पिय प्यारी ना बिछोहि।
ज्यौ तापहि अगन संग रहिहै,सखी राधा अंग ही कहिहै।
द्युति जो चमक बिलग ना करिहै,सखी ताई ऐसेही एक होहिहै।
और जानौ जैसौ चले नासिका सुगन्धि,त्यौ सखी प्रीती कौ ही राह चलिहै।
नवाय शीश सखी सहेली प्यारी,जुगल टहल हमहु कौ रखिहै।

युगल की सखियाँ प्रियाप्रियतम की छाया के समान है।जिस प्रकार प्रकाश पडने पर देह की छाया बनती है वह छाया सखियाँ व देह युगल है।जैसे छाया देह से विलग नही हो सकती बिना देह छाया का अस्तित्व ही नही उसी प्रकार सखियाँ एवं युगल अभिन्न है।
जिस प्रकार दो देह( श्यामाश्याम) हो और उस देह की छाया हो उसी प्रकार सखी या सहेली को जानना चाहिए।
जिस प्रकार जल से उसकी शीतलता को अलग नही किया जा सकता( यदि जल को ताप देकर गर्म भी कर दिया जाए तब भी वह पुनः शीतलता को ही प्राप्त हो जाता है अतः शीतलता जल से अभिन्न है)उसी प्रकार प्रियतम प्यारी से सखियो का बिछोह कभी नही होता।
जिस प्रकार अग्नि के संग ताप अभिन्न हो रहता है उसी प्रकार सखियो को श्री राधा का ही अंग कहना चाहिए।
जैसे बिजली से चमक को अलग नही किया जा सकता है ऐसे ही सखी युगल संग एक हो रहती है।
और जैसे सुगन्ध कही भी हो वह केवल नासिका की ओर ही अग्रसर होती है( शरीर के सभी अंगो को छोडकर वह केवल नासिका को ही अनूभूत होती है) वैसे ही जो सखी होती है वह केवल युगल की प्रीती( प्रेममयी सेवा) के पथ पर ही चलती है।
ऐसी सखी,सहेली को प्यारी शीश झुकाकर प्रणाम करती है और प्रार्थना करती है की ये सखिया मुझे भी युगल की सेवा मे रख ले।

युगल प्यारीजु "आँचल"

बरनि न जाय , प्यारी जु आँचल ,सखी भाव विशेष

बरनी ना जाय सखी कौ सेबा।
ज्यौ तन युगल प्राण सखी होई,रचे पचे एक दूजै मे जानौ।
होई युगल छबि नैन सखी जानिहै,ज्योति नैनन इन्ही को मानौ।
जीवन युगल ज्यौ जीवनी सखी हौ,बुनिहै दुई एक तानौ बानौ।
प्रेम विकास नीव सखी जानिहै,प्रीत छौर दुई इन बिना नाहि आनौ।
जुगल प्रेम सेवा सखीही होहिहै,मूरत सेबा को सखीही जानौ।
तन मन प्राण जाकै युगल समायै हौ,ऐसैहु सखी जुगल कौ मानौ।
झुकाय शीश प्यारी करै बिनती,कर लेऔ ऐसैहु सखी जु म्हानौ।

