‘गोपी’ शब्द का अर्थ
गोपी शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है–’गो’ अर्थात् इन्द्रियां और ‘पी’ का अर्थ है पान करना। ‘गोभि: इन्द्रियै: भक्तिरसं पिबति इति गोपी।’ जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे, वही गोपी है।
गोपी का एक अन्य अर्थ है केवल श्रीकृष्ण की सुखेच्छा। जिसका जीवन इस प्रकार का है, वही गोपी है। गोपियों की प्रत्येक इन्द्रियां श्रीकृष्ण को अर्पित हैं। गोपियों के मन, प्राण–सब कुछ श्रीकृष्ण के लिए हैं। उनका जीवन केवल श्रीकृष्ण-सुख के लिए है। सम्पूर्ण कामनाओं से रहित उन गोपियों को श्रीकृष्ण को सुखी देखकर अपार सुख होता है। उनके मन में अपने सुख के लिए कल्पना भी नहीं होती। श्रीकृष्ण को सुखी देखकर ही वे दिन-रात सुख-समुद्र में डूबी रहती हैं।
गोपी श्रीकृष्ण से अपने लिए प्रेम नहीं करती अपितु श्रीकृष्ण की सेवा के लिए, उनके सुख के लिए श्रीकृष्ण से प्रेम करती है।
गोपी की बुद्धि, उसका मन, चित्त, अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियां प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के साधन हैं। उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना–सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है। गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है। मीराबाई सुन्दर श्रृंगार करके गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती थीं। उनका भाव था–’गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।’
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अर्जुन से कहा है–‘हे अर्जुन ! गोपियां अपने शरीर की रक्षा उसे मेरी वस्तु मानकर करती हैं। गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है।’ यही कारण है कि श्रीकृष्ण जोकि स्वयं आनन्दस्वरूप हैं, आनन्द के अगाध समुद्र हैं, वे भी गोपीप्रेम का अमृत पीकर आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं।
जय जय श्री राधे
Monday, 29 February 2016
गोपी शब्द का अर्थ
श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत
॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥
मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)
अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)
अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)
तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)
मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)
अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)
मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)
[2/29, 18:20] Pt Madhav Ji: सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)
नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)
अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)
अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)
मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)
इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३
🙏🏻🙏🏻 जय जय श्री राधे 🙏🏻🙏🏻
॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥
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मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)
भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)
अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)
भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)
अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)
भावार्थ : रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)
[2/29, 18:20] Pt Madhav Ji: तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)
भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)
मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)
भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)
अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)
भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)
[2/29, 18:20] Pt Madhav Ji: मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)
भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)
सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)
भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)
नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)
भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)
[2/29, 18:20] Pt Madhav Ji: अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)
भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)
अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)
भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)
मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)
भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)
[2/29, 18:20] Pt Madhav Ji: इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)
भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
🌹💐 जय श्री राधे 💐🌹
नवधा भक्ति
!! ॐ श्री हरि !!
भगवान श्रीराम का शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश :-
" नवधा भगति कहऊँ तोहि पाही।
सावधान सुनु धरू मन माही।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।।
भावार्थ :- मैं अब तुझसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ, तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर।पहली भक्ति है संतों का सत्संग, दूसरी भक्ति है मेरा कथा प्रसंग में प्रेम।
" गुरू पद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।
भावार्थ :- तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोडकर मेरे गुण समूहों का गान करे।
" मंत्र जाप में मम ढृढ बिस्वासा।
पंचम भजन सों वेद प्रकासा।।
छठ दम सील बीरति कहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
भावार्थ :- मेरे राम मंत्र का जाप और मुझमें ढृढ विश्वास यह पांचवीं भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्ध है।छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील स्वभाव बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरूषों के धर्म आचरण में लगे रहना।
" सातवां सम मोहि मय जग देखा।
मोते संत अधिक करि लेखा।।
आठवाँ जथा लाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखई परदोषा।।
भावार्थ :- सातवीं भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना।
" नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारी पुरूष सराचर कोई।।
भावार्थ :- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद का न होना। इन नवों में से जिनमें एक भी भक्ति हो वह स्त्री-पुरूष, जड-चेतन कोई भी हो....
