Wednesday, 27 January 2016

अष्ट दल और महाभाव

अष्टदल और महाभाव --

जय जय राधेश्याम जी ।
आप सब जानते ही है , भक्ति जीव की शक्ति नहीँ , ह्लादिनी शक्ति की एक विशेष वृति है । ह्लादिनी शक्ति महाभावस्वरूपा है ( श्री किशोरी जु) । इसलिये शुद्ध भक्ति स्वरूप से महाभाव का अंश है । भावरूपा भक्ति (भाव जगत हेतु) साधन या कृपा , कैसे भी मिलें वस्तुतः महाभाव से ही स्फुरित होती है । साधन मूल में शरण होने पर भी ,स्वप्रयास से भी होने पर भक्ति जीव का स्वभाव धर्म नहीँ है, ह्लादिनी शक्ति की वृति होने के कारण स्वरूप शक्ति के विलास तथा भगवत्स्वरूप के साथ सन्शिलष्ट है । जीव कर्म से भाव नहीँ पा सकता ,क्योंकि स्वरूप से भावमय नहीँ है । कर्म करते करते भाव जगत से उसमें भाव का अनुप्रवेश हुआ करता है । भाव का विस्तार फिर कभी ,
दो भाव होते है स्थायी और संचारी । संचारी भाव आविर्भूत होकर कार्य करके तिरोहित हो जाता है । अर्थात् किसी विशेष समय आया और चला गया , कुछ देर पहले भाव जगत में रो लिए , फिर संसार में हो गए , यें संचारी है । संचारी भाव रसास्वादन नहीँ हो सकता , रस पीया नहीँ जाता । परन्तु स्थायी भाव में रसास्वादन करना सम्भव है । संचारी भाव भावदेह प्राप्त करने के पहले भी जीव हृदय में कार्य करता रहता है , परन्तु वह बिजशक्तिसम्पन्न नहीँ होता , इसलिए उसमें फलोद्गम की सम्भावना नहीँ होती ।
वास्तविक भक्त वही है , जो भाव की संचारी अवस्था से स्थायी अवस्था में पहुँच सकता है । और स्थायी भाव के लिए ही भक्तगण नाम और मन्त्रसाधन करते है ।
स्थायी भाव ही भावदेह का दुसरा नाम है । भाव के विकास के साथ साथ हृदय में प्रवेश प्राप्त होता है । यह अन्तरंग हृदयकमल में अष्टदल से विभूषित है , अष्ट दल ही हम अष्ट सखियाँ कहते है । और अष्ट दल का सार मूल बिन्दु है वहीँ महाभाव है । मूल बिंदु से ही आठ कलिकाएँ खिली है । प्रत्येक भाव का पूर्ण विकास महाभाव है । प्रत्येक कलिका का स्रोत्र महाभाव है । हृदय के अष्टदल कमल के स्फुटन में ज्ञानस्वरूप सूर्य मण्डल की और रस स्वरूप सरोवर की आवश्यकता है । इसे कामसरोवर भी कहते है , अष्टकमल पहले कलि की तरह है एक भाव है , फिर ज्ञान की किरण से कमल खिलता है और आठों भाव प्रगट होते है । काम सरोवर(कीचड़) में से रस लेकर धीरे धीरे पूर्ण विकसित हो अपनी नाल से भी छिन्न हो जाता है , तब भावजगत में प्रवेश पाता है , (तेज एक ही है , वही जगत में काम और प्रेम तथा योग तक जाता है , काम में ऊर्जा अधोगामी होती है , प्रेम में हृदय में पूर्ण और योग में सहस्रार चक्र तक उर्ध्वगामी)
वैसे हम स्थायी भाव की स्थिति पर नहीँ , परन्तु जितना सरल राधा रस को समझते है उस पर गौर कर ले , बस ।  सम्भवतः अधिक रसमय संचारी भाव पर है । मूल अष्ट दल से दूर वहाँ तक जाने के लिए समस्त अन्य भाव कलिकाओं से जाया जाएं ।
स्थायी भाव के दो क्रम है । हालांकि हम इतनी भी योग्यता नहीँ रखते हो , परन्तु मार्ग हमारे भी दो है , आवर्त क्रम और साक्षात् ।
आवर्त क्रम में सहस्र दल से सर्वोत्तम अष्ट दल तक एक एक भाव में होते होते महाभाव तक जाया जाता है । इस विधि से पूर्ण महाभाव प्राप्त होता है , पूर्णतम रस । सम्भवतः यें ही श्री कृष्ण की विधि है ,जिससे वह समस्त के प्रेमभावरस को स्वीकार करते हुए अपने भाव को गहरा करते हुए श्री जी तक जाते है । उनका लक्ष्य श्री जी ही है परन्तु श्री से सभी भाव मार्गियों में प्रेम प्रगट है अतः अपनी स्थिति से अष्ट दल की एक एक भाव को चढ़ते हुए महाभाव तक ।
दूसरा तरीका है अपनी स्थिति से सीधा महाभाव तक , सम्भवतः हमारा अब अधिक यें ही तरीका है । जहाँ है वही श्री जी प्रगट हो जाएं , कृपा कर दे ।
