Monday, 30 November 2015

वासुदेवं सर्वम्

जय श्री कृष्णा"

"वासुदेवः सर्वम्" सब कुछ एक भगवान् ही है...

'वासुदेवः सर्वम्'-यह गीता का सर्वोच्च सिद्धान्त है।
हमारी दृष्टि में 'सर्वम्' (संसार) की सत्ता है, इसलिए भगवान् ने हमें समझाने के लिए 'वासुदेवः सर्वम्' कहा है।

वास्तव में केवल वासुदेव-ही-वासुदेव है, 'सर्वम्' है ही नहीं ! कारण कि असत् होने से
'सर्वम्' की सत्ता विद्यमान ही नहीं है- 'नासतो विद्यते भावः' (गीता २ । १६)।

जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसे ही जल दीखता है।
प्यास न हो तो जल सामने रहते हुए भी दीखता नहीं।
ऐसे ही जिसके भीतर परमात्मा की प्यास (लालसा) है, उसे परमात्मा दीखते हैं और जिसके भीतर संसार की प्यास है, उसे संसार
दीखता है।

परमात्मा की प्यास हो तो संसार लुप्त हो जाता है और संसार की प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं।
तात्पर्य है कि संसार की प्यास होने से संसार न होते हुए भी मृगमरीचिका की तरह दीखने लग जाता है और परमात्मा की प्यास होने से परमात्मा न दीखने पर भी दीखने लग जाते हैं।

परमात्मा की प्यास जाग्रत होने पर भक्त को भूतकाल का चिंतन नहीं होता, भविष्य की आशा नहीं रहती और वर्तमान में उसे प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता।

परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज (गीता-प्रबोधनी, अ० ७ । १९)

जय जय श्री राधे

संघर्ष। खेल और उत्सव

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा-‘गुरु जी,कुछ लोग कहते हैं कि  जीवन एक संघर्ष है,कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं | इनमें कौन सही है?’गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया-‘पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं,मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं |

Saturday, 28 November 2015

विरह में गोपियों की दशा

विरह में गोपियों की दशा

भगवान सहसा अंतर्धान हो गये. उन्हें न देखकर व्रजयुवतियो के हदय में विरह की ज्वाला जलने लगी - भगवान की मदोन्मत्त चाल, प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओ और श्रृंगाररस की भाव-भंगियो ने उनके चित्त को चुरा लिया था. वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयी और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं और लीलाओ का अनुकरण करने लगी. अपने प्रियतम की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन- बोलन आदि मे श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयी.

उनके शरीर में भी वही गति-मति वही भाव-भंगिमा उतर आयी, वे अपने को सर्वथा भूलकर ‘श्रीकृष्ण स्वरुप’ हो गयी. ‘मै श्रीकृष्ण ही हूँ’ इस प्रकार कहने लगी वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्ही के गुणों का गान करने लगी. मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगी. वे पेड-पौधों से उनका पता पूछने लगी – हे पीपल, बरगद! नंदनंदन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुस्कान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये है क्या तुमने उन्हें देखा है ?

‘बहन तुलसी ! तुम्हारा हदय तो बड़ा कोमल है भगवान के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते है क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दर को देखा है ?

हे! भगवान की प्रियसी पृथ्वीदेवी ! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके आनंद से भर रही हो. इस प्रकार गोपियाँ प्रलाप करने लगी.

अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान की लीलाओ का अनुकरण करने लगी - एक पूतना बन गयी, दूसरी कृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगी.. कोई छकडा बन गयी, तो किसी में बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैर की ठोकर मारकर उलट दिया.. कोई गोपी पाँव घसीट-घसीट कर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे..

कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती – ‘अरे! व्रजवासियो, तुम आँधी-पानी से मत डरो मैंने उससे बचने का उपाय निकाल लिया है ऐसा कहकर गोवर्धन-धारण का अनुकरण करती हुई वह अपनी ओंढनी उठाकर ऊपर तान लेती है.. एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिर पर पैर रखकर चढ़ी और बोलने लगी – ‘रे दुष्ट साँप!, तू यहाँ से चला जा, मै दुष्टों का दमन करने के लिए ही उत्पन्न हुआ हूँ .. इतने में ही एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी श्रीकृष्ण बनी यशोदा ने फूलों कि माला से श्रीकृष्ण को ऊखल से बाँध दिया अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई गोपी हाथों से मुहँ ढँककर भय की नक़ल करने लगी.

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरे को भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिन्ह देखलाती हुई वन-वन में भटक रही थी. इधर भगवान श्रीकृष्ण दुसरी गोपियों को वन में छोडकर जिस भाग्यवती गोपी को एकांत में ले गये थे उसने समझा कि ‘मै ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ’ इसलिए तो बाकि को छोडकर प्यारे केवल मेरा ही मान करते है वे भगवान से कहने लगी प्यारे मुझसे अब तो और नहीं चला जाता मै तो बहुत थक गयी हूँ अब तो जहाँ चलना हो, मुझे अपने कंधे पर चढाकर ले चलो.