" सोई अतिशय प्रिय भामिनी मोरें।
सकल प्रकार भक्ति ढृढ तोरें।।
जोगि वृन्द दूर्लभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।
भावार्थ :- हे भामिनी ! मुझे वही अत्यंत प्रिय है, फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति ढृढ है, अतएव जो गति योगियों को भी दूर्लभ है वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई।
~: जय सियाराम :~
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Sunday, 28 February 2016
श्री राधा 1
श्रीराधा का स्वरूप
कारुण्यामृत, तारुण्यामृत और लावण्यामृत की धारा से ये स्नान करती हैं। निज लज्जा ही इनका श्याम-परिधान है। स्त्री को लज्जा ढकने के लिये वस्त्र चाहिये। श्यामसुन्दर ही इनके श्याम-वस्त्र हैं। कृष्णानुराग रूपी वस्त्र ही इनकी कुसूँबी-लाल ओढ़नी है। ये नील पट पहने हैं और उस पर इनकी लाल ओढ़नी फहराती है। प्रणय, मान, स्नेह इत्यादि भाव ही इनके वक्षःस्थल का आच्छादन करने वाली कन्चुकी हैं। सखी-प्रणय चन्दन-कुंकुम है। स्मितकान्तिरूपी कर्पूर ही अंग-विलेपन है। श्रीकृष्ण का मधुर-रस ही मृगमद— कस्तूरिका है। इसी मृगमद से इनका कलेवर चित्रित है।
रागरूप ताम्बूल के राग से इनके अधर रंजित हैं। प्रेम कौटिल्य ही इनके नेत्र-युगलों का कज्जल है। हर्ष आदि संचारी सूद्दीप्त सात्त्विक भाव ही इनके अंगों के आभूषण हैं। हाव, भाव, लीला आदि रमणीयों के भाव ही इनके बीस गुण तथा श्रेष्ठ भाव विविध फूलों की मालाएँ हैं। मध्यवयः स्थिति की सखी के कंधे पर हाथ रखकर ये चलती हैं। श्रीकृष्णलीला-मनोवृत्ति इनकी आस-पास की सखियाँ हैं। श्रीकृष्ण के अंग-स्पर्श द्वारा सेवित निजांग-सौरभालय ही इनके बैठने का पर्यक है। इस पर ये बैठी-बैठी श्रीकृष्ण-संग का निरन्तर चिन्तर करती हैं, उन्हीं से आलाप करती हैं।
कृष्ण-नाम ही, उनका नाम-यश-गुण ही इनका कर्णाभूषण है। श्याममधु-रस का ये श्रीकृष्ण को पान कराती हैं। अर्थात् श्रंगार रस का अनुभव देती हैं। इनके जीवन का उद्देश्य है - श्रीकृष्ण की सारी कामनाओं को निरन्तर पूर्ण करते रहना। इनको श्रीकृष्ण के विशुद्ध प्रेम-रत्नों की खानि समझो। श्रीकृष्ण का प्रेम चाहो तो इनके प्रेमाकर से उसे निकालो। इस प्रकार इनका कलेवर अनुपम गुण-समूह से परिपूर्ण है। श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी सत्यभामाजी वान्छा करती हैं कि इन-जैसा सुहाग मुझे मिले। कला-विलास में चतुर व्रजरमणियाँ भी इनसे कला-विलास सीखना चाहती हैं। और किसकी बात कहें, सौन्दर्य-माधुर्य एवं पातिव्रत्य में लक्ष्मी और पार्वती सबसे बड़ी, सबसे उत्तम मानी गयी हैं। ये दोनों भी इनके सौन्दर्य-माधुर्य की कामना करती हैं। जहाँ कामना का कलंक है, वहाँ सौन्दर्य नहीं है। एक राधा ही ऐसी हैं, जो कामना-कलंक-शून्य परम सुन्दर हैं। कामना की कालिमा का लेश भी इनमें नहीं है। ये कामना जानतीं ही नहीं। ये तो श्रीकृष्ण-कामना-कल्पतरु हैं। ये नित्य-निरन्तर श्रीकृष्ण की कामना पूर्ण करती रहती हैं। लक्ष्मी में कामना है, पार्वती में कामना है। वे अपने स्वामियों की सेवा चाहती हैं, पर इनमें यह कोई-सी भी कामना नहीं है। अनुसूया, अरुन्धती— ये सब पातिव्रत्य-धर्म चाहती हैं। पर सच्चे पातिव्रत्य-धर्म का पालन तो श्रीराधा ने ही किया।। ---- श्री राधा ------
राधे से रस ऊपजे, रस से रसना गाय ।
अरे कृष्णप्रियाजू लाड़ली, तुम मो पे रहियो सहाय ॥
वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय ।
जहाँ डाल डाल और पात पे श्री राधे राधे होय ॥
वृन्दावन बानिक बन्यो जहाँ भ्रमर करत गुंजार ।
अरी दुल्हिन प्यारी राधिका, अरे दूल्हा नन्दकुमार ॥
वृन्दावन से वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव ।
बन्सीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम ॥
राधे मेरी स्वामिनी मैं राधे की दास ।
जनम जनम मोहे दीजियो श्री वृन्दावन वास ॥
सब द्वारन को छाँड़ि के, अरे आयी तेरे द्वार ।
वृषभभानु की लाड़ली, तू मेरी ओर निहार ॥.............