अग़र यें श्रीकृष्ण की भी विधि होती तो अन्य सखियों तक गोपियों तक वह रस वर्धन की भावना ना रख सब का त्याग कर सीधे श्रीजी तक जाते । परन्तु जिस मूल बिन्दु से सभी अष्ट दल और उनके भी अनुगामी दलों में रस है उस की पूर्णता जब ही समझी जायेगी जब प्रति दल (कणिका) का भाव अनुभूत् किया जाये ।
इस बात को सरल करते है , माता और उसकी आठ सन्तान है , माता प्रत्येक सन्तान की जननी है । इसलिए माँ की ममता तो सब में समान ही है , पर वह एक है सन्तान आठ । इस तरह उसका स्नेह प्रेम सभी को पूर्ण मिलते हुए भी आठ भागों में बँट गया । सन्तान की तो एक ही माँ है । सन्तान आठ में एक मानकर माँ के प्रेम को प्राप्त करना चाहे तो पूर्ण मातृप्रेम को नहीँ दर्शन कर सकेगा , इसके लिए आठ में एक मान कर एक एक सन्तान के भाव में स्वयं को पाना होगा । क्रमशः आठ भावन्तर कर स्वयं को पूर्ण अष्टम सन्तान में सभी और के रस को प्रस्फुटित करेगा । इस तरह पूर्ण माँ को पा सकेगा ।
दूसरे तरीके से सरल मार्ग से सीधा योगमाया आदि के द्वारा सीधे साक्षात् अपने स्थान से भी माँ को पा सकता है ।
योगमाया के इस पथ में स्वयं को अकेली सन्तान मान , माँ को भी अपने हेतु समझ पूर्ण प्रेम पा सकता है । इस धारा में माँ के स्नेह और प्यार में अन्य का भी भाव है ऐसा नहीँ लगता , अन्य सन्तान इस बात को नहीँ जानती । योगमाया के आच्छादन और सन्तान का यहाँ विचित्र सम्बन्ध और अनुषांगिक लीला प्रकाशित होती है । प्रत्येक सन्तान की व्यवस्था एक ही तरह की होती है और योगमाया के प्रभाव से अन्य को जानकारी नहीँ रहती । इस का विकास में समय लगता है ।
यहाँ और भी रहस्य है , जैसे क्रम गत मार्ग में अन्यभाव को अपने भाव पर चढ़ाया या स्वयं घुल कर नवीन रस बन गए ।
अपने ही भाव वृद्धि का क्रम है , महाभाव से सदा प्रेम रस प्रकाशित रहा , सभी के भाव मार्ग समान होने पर भी व्यक्तित्व की भिन्नता से रस का स्वाद अलग हुआ , इसमें अधिकतम रस स्वाद का समावेश होता जाएं तो नवीनता और नया रूप लेती रहती है । लेख यही अधूरा छोड़ रहे है , कभी श्री कृपा से प्रत्यक्ष , जितना लिखना सहज नहीँ उससे अधिक कहा जा सकता है । पूर्ण नहीँ , केवल कुछ सरल करते हुए अधिक । हाँ मूक स्थिति ना हो श्री कृपासे , वस्तुतः वह मौन लाख संवादों से प्रबल रस मय आवरण से आभूषित होने से , स्वतः सञ्चार करने लगता है ।
हम अष्ट सखियों से पूर्व कथित दासानुदास भाव को स्वीकार कर आगे सभी के भाव सागर में नमन कर आगे बढ़े तो रस में नवीनता होगी और श्री जी से सामीप्य भी । श्री कृष्ण के विषय में ऐसा ही है अतः वह खेंचते है ,और नव नव संग से स्वयं को और रसमय मानने का भान रखते है । वस्तुतः वह स्वयं रस मय है , उन्हें किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीँ , परन्तु वह सभी के सार स्वरूप को एकत्र कर एक पात्र में पीते है , इसकी पुष्टि उनके दुग्ध पान की विधि से है , जहाँ वह दस हज़ार गौ माँ का हज़ार को , हज़ार गौ का दूध 100 को , उन 100 का 10 को और 10 का 1 को पिलाने पर पिते थे । फिल्टर सिस्टम है यहाँ । ऐसा ही रस सिद्धान्त है , अतः भक्त हृदय की उपेक्षा किये जाने पर हम अपने ही रस के वर्धन को संकुचित करते है । महाभाव के विकास क्रम जारी है नित नव कलिकायें नव रस से जुड़ती है और महाभाव गहराता जाता है । अतः जगत को प्रेममय करने वाली महाभाव श्री राधा जु का कोई वर्णन नहीँ कर सकता , क्योंकि नित्य नव रस वर्धिनी , कृष्णाकर्षिणी , उज्ज्वल रस की विस्तार है । इस विषय की गम्भीरता पर और रसमयता पर कभी श्री जी कृपा से सत्संग रूप में भी प्रत्यक्ष करेंगे । कुछ सहज होगा , पूर्ण तो असम्भव है और अन्य अन्य भाव दर्शन से तृषित कुछ सामर्थ्य जुटा सकें , श्री जी के प्रेम कृपा कोर उज्ज्वल नेत्रों का । सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