अपनी प्रियतमा की बात सुनकर श्यामसुन्दर ने कहा – ‘अच्छा प्यारी!, तुम मेरे कंधे पर चढ़ लो यह सुनकर वह गोपी ज्यो ही उनके कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गये और वह गोपी रोने-पछताने लगी, बाकि की गोपियँ चरणचिन्हों के सहारे ढूँढती हुई वहाँ जा पहुँची उन्होंने देखा उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी है जब उन्होंने उसे जगाया तो उसने कहा – मैंने कुटिलता वश उनका अपमान किया इससे वे अंतर्धान हो गये.

श्रीकृष्ण के ध्यान में डूबी गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर रमणरेती में लौट आयी और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगी .सबने एक साथ, एक ही स्वर में, 'गोपी-गीत' गाया.
राजा परीक्षित जी ने शुकदेव जी से पूंछा - कि सब ने एक ही साथ कैसे एक ही गीत गाया?

शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित जब सब गोपियों के मन की दशा एक जैसी ही थी, सबके भाव की एक ही दशा थी, तब उन करोड़ो गोपियों के मुँह से एक ही गीत, एक साथ निकला,इसमें आश्चर्य कैसा ? उन अनेको गोपियों ने अठारह यूथ बना लिए और उन्नीसवी गोपी स्वयं में ही था इस प्रकार उन्नीस गोपियों के यूथ बन गये, गोपी गीत में भी उन्नीस श्लोको है. गोपी गीत `कनक मंजरी’ छंद में है.
सार-
भगवान को अभिमान अच्छा नहीं लगता,भक्त का मान तोडने के लिए की भगवान ने अंतर्ध्यान करने की लीला की.
सत्यजीत तृषित
“ जय जय श्री राधे ”

भगवान का प्रकट हो कर गोपी को सांत्वना देना

भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सांत्वना देना
भगवान की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार भांति-भांति से गाने और प्रलाप करने लगी. अपने कृष्ण-प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकी और करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगी. ठीक उसी समय उनके बीचो-बीच भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये, उनका मुखकमल मंद-मंद मुसकान से खिला हुआ था. उनका वह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मन को भी मथने वाला था. कोटि-कोटि कामो से भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनंद से खिल उठे. वे सब-के-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुई मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो.

‘एक गोपी’ ने बड़े प्रेम और आनंद से श्रीकृष्ण के करकमलो को अपने दोनों हाथों में ले लिए और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी. ‘दूसरी गोपी’ ने उनके चंदनचर्चित भुजदंड को अपने कंधे पर रख लिए.

‘तीसरी’ ने भगवान का चबाया हुआ पान अपने हाथों में ले लिया. ‘चौथी गोपी’ जिसके ह्रदय में भगवान के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी, और उनके चरणकमलों को अपने वक्ष:स्थल पर रख लिया. ‘पाँचवी गोपी’ प्रणय कोप से विहल होकर भौहे चढाकर दांतों से होठ दबाकर अपने कटाक्ष बाणों से बीधती हुई उनकी ओर ताकने लगी.

‘छठी गोपी’ नेत्रो के मार्ग से भगवान को अपने ह्रदय में ले गयी ओर फिर उसने आँखे बंद कर ली अब मन-ही मन भगवान का आलिंगन करने से उसका शरीर पुलकित हो गया जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुष को प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते है वैसे ही सभी गोपियो को भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से परम आनंद और परम उल्लास प्राप्त हुआ.

यमुना जी के पुलिन पर भगवान सभी गोपियों के साथ आ गये अब उन गोपियों ने अपने वक्ष:स्थल पर लगी हुई रोली-केसर से चिन्हित ओढ़नी को अपने परम प्यारे श्रीकृष्ण के विराजने के लिए बिछा दिया. बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिए आसन की कल्पना करते रहते है किन्तु फिर भी अपने ह्रदय सिंहासन पर बिठा नहीं पाते वही सर्वशक्तिमान भगवान यमुनाजी की रेति मे गोपियों की ओढनी पर बैठ गये सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों के बीच में उनसे पूजित होकर भगवान बड़े ही शोभायमान हो रहे थे.

गोपियों ने कहा- ‘नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते है जो प्रेम करनेवालो से ही प्रेम करते है, और कुछ लोग प्रेम न करने वालो से भी प्रेम करते है, परन्तु कोई-कोई दोनों से ही नहीं प्रेम नहीं करते. प्यारे! इन तीनो में तुम्हे कौन-सा अच्छा लगता है

भगवान ने कहा – मेरी प्रिये सखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते है उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है, लेन-देन मात्र है. और जो लोग प्रेम न करने वालो से भी प्रेम करते है जैसे माता-पिता, सच पूंछो तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य और पूर्ण धर्म भी है.