श्यामाश्याम की सखियो की सेवा कहने मे नही आती,बहुत चेष्टा करने पर भी बहुत थोडा ही कहा जा सकता है संपूर्ण रूप से भला कौन इन सखियो का इनकी सेवा त्याग का वर्णन कर सकता है।
जैसे युगल तो तन हो और उनके प्राण सखिया हो वैसे ही सखिया एवं युगल को एक दूसरे मे रचे बसे जानना चाहिए।
जिस प्रकार युगल तो छवी हो और युगल को निहारने वाले नैन,इन नैनो की जो ज्योति है वह सखी को मानना चाहिए अर्थात सखिया ही युगल दर्शन के लिए नयन है युगल दर्शन यदि करना है तो सखी रूपी नयन आवश्यक है।
जिस तरह युगल तो जीवन हो और सखिया उस जीवन की जीवन शक्ति अर्थात प्राणवायु हो उसी तरह दोनो को बुने हुए ताने बाने की तरह एक परस्पर मिला हुआ जानिए।
सखी को युगल के प्रेम पथ के विकास( बढोत्तरी) की नीव जाननी चाहिए और प्रीत के दो छोर (श्यामाश्याम )सखियो के बिना कही आ नही सकते जहाँ सखिया वही युगल ,जहाँ युगल वही सखिया होती है।
सखी युगल की प्रेम सेवा का स्वरूप ही है ,सखी को सेवा का मूर्त स्वरूप ही जानना चाहिए।अर्थात सखी और सेवा भी परस्पर अभिन्न है।
जिसके तन मन और प्राण युगलमय हो गये हो,इनमे युगल ही समाये हो उसे ही युगल की सखी मानना चाहिए।
प्यारी शीश झुकाकर युगल से विनती करती है की मुझे भी अपनी ऐसी ही सखी कर लिजिए।

Thursday, 24 November 2016

निताई चाँद की कृपा

🌹🍁निताई चाँद की कृपा🍁🌹
श्री कृष्ण के पास गया प्रेम माँगने तो बोले
श्री राधारानी के पास जाओ

श्री राधारानी के पास गया तो बोली
" श्री ग़ौर शरण पकड़ो कलयुग में वही श्री कृष्ण प्रेम का वितरण करेंगे"

श्री ग़ौर के पास गया तो बोले
" मै कुछ नहीं हूँ " आमि नट तुमी सूत्रधार
मेरा निताई ही सब कुछ है मेरी कृपा श्री निताई के पास है उसके पास जाओ

मैंने निर्णय लिया अब जो भी श्री निताई चरण नहीं छोड़ूँगा मैं चला गया उनके पास

कमाल की बात देखिए " उन्होंने किसी के पास नहीं भेजा बस मुस्कुराते हुए बोले तुझे मेरे ग़ौर ने भेजा है आजा मेरे हृदय लग जा"
और मुझे  आलिंगन कर लिया

मैंने अपनी मूर्ख बुद्धि से प्रशंन पूछा सभी ग़ौर भक्तों से सबने मुझे कहीं ना कहीं मुझे भेजा श्री निताई ने क्यूँ नहीं कहीं भेजा ?

श्री श्रीवास पंडित बोले - श्री कृष्ण प्रेम नहीं दे सकते क्यूँकि वो प्रेम श्री राधारानी की निज सम्पत्ति है, जब तु श्रीजी के पास गया तो उनका " अनंतकोटि" का भाव और कांति
पहले ही " श्री ग़ौरसुंदर" धारण करके आ गए तब उन्होंने तुझे श्री ग़ौर सुंदर के पास भेजा
जब ग़ौर के पास गया तब ग़ौर की सम्पत्ति प्रेम " श्री निताई" के पास थी तब वो बोले वहाँ जा निताईशरण में
और केवल श्री निताई ही थे क्यूँकि निताई
भक्त रूप में है जिनका कोई ऐश्वर्या नहीं है
तब वो सब प्रेम निताईचाँद का पास था बस उन्होंने कृपा कर तुझे दे दिया

हम तो सभी को कहूँगा अब भाई! केवल निताईचाँद से माँग लो वही देंगे श्री कृष्ण प्रेम
बाक़ी सभी भी यहीं भेजेंगे निताईचरण में
तो पहले ही आ जाओ ना
निताईप्रभु 👏👏👏👏👏👏👏👏
बोलिये श्री निताई चाँद की जय हो

