रास लीला (आध्यात्मिक पक्ष)
श्रीमद्भागवत में ये रासलीला के ‘पाँच अध्याय’ उसके ‘पाँच प्राण’ माने जाते है भगवान श्रीकृष्ण की परम अंतरगलीला, निजस्वरुपभूता गोपिकाओ और हादिनी शक्ति श्रीराधिका जी के साथ होने वाली दिव्यातिदिव्य क्रीडा है.
भगवान श्रीकृष्ण आत्मा है, आत्माकार वृति श्रीराधा है और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ है. उनका धाराप्रवाह रूप से निरंतर आत्मरमण ही ‘रास’ है.‘रास’ शब्द का मूल- रस है और रस स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही है-‘रसो वै स:’ जिस दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसो के रूप में होकर अनंत–अनंत रस का समास्वादन करे उसका नाम रास है.
इस पंचाध्यायी में वंशीध्वनि, गोपियों के अभिसार, श्रीकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, रमण, श्रीराधाजी के साथ अंतर्धान, पुन: प्राकट्य, गोपियों के द्वारा दिए हुए वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रासक्रीडा, जलकेलि, और वनविहार का वर्णन है जो परम दिव्य है.
समय के साथ ही मानव मस्तिष्क भी पलटता रहता है कभी अंतर्द्रष्टि की प्रधानता हो जाती है और कभी वहिर्द्रष्टि की आज का युग ही ऐसा है, जिसमे भगवान की दिव्य लीलाओ की बात तो क्या, स्वयं भगवान के अस्तित्व पर ही अविश्वास प्रकट किया जा रहा है ऐसी स्थिति में इस दिव्यलीला का रहस्य न समझकर लोग तरह-तरह की आशंका प्रकट करे इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है.
यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान का शरीर जीव-शरीर की भांति जड़ नहीं होता. जड़ की सत्ता केवल जीव की दृष्टि में होती है, भगवान की द्रृष्टि में नहीं, यह देह है, और यह देहि है, इस प्रकार का भेदभाव केवल प्रकृति के राज्य में होता है. अप्राकृत लोक में - जहाँ की प्रकृति भी चिन्मय है - सब कुछ चिन्मय ही होता है, वहाँ अचित की प्रतीति तो केवल भगवान की लीला की सिद्धि के लिए होती है .इसलिए जड़ राज्य में रहने वाला मस्तिष्क जब भगवान की अप्राकृत लीलाओ के सम्बन्ध में विचार करने लगता है
तब वह अपनी पूर्व वासनाओ के अनुसार जड़ राज्य की धारणाओं, कल्पनाओं, और क्रियाओ का ही आरोप उस दिव्य राज्य के विषय में भी करता है. जड़ जगत की बात तो दूर रही, ज्ञानरूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता, इस रस की स्फूर्ति तो केवल परम भावमयी श्रीकृष्ण प्रेमस्वरुपा गोपीजनो के मधुर ह्रदय में ही होती है दूसरे लोग तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.
भगवान के समान ही गोपियाँ भी परमरसमयी और सच्चिदानंदमयी ही है साधना की द्रृष्टि से भी उन्होंने न केवल जड़ शरीर का ही त्याग कर दिया है बल्कि सूक्ष्म शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग, कैवल्य से, अनुभव होने वाले मोक्ष – और तो क्या,जडता की द्रष्टि का ही त्याग कर दिया है उनकी इस अलौकिक स्थिति में स्थूल शरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्ध से, होने वाले अंग-संग की कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती
“यह उच्चतम भावराज्य की लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन, से परे है. आवरण भंग के अंतरंग चीरहरण करके जब भगवान स्वीकृति देते है तब इसमें प्रवेश होता है.”.
भगवान श्रीकृष्ण का भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त, मांस, अस्थिमय है ही नहीं. वह तो सर्वथा चिदानंदमय है उसमे देह-देही, गुण-गुणी, नाम-नामी, लीला और लीलापुरुषोत्तम का भेद नहीं है, श्रीकृष्ण का एक-एक अंग पूर्ण है. श्रीकृष्ण का मुखमंडल, जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण है, श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी काम हो सकते है, उनके कान देख सकते है, उनकी आँखे सुन सकती है, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनके हाथ से देख सकते है, आँखे चल सकती है, श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण होने के कारण वह सर्वथा पूर्णतम है.
भगवान का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी स्रष्टि का है, और न दैवी ही है, इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है उपनिषद् में भगवान को ‘अखंड ब्रह्मचारी’ बताया गया है फिर कोई शंका करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए. तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भगवती सृष्टि थी. भगवान के संकल्प से हुई थी. भगवान के शरीर में जो रक्त-मांस दिखलाई पड़ते है, वह तो भगवान की योगमाया का चमत्कार है इससे यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवतराज्य की लीला है, लौकिक काम-क्रीडा नहीं .
साधना के दो भेद है-
मर्यादापूर्ण वैध साधना.
मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना.
दोनों के ही अपने अपने स्वतंत्र नियम है.
मर्यादापूर्ण वैध साधना - वैध साधना में, जैसे नियमों के बंधन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का, और विविध पालनीय कर्मो का त्याग, साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है.
मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना- अवैध प्रेम साधना में इनका पालन कलंक रूप होता है, यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेमासाधना का साधक जान बूझकर छोड़ देता है, बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है ये वहाँ अपने–आप वैसे ही छूट जाते है जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है.
भगवान ने गीता में कहा है- “ सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ”.
‘हे अर्जुन! तू सारे धर्मो का त्याग करके केवल एक मेरी शरण में आ जा’. सत्यजीत तृषित