लखी जिन लाल की मुसक्यान ।
तीनहिं बिसरी बेद-बिधि, जप, जोग, संजम, ध्यान ।।
नैंम, ब्रत, आचार, पूजा पाठ, गीता-ज्ञान ।
रसिक भगवत दृग दई असि, ऐंचि कैं मुख म्यान ।।
अर्थ तो स्पष्ट ही है , जिस-जिस ने श्रीलालजी की मुस्कान देख ली है, उस-उसको वेद-विधि, जप, योग, संयम, ध्यान, नियम, व्रत, आचार, पूजा, पाठ और गीता का ज्ञान सब कुछ गया है। भगवतरसिकजी कहते हैं कि रसिक लालजी ने यही मुस्कान-रूपी तलवार मुख-रूपी म्यान से निकालकर हमारे नेत्रों में (ऐसी) मार दी है (कि अब यें इस मुस्कान को देखते रहने के अलावा और किसी काम के नहीं रह गये हैं) ।
यहाँ से भक्ति शुरू होती है , इससे पहले केवल प्रयास थे । सटीक निशाना अब लगा , पर यें मुस्कान भी तो कृपा से ही सुलभ है । वरन् नाना विधि से सामीप्यता को आभास कर भी , मुस्कान नहीँ दिखी । यहाँ समस्त साधन व्यर्थ नहीं , कुछ छोड़ना भी नहीँ , हाँ पर ऐसा घटे तो प्रयास से भी प्रयास सम्भव ना होंगे । वो प्रेमी जिसके लिए लाल जी प्रगट ही हो गए है , जैसे ही शास्त्र आदि की ओर जाएगा , लाल जी कहेंगे अब क्या खोज रहे हो ? हम कहें कि भगवान को जानने का प्रयास , वो कहेंगे मैं तो सन्मुख ही हूँ , देख लो , जान लो , छु लो , मान लो । जी आपको देख लिया , पर फिर भी कैसे हो इसे कहने के श्लोक देख रहा हूँ , ऐसा सम्भव नहीँ । अग़र मुस्कान दिख गई । वो मिल ही गए तो प्रीत का ज्वर कभी कुछ करने ही नहीँ देगा । यहाँ कभी तीव्र बुखार सी स्थितियाँ , कभी सब बिल्कुल ठण्डा । जो करना है वो हो ना सकेगा । यहाँ अपने नित नेम जान कर नहीँ छोड़े जा रहे , छुट रहे है और इस से विलाप भी बढेगा कि ऐसी स्थिति आ गई कि सारा संसार सिमट गया एक लाल जी की मुस्कान ही शेष रही है । सब कुछ छोड़ने का कलेजा हो तो ही भक्ति पथ खुलता है और प्रीत के नए नए रंग साक्षात् हो जाते है । अचरज होता है खुद पर जब आप घण्टों फूलों से , हवाओ से , आसमां से बतियाने लगते हो । या मन ही मन कुछ अजीब सी बातें करते रहते हो । कोई संग भी ना हो तो भी मुस्कुराते हो , और संग में , महफ़िलों में उदास हो जाते हो । ....सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम
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