रस और रसना की अतृप्ति , तृषित

*रस और रसना*

तावत् जितेंद्रियो न स्यात् विजितान्येन्द्रियः ...
सब इंद्रियों पर विजयी हो कर भी रसना नहीँ जीती जा सकती । और रसना जीतने से ही सारी इंद्रिय जीत ली जाती है ।
अपितु इसे भी शास्त्र ने सिद्ध किया की आहार त्याग से रसेंद्रिय को अधिक बलवान होती है ।
रसना को रस चाहिए , भले विषयी जीव पदार्थ रस को ही रस समझता हो परन्तु वास्तव में तो रसना वास्तविक रस चाहती है । प्राप्त आहार में भी जो रस है वह भी सार तत्व है और उस सार में रसब्रह्म (श्रीप्रभु) की विद्यता भी है । वास्तव में रसना , प्राकृत रस से भी  वास्तविक रस को पीकर कुछ विश्राम लेती है परन्तु चाहिए उसे "रस" । अब रस का अर्थ है निर्मलतम मधुरतम सम्पूर्ण सार तत्व , शास्त्र ने सिद्ध किया "रसो वै सः " - वह रस है । अब जो श्री कृष्ण रूपी रस है , भगवत् रूपी रस है उसमें भी सार तत्व उनका नाम है जिसे रसना पीकर वास्तव में अपना रसना नाम सिद्ध कर सकती है ।
अर्थात् जीभ की वास्तविक तृप्ति अप्राकृत रस भगवत नाम में है । रसना प्राकृत अगर स्वयं को माने और भगवत् नाम तो नित्य अप्राकृत रस है अतः प्राकृत रसना का अप्राकृत रस के संग संयोग होने से उसे तृप्ति और व्याकुलता दोनों देता है । अगर रसना भी मानव प्राकृत देह के स्वरूप का त्याग कर अप्राकृत हो अप्राकृत रस को पीये तो सम्भवतः उसे उतना आनन्द नहीँ होगा । अतः प्राकृत मानव देह से रसना व्याकुल होकर भगवतनाम रस पी सकती है जो दिव्य तनु धारी देवताओं को सम्भव नहीँ ।
प्राकृत रसना तृप्त अप्राकृत रस अर्थात् भगवत् नाम से ही हो सकती है परन्तु प्राकृत स्वरूप विस्मृति न होने से वह नाम को पीकर तृप्त नही हो सकती ।
आहार रोकने पर रसेन्द्रीय अधिक बलवान होगी , यह उसकी शक्ति साधक और सिद्ध फिर भगवत् रस में लगा कर करते रहे है ।
सन्तों ने कृपा से सब सहजता की है , भगवत् प्रसाद द्वारा साधक को आहार त्याग की आवश्यकता नही , वह प्रसाद में भगवत् रस पान कर सकता है और आहार त्याग से रसना को और सामर्थ्य बनाने से बच सकता है , रसना का अति सामर्थ्य तो वास्तविक रसिक के लिये सुंदर है । विषयी जीव तो और विषयी होते है जैसे उपवास में हमारी स्थिति होती है कुछ विराम पर रसना अधिक सामर्थ्यवान हो और आहार रस पीने लगती है ।
वास्तविक रस भगवत् नाम है , जिसे पीकर ही रसना सन्तुष्ट हो सकती है । यह बात कलयुग का भोग जगत धीरे धीरे मानेगा क्योंकि अति भोग से इंद्रिय और मन की अतृप्ति बढ़ती है जिससे वह सर्व भोग को निसार जान सार रस से अपार आनन्द पाकर आंतरिक तृप्ति का अनुभव करेगा । अतः कलयुग भगवतनाम में डूबने की समर्थता रखता है अतिभोग विकार को सत्य भोग रस में बदलने की क्षमता से  । "तृषित" जयजय श्यामाश्याम ।

बरसाने के गह्वर वन की महिमा

🍁श्री राधा अमृत कथा🍁

☘🌹श्री बरसाने का गहवर वन की महिमा☘🌹

पवनदेव स्वयं को बड़भागी समझते हैं क्योंकि दो [एक ही] दिव्य-देहधारियों की सुवास को वह माध्यम रुप से बरसाने और नन्दगाँव के मध्य वितरित कर पाते हैं।

