ऋतु भावोद्रेक लीला
ऋतु परिवर्तन के अनुसार भाव परिवर्तन हुआ , भावों के साथ-साथ भंगिमाओं ने नव-नव श्रृंगार किया , ...... चपल चेष्टाओं में गाम्भीर्य-विशेष का समावेश हो गया । ..............कोई किसी से कुछ न कहती , पर उनकी उसाँस हृदय की बात को प्रकट कर ही देती । चलते-चलते बजते मंजीर क्षण भर को ठिठक मूक हो जाते , पर हृदय की धड़कनों का राग उनकी स्पंदित उरस्थली को मुखरित कर देता । सिर पर रक्खे कलश छलक-छलक पड़ते, मानों उनकी सरस कामनाएँ ........उमड़-उमड़ कर अपनी अतृप्ति का निदान चाहती हो ........ वें चौंक उठतीं , विभ्रम में पड़ी सम्भ्रम पूर्वक वे पीछे की ओर देखतीं । नेत्र दूर-दूर तक अपने ....... राग की राशि साँवर सुकुमार को खोजते । वे न दीखते तो यह विषण्ण वदन सी , धीरे-धीरे पग धरती हुई बढ़ने लगतीं और अपनी प्रेयसियोँ का प्रिय करने में परम निष्णात प्रणय-प्रवीण प्रियतम किसी झुरमुट में से मुस्कराते चले आते । उनके उर अंतर में भी नव-नव भावनाओं के नव-नव अँकुर लहलहा रहे थे । इन सुंदरियों के सुराग पूर्ण चितवन सलिल से उनमें नवल प्राण भर जाते और इनकी सुहास पूर्ण अवलोकन से उद्दीप्त कामनाओं के वेग को संभालने में असमर्थ वे सुकुमारी किशोरियाँ ........ ।
ऐसे ही दिवस रात्रियों में प्रियतम ने अपनी इन प्रियाओं को कुछ संकेत दिया । संकेत-सुजान सुंदरियों ने उसे समझा । उनके अलसाए मन प्राणों में नवस्फूर्ति का सञ्चार हुआ । वे आशाभरित हृदय से अपनी नव-नव उमंगों को सहलाती सी, समझाती सी समय की प्रतीक्षा करने लगीं और प्राण-रमण प्रियतम अपनी कामनाओं की कुरेदना से उनकी कामनाओं को उभार , किसी नव-कौतुक की अदम्य चाह लिए बाट जोहने लगे ।
विमल चाँदनी में सम्पूर्ण वन-प्रदेश नहा गया । लतिकाओं ने श्वेत प्रसूनों का उपहार दे वन्य वसुंधरा को अलंकृत कर दिया । झूमते पादपों ने किसी मस्ती का सञ्चार कर वातावरण में .......... मदिरासव उड़ेल दिया । शीतल समीर के मन्द-मन्द झोंकों ने प्रणयगाथा आरम्भ की ....... । कलिकाएँ सकुचाई सी सिहर उठीं । ..... ..... नव पल्लव दल कुछ कहते से पुलक उठे .......... और तभी .......... मनोज मोहन .......... मनहर सज्जा से विभूषित .......... अपनी प्रियतमा श्रीराधिका को पार्श्व में लिए उस वनस्थली में प्रविष्ट हुए । उन गोपसुंदरियों को भी यहीँ का संकेत मिला था । वे पहिले से ही इधर के झुरमुटों में आ छिपी थी । पता नहीँ क्यों वें इकट्ठी नहीँ बैठीं , एक दूसरे के सामने प्रकट भी नहीँ हुईं ।
उधर इन रागानुरंजित युगल ने प्रवेश किया। इनकी रही सही चेतना भी ना जाने कहाँ चली गई । क्या पता कब तक वे योँ ही बेसुध सी रहीं । हाँ , सहसा ही उनकी चेतना लौट आई । उनहोंने देखा कि उन-उन के पास प्राणाराम प्रियतम , किसी नव प्रणय सजगता का सञ्चार कर उन्हें मदोन्मत्त कर रहे हैं । प्रिय के अंगों से झरती प्रणय की सुरभित मधुधारा में सिक्त वे .......... सुकुमारी बालाएँ रोमांचित हो गईं , मानों रोम-रोम ने कर पसार और रसयाचना की हो । प्रियतम के सुनील सुन्दर कलेवर में आज न जाने कितना .......... रसोद्रेक था , कि वे अपने को सम्भाल पाने में असमर्थ हो गए । फिर संयम का बांध कहाँ टिकता । दोनों ओर रसक्षोभ पूरित भावनाएँ कामनाएँ मचल रही थीं .......... । अंग प्रत्यंग का सञ्चालन परस्पर की मचलन को सम्भाल रहा था । .......... ओह ! वह सम्भाल .......... वह बिखरन .......... वह रोक थाम .......... वह मचलन ..............व............ह.......। युगल की प्रेममयी ऊषा । सत्यजीत तृषित ।
यहाँ तक बार-बार पढ़े , यें लीला है । केवल पाठक नहीँ , प्यासे बन कर पिये । अतः पीते रहे । जब तक व .... ह .... के आगे क्रम भीतर सजीव हिलोरें ना लें । जब तक मचलन अनुभव ना हो ....फिर संभाल ....बिखरन .... रोकथाम ....फिर मचलन ....सजीव ना हो उठे । तब यहाँ हुआ नयन झरता पूर्ण विराम जीवंत मचल उठेगा । यहाँ भाषा बड़ी सुंदर और मोहनी है , असुविधा हो तो बार बार के मनन से सहज हो उठेगी , भाव रस जितना उमड़ता है , जहाँ तक जाता है , वहाँ तक की स्थितियां कही नही जा सकती । वहाँ केवल एक अनन्त तक फैली मूकता ही है । आकाश सी खामोश । अतः जितनी रस बौछारें भगवत्कृपा से रसीली गगरी से छलकी है , उसमें भगवत् विधान ही निहित है , अपने पिपासुओं के लिए । नित्य नव लीला , यें ही तो ह्लादिनी की शक्ति है । चित् में लीला रस सागर का उमड़ना युगलसरकार की अनन्त कृपा है इतना इसलिए कहा कि पूर्व में किन्हीं प्यासी कठपुतलियों में रस में थिरकने की चाह हुई । उन्हें लीला रस के ऐसे कुछ भाव भगवत्कृपा से मिले तो बहुत शीघ्र लिख दिया nice.... । इन लम्हों को जीना कृपा है , अग़र ऐसी कृपा हम तक सहज हो तब भी ऐसे दर्शन भीतर ना बने तो अभी हममें लालसा की बहुत कमी है । सरकार ने तो पुकार लिया .... अपना रस का नाद छेड ही दिया , किसी भी माध्यम से दुर्लभ भाव रस सहज भी हुआ , कारण कृपा अतः वें तो प्रेम निमन्त्रण दे ही चुके है , सदा की तरह जीव ही उज्ज्वल रस की वांछा के अभाव में वस्तु सुख में ही तृप्त है , क्षमा, जयजय श्यामाश्याम सत्यजीत तृषित ।
No comments:
Post a Comment