कुछ लोग प्रेम न करने वालो और प्रेम करने वालो दोनों से ही प्रेम नहीं करते ऐसे लोग चार प्रकार के होते है - एक तो वे जो अपने स्वरुप में ही मस्त होते है, जिनमे द्वैत नहीं होता, और दूसरे जिनमे द्वैत भासता है परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके है. तीसरे वे है जो जानते ही नहीं कि हम से कौन प्रेम करता है. चौथे वे है जो जानबूझकर अपने गुरुतुल्य लोगो से भी द्रोह करते है. गोपियों मै तो प्रेम करने वालो से भी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिये. मै ऐसा केवल इसलिए करता हूँ कि उनकी चित्तवृति और भी मुझमें लगे.

जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत-सा धन मिल जाये और फिर खो जाये तो उसका हदय खोये हुए धन कि चिंता से भर जाता है वैसे ही में मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ. मेरी प्यारी गोपियों तुमने मेरे लिए घर-गृहस्थी की उन बेडियो को तोड़ डाला जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते. “ यदि मै अमर शरीर से, अमर जीवन से अनंत काल तक, तुम्हारे प्रेम सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता. मै तो जन्म-जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूँ", तुम अपने सौम्य स्वभाव से प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो, परन्तु मै तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ ”. 
सत्यजीत तृषित

महारास

महारास--
भगवान श्रीकृष्ण कि प्रियसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाहँ-में-बाहँ डाले खड़ी थी.उन के साथ यमुनाजी के पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारंभ की.

रास लीला में स्वयं भगवान शंकर आये रास के बाहर भगवान की सखी ललिता जी ने उन्हें युगल मंत्र का उपदेश दिया और गोपी का श्रंगार कराया फिर रास में प्रवेश कराया. सम्पूर्ण योगो के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गये और उनके गले में अपने हाथ डाल दिए. इस प्रकार एक गोपी और एक कृष्ण यही क्रम था. गोपियाँ यही अनुभव कर रही थी कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास है,

उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़ लग गयी. रासमंडल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगी. उनकी कलाईयो के कंगन पैरों के पायजेब और करधनी के छोटे-छोटे घुँघुरू एक साथ बज उठे. उस यमुनाजी की रमणरेती पर ब्रजसुन्दरियो के बीच में भगवान श्रीकृष्ण की बड़ी अनोखी शोभा हुई ऐसा जान पडता था मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियो के बीच में, ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो.

नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमक-ठुमककर अपने पाँव कभी आगे बढाती, और कभी पीछे हटा लेती, कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखती, तो कभी बड़े वेग से, कभी चाक की तरह घूम जाती, कभी अपने हाथ उठ-उठाकर भाव बताती तो कभी विभिन्न प्रकार से उन्हें चमकाती. कानो के कुंडल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे नाचने के परिश्रम से उनके मुहँ पर पसीने की बूंदें झलकने से उनके मुख की छटा निराली ही हो गयी थी केशो की चोटियाँ कुछ ढीली पड़ गयी थी उनमे गुंथे हुए फूल गिरते जा रहे थे भगवान के अंगों के संस्पर्श से गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेम और आनंद से विहल हो गयी उनके केश बिखर गये, गहने अस्त-व्यस्त हो गये. भगवान ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रखा था. उस समय ऐसा जान पडता था मानो बहुत से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ मंडल है और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली है.

एक सखी श्रीकृष्ण से सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वर में मधुर गान कर रही थी कोई गोपी भगवान के स्वर में स्वर मिलकर गाने लगी एक सखी ने ध्रुपदराग में गाया.भगवान ने वाह-वाह कहकर उसकी प्रशंसा की. अब भगवान ने अपनी थकान दूर करने के लिए गोपियों के साथ जलक्रीड़ा करने के उद्देश्य से यमुना के जल में प्रवेश किया.यमुना जल में गोपियों ने प्रेम भरी चितवन से भगवान की ओर देख-देखकर हँस-हँसकर उन पर इधर-उधर से जल की खूब बौछारे डाली. जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया.

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रजयुवतियो ओर भौरों की भीड़ से घिरे हुए यमुना तट के उपवन में गये. वह बड़ा ही रमणीय था उसके चारो ओर जल और स्थल मे बड़ी सुन्दर सुगंधवाले फूल खिले हुए थे. भगवान ने गोपियों के साथ उस उपवन में विहार किया. ब्रह्मा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी. ब्राह्ममुहूर्त आया, यधपि गोपियों की इच्छा अपने घर लौटने की नहीं थी, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से वे अपने-अपने घर चली गयी .
सार –
जो धीर पुरुष व्रजयुवतियो के साथ भगवान श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास-विलास का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है उसे भगवान के चरणों में पराभक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने ह्रदय के रोग कामविकार से छुटकारा पा जाता है उसका कामभाव सर्वदा के लिए नष्ट हो जाता है.