Sunday, 24 January 2016

राधाकृष्णाष्टकम

राधाकृष्णाष्टकम ||

कृष्णप्रेममयी राधा, राधाप्रेममयो हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (१)

भवार्थ – श्री राधारानी भगवान श्रीकृष्णा में रमण करती है, और भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधारानी में रमण करते
इसलिए मेंरे जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा-कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

कृष्णस्य द्रविणं राधा राधायाः द्रविणं हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (२)

भवार्थ - भगवान श्रीकृष्णा की पूर्ण सम्पदा श्री राधा रानी है और श्रीराधारानी का पूर्ण धन भगवान श्रीकृष्ण है, इसलिए मेंरे जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा-कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

कृष्ण प्राणमयी राधा राधा प्राणमयो हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (३)

भवार्थ - भगवान श्रीकृष्णा के प्राण श्रीराधारानी के ह्रदय में बसते है और श्रीराधारानी के प्राण भगवान श्रीकृष्ण के ह्रदय में बसते है,  इसलिए मेंरे जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा-कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

कृष्ण द्रवामयी राधा राधाद द्रवामयो हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (४)

भवार्थ - भगवान श्री कृष्णा के नाम के नाम से श्री राधा रानी प्रसन्न होती है और श्री राधा रानी के नाम से भगवान श्री कृष्णा आनंदित होते है,
इसलिए मेंरे जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा- कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

कृष्ण गेहे स्थिता राधा राधा गेहे स्थितो हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (५)

भवार्थ - श्री राधारानी भगवान के शरीर में रहती है और भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के शरीर में रहते है, इसलिए मेंरे जीवन
का प्रत्येक क्षण श्रीराधा- कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

कृष्ण चित्त स्थिता राधा राधा चित्स्थितो हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (6)

भवार्थ - श्रीराधारानी के मन में भगवान श्रीकृष्ण विराजते है और भगवान श्रीकृष्ण के मन में श्रीराधारानी विराजती है,इसलिए मेंरे जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा-कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

नीलाम्बर धारा राधा पीताम्बर धरो हरि :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (7)

भवार्थ - श्रीराधारानी नीलवर्ण के वस्त्र धारण करती है और भगवान श्रीकृष्ण पीतवर्ण के वस्त्र धारण करते है, इसलिए मेंरेजीवन का प्रत्येक क्षण श्रीराधा-कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.

वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वर :
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिमर्म (8 )

भवार्थ - श्रीराधारानी वृंदावन की स्वामिनी है और भगवान श्री कृष्ण वृंदावन के स्वामी है, इसलिए मेंरे जीवन का प्रत्येक क्षण
श्रीराधा-कृष्णा के आश्रय में व्यतीत हो.
        
         “जय जय श्री राधे”

Saturday, 23 January 2016

शारी शुक संवाद

शारी-शुक का वर्णन....

कब वह शुभ दिन आएगा जब मै गुणमंजरी के पीछे-पीछे निकुंज में प्रवेश करूँगी?

नागर और नागरी लीला के परिश्रम से थक कर सोए रहेंगे, उनका दर्शन करके मेरा हृदय तृप्त होगा।

मैं श्री रूप मंजरी का इशारा पाकर उनकी चरण सेवा करूँगी।

युगल सरकार शेज से उठकर पलंग पर बैठेंगे, उनके चरण धरती पर होंगे।
मैं सुवासित जल लाकर उनके सुंदर मुख धुलाऊँगी, और फिर आनंद से पोछूँगी।

एक छोटी झारी में कर्पूर से सुंगंधित जल लाकर दूँगी, दोनों उस जल को पान करेंगे।

दोनों के मुख में कर्पूर और तांबूल दूँगी।

हाय, कब ऐसा दिन आएगा...?

फिर वे दोनों मदन सुखदा की उत्तर में, जहाँ मालती पेड़, उसकी छाया में जाकर बैठेंगे, उनके साथ प्रिय सखियाँ भी होंगी।

वृंदा बड़े आनंद से दोनों के हाथों में शुक और शारी को लेकर सौंप देगी।
वे दोनों शुक-शारी को तरह तरह की कविताएँ सिखाएँगे, मस्ती भरी बातें सिखाएँगे।

कब वह दिन आए जब कृष्णदासी उस शारी और शुक का कथामृत वार्ता पान करेगी?

अहा, श्री युगल सरकार, जल्दी से मेरी अभिलाषा पूरी करो।

शारी-शुक संवाद....

शुक कहता है :- "शारी, ध्यान देकर मेरे प्रभु के गुण सुनो, इन तीनों जगत में जितने भी गुणवान हैं, मेरे प्रभु से कम हैं।

इन तीनों जगत में जितनी भी युवतियाँ हैं, श्याम सबके चित्त हरण करते हैं।

खास करके गोकुल की युवतियों के दिल, यहाँ की युवतियाँ तो उनके पीछे दीवानी हैं।

श्यामसुंदर का सौंदर्य तो इनके प्रेम भाव को बहुत ज़्यादा भड़काता है।
वे मदन-ज्वर से पीड़ित होकर श्याम का भजन शुरू कर देती हैं।

उनका रूप तो ऐसा है, कि वे करोड़ों काम देव को जीत लें, इसीलिए तो उनका नाम मदन मोहन है...!"

शुक की बातें सुनकर शारी हँसने लगती है।

शारी कहती है :- "हाँ हाँ, वह तो तभी तक मदन मोहन है जब तक उसकी बाँई तरफ प्यारी रहती हैं।

एक दिन मेरी प्राणेश्वरी रासलीला के वक्त छुप गयी थी, तब तुम्हारे ये “मदन मोहन” नाम धरने के लायक नहीं रहे थे...।"

शारी की बातें सुनकर नागर भी हँस पड़ते हैं।

गुण मंजरी हँसकर कहती है:- “हाँ शारी, अच्छी कही...!”