🌹 राजकुँवरी श्रीवृषभानु-नन्दिनी संध्या समय अपनी दोनों अनन्य सखियों श्रीललिताजू और विशाखाजू के साथ अपने प्रिय गहवर-वन में विहार हेतु महल से निकल रही हैं।
🌹☘श्रीजू की शोभा का वर्णन तो दिव्य नेत्रों द्वारा निहारकर भी नहीं किया जा सकता। अनुपम दिव्य श्रृंगार है। बड़े घेर का लहँगा है जिसमें सोने के तारों से हीरे-मोती और पन्ने जड़े हुए हैं। संध्या समय के सूर्य की लालिमा की किरणें पड़ने से उसमें से ऐसी दिव्य आभा निकल रही है कि उस आभा के कारण भी श्रीजू के मुख की ओर देखना संभव नहीं हो पाता।

🌹☘संभव है नन्दनन्दन स्वयं भी न चाहते हों ! गहवर-वन को श्रीप्रियाजू ने स्वयं अपने हाथों से लगाया है, सींचा है; वहाँ के प्रत्येक लता-गुल्मों को उनके श्रीकर-पल्लव का स्पर्श मिला है सो वे हर ऋतु में फ़ल-फ़ूल और सुवास से भरे रहते हैं। खग-मृगों और शुक-सारिकाओं को भी श्रीगहवर वन में वास का सौभाग्य मिला है। मंद-मंद समीर बहता रहता है और शुक-सारिकाओं का कलरव एक अदभुत संगीत की सृष्टि करता रहता है। महल से एक सुन्दर पगडंडी गहवर वन को जाती है जिस पर समीप के लता-गुल्म पुष्पों की वर्षा करते रहते हैं। न जाने स्वामिनी कब पधारें और उनके श्रीचरणों में पर्वत- श्रृंखला की कठोर भूमि पर पग रखने से व्यथा न हो जाये !
🌹☘सो वह पगडंडी सब समय पुष्पों से आच्छादित रहती है। पुष्पों की दिव्य सुगंध, वन की हरीतिमा और पक्षियों का कलरव एक दिव्य-लोक की सृष्टि करते हैं। हाँ, दिव्य ही तो ! जागतिक हो भी कैसे सकता है? परम तत्व कृपा कर प्रकट हुआ है।
उस पगडंडी पर दिव्य-लता के पीछे एक "चोर" प्रतीक्षारत है। दर्शन की अभिलाषा लिये ! महल से प्रतिक्षण समीप आती सुवास संकेत दे रही है कि आराध्या निरन्तर समीप आ रही हैं। नेत्रों की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही है;

🌹☘बार-बार वे उझककर देखते हैं कि कहीं दिख जायें और फ़िर छिप जाते हैं कि कहीं वे देख न लें !

🌹☘श्रीजू महल की बारादरी से निकल अब पगडंडी पर अपना प्रथम पग रखने वाली हैं कि चोर का धैर्य छूट गया और वे दोनों घुटनों के बल पगडंडी पर बैठ गये और अपने दोनों कर-पल्लवों को आगे बढ़ा दिया है ताकि श्रीजू अपने श्रीचरणों का भूमि पर स्पर्श करने से पहले उनके कर-कमल को सेवा का अवसर दें। हे देव ! यह क्या? अचकचा गयीं श्रीप्रियाजू ! एक पग बारादरी में है और एक पग भूमि से ऊपर ! न रखते बनता है और न पीछे हटते !

🌹☘ "ललिते ! देख इन्हें ! यह न मानेंगे !" श्रीप्रियाजू ने ललिताजू के काँधे का आश्रय ले लिया है और लजाकर आँचल की ओट कर ली है। अपने प्राण-प्रियतम की इस लीला पर लजा भी रही हैं और गर्वित भी ! ऐसा कौन? परम तत्व ही ऐसा कर सकता है और कौन? श्रीललिताजू और श्रीविशाखाजू मुस्करा रही हैं; दिव्य लीलाओं के दर्शन का सौभाग्य जो मिला है !

🌹☘नन्दनन्दन अधीर हो उठे हैं और अब वे साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं अपनी आराध्या को। विनय कर रहे हैं कि श्रीजू के श्रीचरणों के स्पर्श का सौभाग्य उनके कर-पल्लव और मस्तक को मिले ! श्रीजू अभी भी एक पग पर ही ललिताजू के काँधे का अवलम्बन लिये खड़ी हैं और सम्पूर्ण गहवर-वन गूँज रहा है - "....स्मर गरल खण्डनम मम शिरसि मण्ड्नम। देहि पदपल्लवमुदारम।"
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जय जय श्री राधे !


