Wednesday, 13 January 2016

माया कौं सब जग भजै । भगवत् रसिक

माया या मायापति ....

माया कौं सब जग भजै, माधौ भजै न कोई ।
जो कदापि माधौ भजै, माया चेरी होइ ।।
माया चेरी होइ, रहै चरनन लपटानी ।
ज्यों मलयज के संग, सहज सौरभ सुखदानी ।।
भगवत रसिक अनन्य, होय सतगुरु की दाया ।
माधौ सौं मन लगे, मोह-मद छूटै माया ।।

संसार माया की उपासना में लगा है (और बहाना करता है मायापति के भजन का) कोई भी वस्तुतः मायापति का भजन नहीँ करता । यदि कहीँ मायापति का भजन वास्तव में बन जाय, तो माया सहज ही उसकी आज्ञाकारिणी चेरी बन जाती है और उसके चरणों में वैसे ही लिपटी फिरती है, जैसे मलयज (चन्दन) के साथ सुखद सौरभ । भगवतरसिक जी कहते हैं कि जिस साधक पर सद्गुरु (स्वामी श्रीहरिदास जी महाराज) की सच्ची कृपा हो जाती है, वह अनन्य रसिक हो जाता है, उसका मन श्रीहरि में सहज ही लग जाता है तथा मोह, मद और माया उससे अनायास ही छूट जाते हैं । सत्यजीत तृषित । पुनः विचार करना चाहिए , क्या वास्तव में गोवन्द चाहिए या गोविन्द की माया , आखिर हम उनसे मांगते क्या है माया ही तो चाह कर लौट आते है । जय जय श्यामाश्याम ।

No comments:

Post a Comment