Saturday, 16 January 2016

माधुर्य कादम्बिनी 1

जय राधागोविन्द
#माधुर्य-कादम्बिनी#
(8). अष्टम्यमृतवृष्टि:
(6). सौरस्य और औदार्यका विस्तार:-
पीयूषवर्षिणी-वृत्ति:-
Part (8.6.3)

श्रीभगवान् भक्तोंकी चतुर्थ मूर्च्छाके प्रारंभमें अपने पंचम माधुर्य सौरस्य या अधरामृतको भक्तोंकी रसनेंद्रियमें प्रकट करते हैं। दास्यादि भाववाले भक्तोंको अपना प्रसाद या चबाए हुए पान बीडीको दानकर, मधुररस या प्रेयसी भाववाले भक्तोंको उनके स्वभिलाषी भावसे ही इस माधुरीका आस्वादन कराते हैं। उस माधुर्यके अनुभवसे अत्यधिक आनंदके कारण प्रगाढ़ मूर्च्छा प्राप्त होनेपर श्रीभगवान् उस मूर्च्छाको दूर करनेके लिए और कोई भी उपाय न देखकर अपने छठवें माधुर्य औदार्यको प्रकटकर एक ही साथ अपने सौन्दर्य, सौरभ्य, सौस्वर्य, सौकुमार्य और सौरस्यको भक्तोंके नेत्र, कर्ण, नासिका आदि पंचेन्द्रियोंके गोचरीभुत कर देते हैं।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि एक समयमें किसी भक्तके लिए एक ही माधुर्यका आस्वादन करना संभव है, एक ही साथ एक ही मनके द्वारा पंचेन्द्रियोंके पाँच प्रकारके माधुर्योंको आस्वादन कैसे सम्भवपर हो सकता है?

जय राधागोविन्द
#माधुर्य-कादम्बिनी#
(8). अष्टम्यमृतवृष्टि:
(6). सौरस्य और औदार्यका विस्तार:-
पीयूषवर्षिणी-वृत्ति:-
Part (8.6.4)

इसके उत्तरमें कह रहे हैं, भगवान् का इशारा पाते ही भक्तका प्रेम अत्यंत अधिक बढ़ जाता है एवं प्रेमसे उत्पन्न तृष्णा या उत्कंठाको भी अत्यधिक वर्धितकर, जिस प्रकार चन्द्रके उदयसे समुद्र अत्यंत उच्छवसित और आलोड़ित होता है अर्थात उसमें नाना प्रकारकी तरंगे आदि उठने लगती हैं, उसी प्रकारसे भक्तोंके आनन्दसिन्धुको उच्छवसित और आलोडितकर भक्तोंके अन्दरमें एक ऐसी शक्तिका विस्तार करते हैं, जिससे भगवद्भक्त एक ही साथ पन्चेन्द्रियोंके द्वारा श्रीभगवानकी पाँच प्रकारके माधुर्योंका आस्वादन करनेमें असमर्थ होता है।
इस प्रकारका संदेह करना भी अनुचित है कि एक समयमें मन एक ही विषयमें एकाग्र हो सकता है। एक ही साथ पाँच प्रकारके माधुर्यका आस्वादन करनेके लिए मनको पाँच और अभिनिविष्ट होना पड़ेगा। इससे किसी भी इन्द्रियके आस्वादनकी प्रगाढ़ता संभवपर नहीं हो सकती। वस्तुतः श्रीभगवान् अपनी अचिन्त्यशक्तिके बलसे पूर्वकी भांती भक्तोंकी इन्द्रियोंको युगपत, नयनीभाव, श्रवणीभाव आदि प्राप्त कराकर पाँच प्रकारके माधुर्योंको गाढ़रूपसे आस्वादन करनेकी शक्ति प्रदान करते हैं, अर्थात श्रीभगवान् की अचिन्त्यशक्तिके प्रभावसे भक्त एक ही साथ अपनी पंचेंद्रियोंके द्वारा भगवान् के पाँच प्रकारके माधुर्योंको प्रगाढ़रूपमें आस्वादन करता है। इसमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं है। ये सब अलौकिक विषय लौकिक युक्ति और तर्कके द्वारा गोचर नहीं होते।

कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्ता-
मृते पशनूसतीं नाम कुर्यात्।
पश्यन् जनं पतितं वैतरण्यां
स्वकर्मजान् परितापान् जुषाणम्।।
पशु अर्थात् कर्मजड़व्यक्तिके अतिरिक्त ऐसा कौन व्यक्ति है जो इस
प्रसिद्ध भक्तिका अनादर करके अनित्य एवं असत्य विषयोंकी चिन्तामें
फँसेगा? जो व्यक्ति विषयोंमें रमा रहता है, उसे यमके द्वारपर स्थित
वैतरणी नदीमें गिरना पड़ता है और अपने कर्मोंसे उत्पन्न त्रितापोंका
भोग करना पड़ता है। यह देखकर भी पशुओंको छोड़कर दूसरा कौन
अपने चित्तको परमात्मा श्रीहरिकी धारणाका अनादर करके विषय-भोगोंमें भटकने देगा।।

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