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श्री राधा अमृत कथा 🌺🙌🏻🌺

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श्री राधा रानी जी दिव्य प्रेम
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एक बार श्याम सुंदर निकुंज में लहराते हुए मुरली हाथ लिए क़दमब की डालो पर झूला झूलते, अपने सारे वस्त्रों और केश को छिनभिन कर भानूनंदिनी के पास आए

जैसे ही श्यामसुंदर आए, स्वामिनी आधीर हो गयी मिलने के लिए
परंतु

तभी स्वामिनी ने श्यामसुंदर के केश छिनभिन देखे और उनके सर पर कुंकुम पराग लगा देखा तो स्वामिनी भौए चढ़ाय बोली

" कहाँ से आए हो महाराज"
कुंकुम सौरभ किस गोपी का सर पे सजाया आज"

श्याम सुंदर डर जाते है

कोई बताएगा श्याम सुंदर उसका क्या उत्तर देते है

श्याम सुंदर मुस्कुरा के कहते है " रानी आप को स्वयं याद नहीं है आज सेवा कुंज में हमने आपके चरण की जब सेवा की थीं तब आपके चरण हमने अपने माथे पर रख लिए थे तब आपके चरण का कुंकुम सौरभ हमारे माथे पर लग गया

स्वामिनी मुस्कुरा पड़ी

ऐसा श्री राधा भाव में होता है " स्वामिनी श्री कृष्ण भाव में इतनी तलींन रहती है के उनको एक पल पहले अपने द्वारा हुई स्वयम् की माला श्री कृष्ण को उन्हें भ्रम में डाल देती है

यह है श्री राधा प्रेम ... एक एक पल में कृष्ण प्रेम श्री राधा ज़ू के चित में बड़ता रहता है

श्री राधा ज़ू का कृष्ण प्रेम मादनख्या महाभाव है अत्यंत ऊचतम प्रेम
ब्रज के कण कण का एक ही लक्ष्य है
" श्री कृष्ण को सुख प्रदान करना" 
श्री कृष्ण केवल प्रेम से ही सुखी होते है, प्रेम ही उनके सुख का कारण है

तब जिसमें जितना प्रेम होगा वो कृष्ण को उतना ही सुखी करेगा
समझ आ गया ...

अब ब्रज की लता पता फूल पशु पक्षी सब कृष्ण को प्रेम देते है और उन्हें सुखी करते है परंतु किसी में इतना प्रेम नहीं
जो ब्रज गोपी में हो..
ब्रज गोपियाँ श्री कृष्ण को अत्यंत प्रेम करती है तब उन्हें अत्यंत सुख देती है
गोपी जैसा प्रेम कहीं नहीं है तभी कृष्ण गोपी के ऋणी रहते है

ब्रज की कोई भी गोपी हो सब कृष्ण को ऊँचकोटि का प्रेम प्रदान कर सुखी करती है
लेकिन

श्री राधा सब गोपियों में प्रधान है तब सबसे अधिक प्रेम राधा के पास है जो किसी गोपी के पास नहीं है ...

इसका अर्थ श्री राधा ही कृष्ण की सबसे अधिक सुख देती होगी
हाँजि ... जितना प्रेम अधिक, उतना कृष्ण सुखी
राधा प्रेम अत्यंत उच्चतम स्तर का है तभी कृष्ण राधा से अत्यंत सुखी रहते है और राधा उनका प्राण और अभिन्न अंग है

तब श्याम को ब्रज की कोई भी गोपी क्यूँ ना prem करे , राधा जानती है सबसे अधिक सुख तो हमसे ही उन्हें मिल सकता है
और श्याम भी यह जानते है

श्री राधा रानी की जय होोो 🌺🙌🏻🌺

श्री राधा 👣🌹🙇🏼