अब शारी कहती है :- “अभी मेरी ईश्वरी के गुण सुनो जिनपर तुम्हारे मदन मोहन न्यौछावर जाते हैं।“

शारी गाने लगती है :- “ मेरी राधारानी का रंग सोने जैसा है और कुमकुम का भी गर्व हर लेता है।

उनकी अंग-कांति बड़ी सुंदर है, उन्हें आप देखेंगे तो गोरोचना की निंदा करेंगे।
उनकी अंग का गंध कर्पूर, अगुरू और जितनी भी खुशबूदार वस्तुएँ हैं, उन सबको हरा देगी।

ये श्याम सुंदर तो राधा के पुजारी हैं, वे तो हमेशा राधाराणी के रूप एवं गुण की वंदना करते रहते हैं।

अनंत ब्रह्मांड में जितनी भी लक्ष्मियाँ हैं, वे सब राधा के चरण के एक नख की बराबरी नहीं कर सकती।

प्रियाजी उल्लास के साथ हमेशा कृष्ण संग की अभिलाषा करती रहती है, इसीलिए तो वह नीलाम्बर पहनती है।

सूरज जो कमल का मित्र कहलाता है, वह भी खूबसूरत राधाराणी की आराधना करता है।

राधाराणी सुकुमारी है और अति सुमाधूरीमय है।

जीतनी भी स्निग्ध वस्तुएँ हैं, जैसे, चंदन, उत्पल, चंद्र और कर्पूर, उनकी स्निग्धता राधा ठाकुराणी राधाराणी के सामने कुछ भी नहीं है।

श्यामसुंदर को खुद का स्पर्श देकर, वे उनकी कामना को बुझाती है, सुवदनी राधा हमेशा श्री कृष्ण को सुखी करती है।

रमादेवी, जो सती-शिरोमणि कहलातीं हैं, वे भी राधाराणी के सामने कुछ भी नहीं है।
उनका रूप और यौवन, राधाराणी के रूप और नव यौवन की तुलना में कुछ भी नहीं हैं।

रास नृत्य में सबसे ज़्यादा पटु वे ही हैं, संगीत कला और नर्म कला मे भी सुपंडिता हैं।

प्रेम ही उनका रूप, गुण और वेष है, वे सद्गुणों की खान हैं और पूरे विश्व में वंदनीया हैं।

सभी गोपियों मे राधाराणी ही श्रेष्ठ हैं।

उनके विविध भाव ही उनके अलंकार हैं, उनके सुंदर सुंदर भाव, जैसे कि:- स्वेद, कंप , अश्रु, मर्ष, हर्ष, गद्गद और वाम्य, इन सभी भावों से वह सजी हुईं होती हैं।

राधाराणी श्याम सुंदर के नेत्रों को तृप्त करती हैं।"

शारी के वचनों को सुनकर, राधाराणी बहुत आनंदित होती हैं और वे शुक-शारी दोनों को बड़े प्यार से सहलाती है।

