‘गोपी’ शब्द का अर्थ
गोपी शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है–’गो’ अर्थात् इन्द्रियां और ‘पी’ का अर्थ है पान करना। ‘गोभि: इन्द्रियै: भक्तिरसं पिबति इति गोपी।’ जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे, वही गोपी है।
गोपी का एक अन्य अर्थ है केवल श्रीकृष्ण की सुखेच्छा। जिसका जीवन इस प्रकार का है, वही गोपी है। गोपियों की प्रत्येक इन्द्रियां श्रीकृष्ण को अर्पित हैं। गोपियों के मन, प्राण–सब कुछ श्रीकृष्ण के लिए हैं। उनका जीवन केवल श्रीकृष्ण-सुख के लिए है। सम्पूर्ण कामनाओं से रहित उन गोपियों को श्रीकृष्ण को सुखी देखकर अपार सुख होता है। उनके मन में अपने सुख के लिए कल्पना भी नहीं होती। श्रीकृष्ण को सुखी देखकर ही वे दिन-रात सुख-समुद्र में डूबी रहती हैं।
गोपी श्रीकृष्ण से अपने लिए प्रेम नहीं करती अपितु श्रीकृष्ण की सेवा के लिए, उनके सुख के लिए श्रीकृष्ण से प्रेम करती है।
गोपी की बुद्धि, उसका मन, चित्त, अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियां प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के साधन हैं। उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना–सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है। गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है। मीराबाई सुन्दर श्रृंगार करके गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती थीं। उनका भाव था–’गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।’
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अर्जुन से कहा है–‘हे अर्जुन ! गोपियां अपने शरीर की रक्षा उसे मेरी वस्तु मानकर करती हैं। गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है।’ यही कारण है कि श्रीकृष्ण जोकि स्वयं आनन्दस्वरूप हैं, आनन्द के अगाध समुद्र हैं, वे भी गोपीप्रेम का अमृत पीकर आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं।
जय जय श्री राधे
Monday, 29 February 2016
गोपी शब्द का अर्थ
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