Sunday, 22 November 2015

मनुष्य जीवन का एक ही धर्म है श्री कृष्ण भक्ति

मनुष्य जीवन का एक ही धर्म है श्री कृष्ण भक्ति

रास पंचाध्यायी के प्रथम अध्याय के ३२ वे श्लोक में गोपियाँ कह रही है -

"यत्पत्यपत्यसुह्र्दामनुवृत्तिरग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोत्तम
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा"(32)

अर्थात - प्यारे श्याम सुन्दर तुम सब धर्मो का रहस्य जानते हो, तुम्हारा यह कहना कि अपने पति, पुत्र और भाई बंधुओ कि सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है. अक्षरत: ठीक है. परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये क्योकि तुम्ही समस्त शरीरधारियों के सुह्रद हो, आत्मा हो, और परम प्रीतम हो.

आप बड़े धर्मात्मा है, आप धर्म के मर्मज्ञ है,ज्ञाता है, आप वेदवित है,और वेद में जो कुछ करने को कहा है विधि रूप में उसे धर्म और जिसे निषेध रूप में नहीं करने को कहा गया है वही तो अधर्म है. और आपका उपदेश तो आप पर ही लागू होता है.इस हिसाब से तो मेरे पति सास ससुर, बेटा सब आप हुए.

ठाकुर जी बोले - कैसे?

गोपियाँ कहती है - ये आत्मा ही समस्त जीव आत्माओ की आत्मा है अर्थात तुम परमात्मा ही सबकी आत्मा हो.इस सम्बन्ध में तीन बाते है -अप सबकी १. आत्मा है  २. प्रेष्ठ (प्रियतम)है. ३. ईश्वर है.

आप ही कहते है मै सबकी आत्मा हूँ, प्रियतम हूँ, और स्वयं भूल गए.  हम गवारनियाँ वेद, धर्म ,पति की सेवा क्या जाने? यदि किसी स्त्री का पति परदेश चला गया हो तो वह स्त्री अपने पति की फोटो या मिट्टी की मूर्ति की पूजा सेवा करती है एक दिन जब वह फोटो की पूजा कर रही थी उसी समय उसका पति दरवाजे खड़ा है अब उस स्त्री को क्या करना चाहिए?

जाहिर सी बात है जब साक्षात् पति दरवाजे पर खड़ा है तब फोटो की पूजा क्यों करनी.ठीक वैसे ही संसार के सारे सम्बन्ध तभी तक है जब तक साक्षात् आप नहीं आ जाते जब आप आ गए तब सभी सम्बन्ध फोटो या मिट्टी की मूर्ति के जैसे है.

ठाकुर जी ठगे से खड़े रह गए, जितना लेक्चर ठाकुर जी ने दिया गोपियों ने वेद के सिद्धात से ही उनकी बात काट दी, अब ठाकुर जी की हालत खराब हो गई.

गोपियाँ कहती है धर्म शब्द का क्या अर्थ है ? धर्म का अर्थ है धारण करने योग्य. जैसे शरीर को धारण करने के लिए हवा पानी खाना खाते है इसी तरह आत्मा को धारण करने के लिए कौन सी चीज ली जाए. इस प्रकार दो धर्म हो गए. "आत्मा" को धारण करने वाला धर्म, और दूसरा "शरीर" को धारण करने वाला धर्म.

शरीर अनित्य, नश्वर है इसलिए इसे धारण करने वाला धर्म भी अनित्य, नश्वर है, और आत्मा नित्य और शाश्वत है इसलिए उसे धारण करने वाला धर्म भी नित्य और शाश्वत है. तृषित

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