श्रीराधा के भाव और द्युति से जिनका श्रीविग्रह सुवलित है, वे राधा-भावद्युति-सुवलिततनु श्रीकृष्णचन्द्र ही श्रीमती राधा की महिमा कुछ कह सकते हैं अथवा उनके परम प्रेमी दास उन्हीं की कृपा से यत्किंचित् कहने में समर्थ हो सकते हैं।
व्रज रस निधि श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र अनादि, सर्वादि, सर्वकारण-कारण, सच्चिदानन्दघन विग्रह अद्वय ज्ञानतत्त्व स्वरूप हैं। उनके साथ उनकी ह्लादिनी शक्ति श्रीमती-राधिका का नित्य अविच्छेद्य सम्बन्ध है। दोनों का नित्य एकत्व है। राधा पूर्णशक्ति हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान हैं; श्रीराधा मृगमद गन्ध हैं— श्रीकृष्ण मृगमद हैं; श्रीराधा दाहिका शक्ति हैं— श्रीकृष्ण साक्षात अग्नि हैं। श्रीराधा प्रकाश हैं— श्रीकृष्ण तेज हैं; श्रीराधा व्याप्ति है।— श्रीकृष्ण आकाश्ष हैं; श्रीराधा ज्योत्स्ना हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण चन्द्र हैं; श्रीराधा आतप हैं— श्रीकृष्ण सूर्य हैं; श्रीराधा तरंग हैं— श्रीकृष्ण जल निधि हैं। यों वे दोनों नित्य एक स्वरूप हैं, पर लीला रस के आस्वादन के लिये नित्य ही उनके दो रूप हैं।
वस्तुतः एक ही परपूर्ण नित्य सच्चिदानन्द मय परम प्रेम तत्त्व श्रीकृष्ण ही आस्वाद्य, आस्वादक और आस्वादन बनकर लीला रत हैं। इसलिये कभी श्रीराधा प्रियतम श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप में विलीन होकर उनके हृत्पद्म पर विराजित दिखायी देती हैं, कभी सर्वात्म-समर्पण करके प्रियतम श्रीकृष्ण की आराधिका बनी उनकी सेवा में संलग्न रहकर उनको सुख देने में ही अपना परम सौभाग्य मानती हैं। कभी उनकी आराध्या बन जाती हैं और श्रीकृष्ण स्वयं उनकी सर्वविध सेवा करने में ही परम सुख का अनुभव करते हैं एवं कभी श्रीराधाकृष्ण युगल रूप में विराजित होकर अनन्त विश्व ब्रह्माण्ड के महान सिद्ध एवं अतुलनीय ऐश्वर्य तथा विभूति सम्पन्न सुरेश्वरों एवं मुनीश्वरों के हाथों पूजा-अर्चना ग्रहण करते हैं।।
------ श्री राधा ------
दोऊ सदा एक रस पूरे।
एक प्रान,मन एक,एक ही भाव,एक रँग रूरे।
एक साध्य,साधनहू एकहि,एक सिद्धि मन राखैं।
एकहि परम पवित्र दिय रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं।
एक चाव,चेतना एक ही,एक चाह अनुहारै।
एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै।
Saturday, 27 February 2016
श्रीवृषभानुनन्दिनी से प्रार्थना
श्रीवृषभानुनन्दिनी से प्रार्थना
सच्चिदानन्दघन दिव्यसुधा-रस-सिन्धु व्रजेन्द्रनन्दन राधावल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र का नित्य निवास है प्रेमधाम व्रज में और उनका चलना-फिरना भी है व्रज के मार्ग में ही। यह मार्ग चित्तवृत्ति-निरोध-सिद्ध महाज्ञानी योगीन्द्र-मुनीन्द्रों के लिये अत्यन्त दुर्गम है। व्रज का मार्ग तो उन्हीं के लिये प्रकट होता है, जिनकी चित्तवृत्ति प्रेमघन-रस-सुधा-सागर आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्दों की ओर नित्य निर्बाध प्रवाहित रहती है, जहाँ न निरा निरोध है और न उन्मेष ही, बल्कि दोनों की चरम सीमा का अपूर्व मिलन है। इस पथ पर अबाध विहरण करती हुई वृषभानुनन्दिनी रासेश्वरी श्रीश्रीराधारानी का दिव्य वसनाञ्चल विश्व की विशिष्ट चिन्मय सत्ता को कृतकृत्य करता हुआ नित्य खेलता रहता है, किसी समय उस वसनाञ्चल के द्वारा स्पर्शित धन्यातिधन्य पवन-लहरियो का अपने श्रीअग्ड़ से स्पर्श पाकर योगीन्द्र-मुनीन्द्र-दुर्लभ-गति श्रीमधुसूदनपर्यन्त अपने को परम कृतार्थ मानते हैं, उन श्रीराधारानी के प्रति हमारे मन, प्राण, आत्मा - सबका नमस्कार !—
यस्याः कदापि वसनाञ्चलखेलनोत्थ-
धन्यातिधन्यपवनेन कृतार्थमानी।
योगीन्द्रदुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि
तस्या नमोऽस्तु वृषभानुभुवो दिशेऽपि।।