प्रेम साधना पथ में भाई जी पद

प्रेम साधना पथ के लिए भाई जी का पद --

प्रथम साधना है इसकी-इन्द्रिय-भोगों का मन से त्याग।
हरिकी प्रीति बढ़ानेवाले सत्कर्मोंमें अति अनुराग॥
कठिन काम वासना-पापका करके पूरी तरह विनाश।
दभ-दर्प, अभिमान-लोभ-मद, क्रएध-मान का करके नाश॥
परचर्चाका परित्याग कर, विषयोंका तज सब अभिलाष।
मधुमय चिन्तन नाम-रूपका, मनमें प्रभुपर दृढ़ विश्वास॥
हरि-गुण-श्रवण, मनन लीलाका, लीला-रसमें रति निष्काम।
प्रियतम-भाव सदा मोहनमें, प्रेम-कामना शुचि, अभिराम॥
सर्व-समर्पण करके हरिको, भोग-मोक्षका करके त्याग।
हरिके सुखमें ही सुख सारा, हरिचरणोंमें ही अनुराग॥
भोग-मोक्ष-रुचि-रहित परम जो अन्तरंग हरिप्रेमी संत।
उनका विमल सङङ्ग, उनकी ही रुचिमें निज रुचिका कर अन्त॥
पावन प्रेमपंथके साधक करते फिर लीला-चिन्तन।
श्यामा-श्याम-कृपासे फिर वे कर पाते लीला-दर्शन॥
गोपी-भाव समझकर फिर वे होते हैं शुचि साधनसिद्ध।
रस-साधनमें सिद्धि प्राप्तकर पाते गोपीरूप विशुद्ध॥
तब लीलामें नित्य सिमलित हो बन जाते प्रेमस्वरूप।
परम सिद्धि यह प्रेम-पंथकी, यही प्रेमका निर्मल रूप॥
× × × ×
कर्म, योगपथ, जान-मार्गके सिद्ध नहीं आते इस ठौर।
वे अपने शुचि विहित मार्गसे जाते सदा साध्यकी ओर॥
राधा-कृष्ण-विहार ललितका यह रहस्यमय दिव्य विधान।
दास्य-सय-वात्सल्यभाव में भी इसका नहिं होता भान॥
व्रजरमणीके शुद्ध भावका ही केवल इसमें अधिकार।
वहीं फूलता-फलता, इस उज्ज्वल रसका होता विस्तार॥

ब्रज के वन कुञ्ज आदि

यह वृन्दावन का रस है,इसको"कुञ्ज रस"कहते हैं. और वृन्दावन के श्यामसुंदर को"कुञ्ज बिहारी"कहते हैं. इसके आगे एक और रस होता है उसे"निकुंज रस"कहते हैं. यहाँ जीव नहींजा सकता, ये ललिता, विशाखा आदि का स्थान है.उसके आगे "निभृत निकुंज" होता है, यहाँ ललिता, विशाखा आदि भी नहीं जा सकतीं, यहाँ केवल श्री राधा-कृष्ण ही रहते हैं. हम लोगों की जो अंतिम पहुँच है, वो "कुञ्ज रस" है. इसलिए हम चाकर "कुञ्ज बिहारी" के हैं.अष्टयाम लीला के अंतर्गत अष्टसखियां श्यामा श्याम कौ राजभोग(दोपहर के भोजन) के लिए आमंत्रित करतीं हैं कि-भोजन करत लाडि़ली लालरतन जटित कंचन चैकी पर,आनि धर्यौ सहचरि भरि थालछप्पन भोग दत्त छत्तसौं षटरस,लेहस चोष्य भखि भोज्य रसालजेंवत जाहि सराहि रस अति परसत रंग रंगली बालश्रीहरिप्रिया परस्पर दोउ,परम प्रवीन पालगोपालजू को पान खबावति भामिनी,भोजन कर गवने जुगल,ललित कुंज विश्रामचैपर खेल बढ्यौ मन मोदा,फूल्यौ पियअति सुनत विनोदाप्रे्रम की चैसर खेले पिया प्यारीदोउ पौढ़े हैं अलसाइ कैंवृन्दावन हित रूप जाउं बलि,रह्यौ रति रस सुख छाइ कैविहरत सुमन सेज पर दोऊइस तरह की और भी निकुंज लीलाएँ है राधा माधव कि इन लीलाओं को ऐसा कौन है जो अपनी जिव्हा से गा सकता है.इसमें त्रुटि तो अवश्य ही होगी, जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी है.

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रज के 12 कुंज

पुष्पा कुंज, फल कुंज, रस कुंज, मधु कुंज, गो कुंज, द्वार कुंज, नवकुंज, शशिकुंज, प्रेम कुंज, शिद्धव कुंज, लक्ष्मी कुंज, तुलसी कुंज।

ब्रज के सात समुद्र

ध्रुव सागर, गोपाल सागर, कनक सागर, गोप सागर, बैकुंठ सागर, लक्ष्मी सागर, क्षीरसागर।

