Sunday, 28 February 2016

श्री राधा 1

श्रीराधा का स्वरूप

कारुण्यामृत, तारुण्यामृत और लावण्यामृत की धारा से ये स्नान करती हैं। निज लज्जा ही इनका श्याम-परिधान है। स्त्री को लज्जा ढकने के लिये वस्त्र चाहिये। श्यामसुन्दर ही इनके श्याम-वस्त्र हैं। कृष्णानुराग रूपी वस्त्र ही इनकी कुसूँबी-लाल ओढ़नी है। ये नील पट पहने हैं और उस पर इनकी लाल ओढ़नी फहराती है। प्रणय, मान, स्नेह इत्यादि भाव ही इनके वक्षःस्थल का आच्छादन करने वाली कन्चुकी हैं। सखी-प्रणय चन्दन-कुंकुम है। स्मितकान्तिरूपी कर्पूर ही अंग-विलेपन है। श्रीकृष्ण का मधुर-रस ही मृगमद— कस्तूरिका है। इसी मृगमद से इनका कलेवर चित्रित है।

रागरूप ताम्बूल के राग से इनके अधर रंजित हैं। प्रेम कौटिल्य ही इनके नेत्र-युगलों का कज्जल है। हर्ष आदि संचारी सूद्दीप्त सात्त्विक भाव ही इनके अंगों के आभूषण हैं। हाव, भाव, लीला आदि रमणीयों के भाव ही इनके बीस गुण तथा श्रेष्ठ भाव विविध फूलों की मालाएँ हैं। मध्यवयः स्थिति की सखी के कंधे पर हाथ रखकर ये चलती हैं। श्रीकृष्णलीला-मनोवृत्ति इनकी आस-पास की सखियाँ हैं। श्रीकृष्ण के अंग-स्पर्श द्वारा सेवित निजांग-सौरभालय ही इनके बैठने का पर्यक है। इस पर ये बैठी-बैठी श्रीकृष्ण-संग का निरन्तर चिन्तर करती हैं, उन्हीं से आलाप करती हैं।

कृष्ण-नाम ही, उनका नाम-यश-गुण ही इनका कर्णाभूषण है। श्याममधु-रस का ये श्रीकृष्ण को पान कराती हैं। अर्थात् श्रंगार रस का अनुभव देती हैं। इनके जीवन का उद्देश्य है - श्रीकृष्ण की सारी कामनाओं को निरन्तर पूर्ण करते रहना। इनको श्रीकृष्ण के विशुद्ध प्रेम-रत्नों की खानि समझो। श्रीकृष्ण का प्रेम चाहो तो इनके प्रेमाकर से उसे निकालो। इस प्रकार इनका कलेवर अनुपम गुण-समूह से परिपूर्ण है। श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी सत्यभामाजी वान्छा करती हैं कि इन-जैसा सुहाग मुझे मिले। कला-विलास में चतुर व्रजरमणियाँ भी इनसे कला-विलास सीखना चाहती हैं। और किसकी बात कहें, सौन्दर्य-माधुर्य एवं पातिव्रत्य में लक्ष्मी और पार्वती सबसे बड़ी, सबसे उत्तम मानी गयी हैं। ये दोनों भी इनके सौन्दर्य-माधुर्य की कामना करती हैं। जहाँ कामना का कलंक है, वहाँ सौन्दर्य नहीं है। एक राधा ही ऐसी हैं, जो कामना-कलंक-शून्य परम सुन्दर हैं। कामना की कालिमा का लेश भी इनमें नहीं है। ये कामना जानतीं ही नहीं। ये तो श्रीकृष्ण-कामना-कल्पतरु हैं। ये नित्य-निरन्तर श्रीकृष्ण की कामना पूर्ण करती रहती हैं। लक्ष्मी में कामना है, पार्वती में कामना है। वे अपने स्वामियों की सेवा चाहती हैं, पर इनमें यह कोई-सी भी कामना नहीं है। अनुसूया, अरुन्धती— ये सब पातिव्रत्य-धर्म चाहती हैं। पर सच्चे पातिव्रत्य-धर्म का पालन तो श्रीराधा ने ही किया।। ---- श्री राधा ------
राधे से रस ऊपजे, रस से रसना गाय ।
अरे कृष्णप्रियाजू लाड़ली, तुम मो पे रहियो सहाय ॥

वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय ।
जहाँ डाल डाल और पात पे श्री राधे राधे होय ॥

वृन्दावन बानिक बन्यो  जहाँ भ्रमर करत गुंजार ।
अरी दुल्हिन प्यारी राधिका, अरे दूल्हा नन्दकुमार ॥

वृन्दावन से वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव ।
बन्सीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम ॥

राधे मेरी स्वामिनी मैं राधे की दास ।
जनम जनम मोहे दीजियो श्री वृन्दावन वास ॥

सब द्वारन को छाँड़ि के, अरे आयी तेरे द्वार ।
वृषभभानु की लाड़ली, तू मेरी ओर निहार ॥.............

श्रीराधा के भाव और द्युति से जिनका श्रीविग्रह सुवलित है, वे राधा-भावद्युति-सुवलिततनु श्रीकृष्णचन्द्र ही श्रीमती राधा की महिमा कुछ कह सकते हैं अथवा उनके परम प्रेमी दास उन्हीं की कृपा से यत्किंचित् कहने में समर्थ हो सकते हैं।
व्रज रस निधि श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र अनादि, सर्वादि, सर्वकारण-कारण, सच्चिदानन्दघन विग्रह अद्वय ज्ञानतत्त्व स्वरूप हैं। उनके साथ उनकी ह्लादिनी शक्ति श्रीमती-राधिका का नित्य अविच्छेद्य सम्बन्ध है। दोनों का नित्य एकत्व है। राधा पूर्णशक्ति हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान हैं; श्रीराधा मृगमद गन्ध हैं— श्रीकृष्ण मृगमद हैं; श्रीराधा दाहिका शक्ति हैं— श्रीकृष्ण साक्षात अग्नि हैं। श्रीराधा प्रकाश हैं— श्रीकृष्ण तेज हैं; श्रीराधा व्याप्ति है।— श्रीकृष्ण आकाश्ष हैं; श्रीराधा ज्योत्स्ना हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण चन्द्र हैं; श्रीराधा आतप हैं— श्रीकृष्ण सूर्य हैं; श्रीराधा तरंग हैं— श्रीकृष्ण जल निधि हैं। यों वे दोनों नित्य एक स्वरूप हैं, पर लीला रस के आस्वादन के लिये नित्य ही उनके दो रूप हैं।
वस्तुतः एक ही परपूर्ण नित्य सच्चिदानन्द मय परम प्रेम तत्त्व श्रीकृष्ण ही आस्वाद्य, आस्वादक और आस्वादन बनकर लीला रत हैं। इसलिये कभी श्रीराधा प्रियतम श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप में विलीन होकर उनके हृत्पद्म पर विराजित दिखायी देती हैं, कभी सर्वात्म-समर्पण करके प्रियतम श्रीकृष्ण की आराधिका बनी उनकी सेवा में संलग्न रहकर उनको सुख देने में ही अपना परम सौभाग्य मानती हैं। कभी उनकी आराध्या बन जाती हैं और श्रीकृष्ण स्वयं उनकी सर्वविध सेवा करने में ही परम सुख का अनुभव करते हैं एवं कभी श्रीराधाकृष्ण युगल रूप में विराजित होकर अनन्त विश्व ब्रह्माण्ड के महान सिद्ध एवं अतुलनीय ऐश्वर्य तथा विभूति सम्पन्न सुरेश्वरों एवं मुनीश्वरों के हाथों पूजा-अर्चना ग्रहण करते हैं।।
------ श्री राधा ------
दो‌ऊ सदा एक रस पूरे।
एक प्रान,मन एक,एक ही भाव,एक रँग रूरे।
एक साध्य,साधनहू एकहि,एक सिद्धि मन राखैं।
एकहि परम पवित्र दिय रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं।
एक चाव,चेतना एक ही,एक चाह अनुहारै।
एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै।

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