Sunday, 22 November 2015

gopi geet गोपी गीत श्लोक 9 से 19

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥ (९)
भावार्थ:- हे हमारे स्वामी! तुम्हारी कथा अमृत स्वरूप हैं, जो विरह से पीड़ित लोगों के लिये तो वह जीवन को शीतलता प्रदान करने वाली हैं, ज्ञानीयों, महात्माओं, भक्त कवियों ने तुम्हारी लीलाओं का गुणगान किया है, जो सारे पाप-ताप को मिटाने वाली है। जिसके सुनने मात्र से परम-मंगल एवं परम-कल्याण का दान देने वाली है, तुम्हारी लीला-कथा परम-सुन्दर, परम-मधुर और कभी न समाप्त होने वाली हैं, जो तुम्हारी लीला का गान करते हैं, वह लोग वास्तव में मत्यु-लोक में सबसे बड़े दानी हैं। (९)

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम्।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि॥ (१०)
भावार्थ:- हे हमारे प्यारे! एक दिन वह था, तुम्हारी प्रेम हँसी और चितवन तथा तुम्हारी विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं का ध्यान करके हम आनन्द में मग्न हो जाया करतीं थी। हे हमारे कपटी मित्र! उन सब का ध्यान करना भी मंगलदायक है, उसके बाद तुमने एकान्त में हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ की और प्रेम की बातें की, अब वह सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर रही हैं। (१०)

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति॥ (११)
भावार्थ:- हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर हैं, जब तुम गौओं को चराने के लिये ब्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे युगल चरण कंकड़, तिनके, घास, और काँटे चुभने से कष्ट पाते होंगे तो हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है। (११)

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥ (१२)
भावार्थ:- हे हमारे वीर प्रियतम! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं, कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रहीं है और गौओं के खुर से उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है। तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखाकर हमारे हृदय को प्रेम-पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो। (१२)

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्॥ (१३)
भावार्थ:- हे प्रियतम! तुम ही हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली हैं, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी ब्याधायें शान्त हो जाती हैं। हे प्यारे! तुम अपने उन परम-कल्याण स्वरूप चरणकमल हमारे वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदय की व्यथा को शान्त कर दो। (१३)

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥ (१४)
भावार्थ:- हे वीर शिरोमणि! आपका अधरामृत तुम्हारे स्मरण को बढ़ाने वाला है, सभी शोक-सन्ताप को नष्ट करने वाला है, यह बाँसुरी तुम्हारे होठों से चुम्बित होकर तुम्हारा गुणगान करने लगती है। जिन्होने इस अधरामृत को एक बार भी पी लिया तो उन लोगों को अन्य किसी से आसक्तियों का स्मरण नहीं रहता है, तुम अपना वही अधरामृत हम सभी को वितरित कर दो। (१४)

अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्॥ (१५)
भावार्थ:- हे हमारे प्यारे! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है, और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती हैं, उस समय हमारी पलकों का गिरना हमारे लिये अत्यन्त कष्टकारी होता है, तब ऎसा महसूस होता है कि इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है। (१५)

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥ (१६)
भावार्थ:- हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई-बन्धु और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर संकेत को समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं। हे कपटी! इसप्रकार रात्रि को आयी हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड़ सकता है। (१६)

रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥ (१७)
भावार्थ:- हे प्यारे! एकान्त में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बातें किया करते थे, हँसी-मजाक करके हमें छेड़ते थे, तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्करा देते थे। तुम्हारा विशाल वक्ष:स्थल, जिस पर लक्ष्मीजी नित्य निवास करती हैं। हे प्रिय! तब से अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यधिक आसक्त होता जा रहा है। (१७)

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम्।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥ (१८)
भावार्थ:- हे प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुख-ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है, कुछ ऎसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्तजनों के हृदय-रोग को सदा-सदा के लिये मिटा दे। (१८)

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥ (१९)
भावार्थ:- हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल हैं, उन्हे हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती हैं, जिससे आपके कोमल चरणों में कहीं चोट न लग जाये, उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से आपके चरणों मे पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत होती जा रही हैं। हे प्यारे श्यामसुन्दर! हे हमारे प्राणनाथ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये ही जी रहीं है, हम सिर्फ तुम्हारी ही हैं। (१९)

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