ब्रज के 12 अधिवन

परमबृह्म मथुरा, राधाबल्लभ राधाकुंड, यशोदानंदन नंदगांव, नवल किशोर दानगढ़, ब्रज किशोर ललित ग्राम, राधाकृष्ण वृषभानपुर, गोकुलेंद्र गोकुल, कामधेनु बलदेव, गोवर्धन नाथजी गोवर्धन, ब्रजवट जाववट, युगल किशोर वृंदावन, राधारमण संकेतवन।

ब्रज के 40 बिहारीजी:

अजन बिहारी, अंकुर बिहारी, अप्सरा, उद्धव, कोकिला, कुंजबिहारी, किलोल, गोविंद, चिंताहरण, चंद्र, चतुर, तुष्णावर्त, दानबिहारी, दावानल, पूतना, नवलबिहारी, प्रेमबिहारी, पिता बिहारी, बांकेबिहारी, बहुल बिहारी, ब्रह्मांड बिहारी, प्रेम बिहारी, वृह्मांड बिहारी, बिछुल बिहारी, मथरोड़ बिहारी, मानबिहारी, मोर बिहारी, रासबिहारी, रसिक बिहारी, रमण बिहारी, ललित बिहारी, ब्रज बिहारी, बन बिहारी, बुद्ध बिहारी, वेदबिहारी, संकेत बिहारी, शाक बिहारी, श्री बिहारी, शृंगार बिहारी, सत्यनारायण बिहारी, शांतनु बिहारी।

ब्रज के पांच पर्वत

चरण पहाड़ी (कामवन), चरण पहाड़ी (कामर), नंदगांव (शिव), बरसाना (बृह्म,) गोवर्धन (विष्णु)।

ब्रज के सात कदमखंडी

गोविंद स्वामीजी, पिसावा, सुनहरा, करहला, गांठौली, उद्धवक्यारी, दौऊ मिलन की।

हिंडोला

श्री कुंड, करहला, संकेत, आजनोखर, रासौली, गहवरवन, वृंदावन, शेषशायी।

ब्रज के प्रमुख सरोवर

सूरज सरोवर, कुसुम सरोवर, विमल सरोवर, चंद्र सरोवर, रूप सरोवर, पान सरोवर, मान सरोवर, प्रेम सरोवर, नारायण सरोवर, नयन सरोवर।

ब्रज की सोलह देवी

कात्यायनी देवी, शीतला देवी, संकेत देवी, ददिहारी, सरस्वती देवी, वृंदादेवी, वनदेवी, विमला देवी, पोतरा देवी, नरी सैमरी देवी, सांचौली देवी, नौवारी देवी, चौवारी देवी, मथुरा देवी l
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Friday, 22 January 2016

प्रेम विलास विवर्त

प्रेम-विलास-विवर्त का देह-मन-प्राणादि का ऐक्य-मनन, या अभेद-ज्ञान, ज्ञान-मार्ग साधक के अभेद-ज्ञान जैसा नहीं है.ज्ञान-मार्ग की मूल भित्ति ही है जीव और ब्रह्म का अभेद ज्ञान.

ज्ञान-मार्ग का साधक यह मानकर चलता है कि जीव और ब्रह्म तत्वत: एक हैं, पर अज्ञान के कारण ब्रह्म से अपने पृथक् अस्तित्व की प्रतीत होती है.अज्ञान के दूर हो जाने पर उसका भेद-ज्ञान उसी प्रकार मिट जाता है, जिस प्रकार घट के टूट जाने पर घटाकाश और महाकाश का भेद मिट जाता है.राधा और कृष्ण दोनों में कोई भी अज्ञान वृत ब्रह्मरूप जीव के समान अनित्य नहीं है.दोनों नित्य हैं, दोनों की लीला भी नित्य है.लीला-रस आस्वादन करने के लिये ही दोनों स्वरूपत: एक होते हुए भी अनादिकाल से दो रूपों में विद्यमान हैं-

राधा-कृष्ण ऐछे सदा एकइ स्वरूप.लीलारस आस्वादिते धरे दुइ रूप॥*

प्रेम-विलास-विवर्त में जो प्राण-मन-देहादि का ऐक्य होता है, वह केवल भावगत है, वस्तुगत नहीं.देह, मन और प्राण का पृथक् अस्तित्व बना रहता है, पर विलास-सुखैक-तन्मयता के कारण उनके ऐक्य का मनन मात्र होता है.राधा-कृष्ण के इस देह-मनादि के ऐक्य के मनन को कवि कर्णपूर ने 'परैक्य' कहा है.'परैक्य' शब्द का अर्थ है राधा-कृष्ण के मन का प्रेम के प्रभाव से गलकर सर्वतो भाव से एक हो जाना, वैसे ही जैसे लाख के दो टुकड़े अग्नि के प्रभाव से गलकर एक हो जाते हैं.

