Saturday, 28 November 2015

विरह में गोपियों की दशा

विरह में गोपियों की दशा

भगवान सहसा अंतर्धान हो गये. उन्हें न देखकर व्रजयुवतियो के हदय में विरह की ज्वाला जलने लगी - भगवान की मदोन्मत्त चाल, प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओ और श्रृंगाररस की भाव-भंगियो ने उनके चित्त को चुरा लिया था. वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयी और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं और लीलाओ का अनुकरण करने लगी. अपने प्रियतम की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन- बोलन आदि मे श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयी.

उनके शरीर में भी वही गति-मति वही भाव-भंगिमा उतर आयी, वे अपने को सर्वथा भूलकर ‘श्रीकृष्ण स्वरुप’ हो गयी. ‘मै श्रीकृष्ण ही हूँ’ इस प्रकार कहने लगी वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्ही के गुणों का गान करने लगी. मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगी. वे पेड-पौधों से उनका पता पूछने लगी – हे पीपल, बरगद! नंदनंदन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुस्कान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये है क्या तुमने उन्हें देखा है ?

‘बहन तुलसी ! तुम्हारा हदय तो बड़ा कोमल है भगवान के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते है क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दर को देखा है ?

हे! भगवान की प्रियसी पृथ्वीदेवी ! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके आनंद से भर रही हो. इस प्रकार गोपियाँ प्रलाप करने लगी.

अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान की लीलाओ का अनुकरण करने लगी - एक पूतना बन गयी, दूसरी कृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगी.. कोई छकडा बन गयी, तो किसी में बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैर की ठोकर मारकर उलट दिया.. कोई गोपी पाँव घसीट-घसीट कर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे..

कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती – ‘अरे! व्रजवासियो, तुम आँधी-पानी से मत डरो मैंने उससे बचने का उपाय निकाल लिया है ऐसा कहकर गोवर्धन-धारण का अनुकरण करती हुई वह अपनी ओंढनी उठाकर ऊपर तान लेती है.. एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिर पर पैर रखकर चढ़ी और बोलने लगी – ‘रे दुष्ट साँप!, तू यहाँ से चला जा, मै दुष्टों का दमन करने के लिए ही उत्पन्न हुआ हूँ .. इतने में ही एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी श्रीकृष्ण बनी यशोदा ने फूलों कि माला से श्रीकृष्ण को ऊखल से बाँध दिया अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई गोपी हाथों से मुहँ ढँककर भय की नक़ल करने लगी.

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरे को भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिन्ह देखलाती हुई वन-वन में भटक रही थी. इधर भगवान श्रीकृष्ण दुसरी गोपियों को वन में छोडकर जिस भाग्यवती गोपी को एकांत में ले गये थे उसने समझा कि ‘मै ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ’ इसलिए तो बाकि को छोडकर प्यारे केवल मेरा ही मान करते है वे भगवान से कहने लगी प्यारे मुझसे अब तो और नहीं चला जाता मै तो बहुत थक गयी हूँ अब तो जहाँ चलना हो, मुझे अपने कंधे पर चढाकर ले चलो.

अपनी प्रियतमा की बात सुनकर श्यामसुन्दर ने कहा – ‘अच्छा प्यारी!, तुम मेरे कंधे पर चढ़ लो यह सुनकर वह गोपी ज्यो ही उनके कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गये और वह गोपी रोने-पछताने लगी, बाकि की गोपियँ चरणचिन्हों के सहारे ढूँढती हुई वहाँ जा पहुँची उन्होंने देखा उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी है जब उन्होंने उसे जगाया तो उसने कहा – मैंने कुटिलता वश उनका अपमान किया इससे वे अंतर्धान हो गये.

श्रीकृष्ण के ध्यान में डूबी गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर रमणरेती में लौट आयी और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगी .सबने एक साथ, एक ही स्वर में, 'गोपी-गीत' गाया.
राजा परीक्षित जी ने शुकदेव जी से पूंछा - कि सब ने एक ही साथ कैसे एक ही गीत गाया?

शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित जब सब गोपियों के मन की दशा एक जैसी ही थी, सबके भाव की एक ही दशा थी, तब उन करोड़ो गोपियों के मुँह से एक ही गीत, एक साथ निकला,इसमें आश्चर्य कैसा ? उन अनेको गोपियों ने अठारह यूथ बना लिए और उन्नीसवी गोपी स्वयं में ही था इस प्रकार उन्नीस गोपियों के यूथ बन गये, गोपी गीत में भी उन्नीस श्लोको है. गोपी गीत `कनक मंजरी’ छंद में है.
सार-
भगवान को अभिमान अच्छा नहीं लगता,भक्त का मान तोडने के लिए की भगवान ने अंतर्ध्यान करने की लीला की.
सत्यजीत तृषित
“ जय जय श्री राधे ”

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