इस प्रकार मन का भेद मिट जाने पर ज्ञान का भेद भी मिट जाता है.दोनों को अपने पृथक् अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता, यद्यपि पृथक् अस्तित्व बना रहता है.ज्ञान-मार्ग के साधक में सिद्धावस्था प्राप्त करने पर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों का लोप हो जाने के कारण न तो ज्ञाता का पृथक् अस्तित्व रहता है, न किसी प्रकार का अनुभव होता है और न किसी प्रकार की चेष्टा पर प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण का पृथक् अस्तित्व रहता है, विलास-सुखैक तात्पर्यमयी अनुभूति रहती है और विलास-सम्बन्धी चेष्टा रहती है.

प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण की विलास-सुखैक-तन्मयता ही है, प्रेम-विलास की परिपक्वता या चरमोत्कर्षावस्था.पर इसके परिणामस्वरूप दोनों में उस अवस्था के दो बाह्य लक्षण भी प्रतिलक्षित होते हैं.वे हैं भ्रम और वैपरीत्य.तन्मयता के कारण भ्रम या आत्मविस्मृति घटती है और आत्मविस्मृति की अवस्था में परस्पर का सुख वधन करने की वर्धमान चरम उत्कण्ठा के कारण उनकी स्वाभाविक चेष्टाओं का अनजाने वैपरीत्य घटता है, अर्थात कान्ता का भाव और आचरण कान्त में, और कान्त का भाव और आचरण कान्ता में सञ्चारित होता है.

जैसे साधारण रूप से कृष्ण वंशी बजाते हैं और राधा नृत्य करती हैं, पर विहार-वैपरीत्य में राधा वंशी बजाती हैं, कृष्ण नृत्य करते हैं.नायक और नायिका में विहार-वैपरीत्य बुद्धिपूर्वक भी हो सकता है.पर प्रेम-विवर्त-विलास में यह अबुद्धिपूर्वक होता है, क्योंकि उसमें रमण का रमणत्व रमणी में और रमणी का रमणीत्व रमण में आत्मविस्मृति की अवस्था में अनजाने ही सञ्चारित होता है.चैतन्य-चरितामृत में राय रामानन्द ने महाप्रभु से अपने वार्तालाप में प्रेम-विवर्त-विलास का इंगित एक गीत द्वारा किया है, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

पहिलहि राग नयनभंग भेल.अनुदिन बाढ़ल अवधि न गेल॥
ना सो रमण ना हम रमणी.दुहुँ मन मनोभव पेषल जानि॥

राधा कहती हैं 'नयन-भंग' अर्थात पलक पड़ने में जितनी देर लगती है, उतनी देर में (श्रीकृष्ण से) मेरा प्रथम राग हो गया.राग दिन-प्रति-दिन निरवच्छिन्न भाव से बढ़ता गया.उसे कोई सीमा न मिली.राग के निरन्तर वर्धनशील प्रवाह ने, एक-दूसरे के विलास-सुख को वर्धन करने की वर्धनशील वासना ने मानो दोनों के मन को पीसकर एक कर दिया.

परिणामस्वरूप न रमण को अपने रमणत्व का ज्ञान रहा, न रमणी को अपने रमणीत्व का.दोनों विलास-सुख की अनुभूति में खो गये और वह अनुभूति अपना आस्वादन स्वयं करती रही.श्रीरूप गोस्वामी की मादनाख्य महाभाव और प्रेम-विलास-विवर्त की व्याख्या वैष्णव-समाज को उनकी महत्वपूर्ण देन है.