सत्यजीत तृषित
“ जय जय श्री राधे ”

रासलीला अध्यात्मिक पक्ष

रास लीला (आध्यात्मिक पक्ष)

श्रीमद्भागवत में ये रासलीला के ‘पाँच अध्याय’ उसके ‘पाँच प्राण’ माने जाते है भगवान श्रीकृष्ण की परम अंतरगलीला, निजस्वरुपभूता गोपिकाओ और हादिनी शक्ति श्रीराधिका जी के साथ होने वाली दिव्यातिदिव्य क्रीडा है.


भगवान श्रीकृष्ण आत्मा है, आत्माकार वृति श्रीराधा है और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ है. उनका धाराप्रवाह रूप से निरंतर आत्मरमण ही ‘रास’ है.‘रास’ शब्द का मूल- रस है और रस स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही है-‘रसो वै स:’ जिस दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसो के रूप में होकर अनंत–अनंत रस का समास्वादन करे उसका नाम रास है.

इस पंचाध्यायी में वंशीध्वनि, गोपियों के अभिसार, श्रीकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, रमण, श्रीराधाजी के साथ अंतर्धान, पुन: प्राकट्य, गोपियों के द्वारा दिए हुए वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रासक्रीडा, जलकेलि, और वनविहार का वर्णन है जो परम दिव्य है.

समय के साथ ही मानव मस्तिष्क भी पलटता रहता है कभी अंतर्द्रष्टि की प्रधानता हो जाती है और कभी वहिर्द्रष्टि की आज का युग ही ऐसा है, जिसमे भगवान की दिव्य लीलाओ की बात तो क्या, स्वयं भगवान के अस्तित्व पर ही अविश्वास प्रकट किया जा रहा है ऐसी स्थिति में इस दिव्यलीला का रहस्य न समझकर लोग तरह-तरह की आशंका प्रकट करे इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है.
यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान का शरीर जीव-शरीर की भांति जड़ नहीं होता. जड़ की सत्ता केवल जीव की दृष्टि में होती है, भगवान की द्रृष्टि में नहीं, यह देह है, और यह देहि है, इस प्रकार का भेदभाव केवल प्रकृति के राज्य में होता है. अप्राकृत लोक में - जहाँ की प्रकृति भी चिन्मय है - सब कुछ चिन्मय ही होता है, वहाँ अचित की प्रतीति तो केवल भगवान की लीला की सिद्धि के लिए होती है .इसलिए जड़ राज्य में रहने वाला मस्तिष्क जब भगवान की अप्राकृत लीलाओ के सम्बन्ध में विचार करने लगता है

तब वह अपनी पूर्व वासनाओ के अनुसार जड़ राज्य की धारणाओं, कल्पनाओं, और क्रियाओ का ही आरोप उस दिव्य राज्य के विषय में भी करता है. जड़ जगत की बात तो दूर रही, ज्ञानरूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता, इस रस की स्फूर्ति तो केवल परम भावमयी श्रीकृष्ण प्रेमस्वरुपा गोपीजनो के मधुर ह्रदय में ही होती है दूसरे लोग तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.

भगवान के समान ही गोपियाँ भी परमरसमयी और सच्चिदानंदमयी ही है साधना की द्रृष्टि से भी उन्होंने न केवल जड़ शरीर का ही त्याग कर दिया है बल्कि सूक्ष्म शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग, कैवल्य से, अनुभव होने वाले मोक्ष – और तो क्या,जडता की द्रष्टि का ही त्याग कर दिया है उनकी इस अलौकिक स्थिति में स्थूल शरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्ध से, होने वाले अंग-संग की कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती 

“यह उच्चतम भावराज्य की लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन, से परे है. आवरण भंग के अंतरंग चीरहरण करके जब भगवान स्वीकृति देते है तब इसमें प्रवेश होता है.”.
भगवान श्रीकृष्ण का भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त, मांस, अस्थिमय है ही नहीं. वह तो सर्वथा चिदानंदमय है उसमे देह-देही, गुण-गुणी, नाम-नामी, लीला और लीलापुरुषोत्तम का भेद नहीं है, श्रीकृष्ण का एक-एक अंग पूर्ण है. श्रीकृष्ण का मुखमंडल, जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण है, श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी काम हो सकते है, उनके कान देख सकते है, उनकी आँखे सुन सकती है, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनके हाथ से देख सकते है, आँखे चल सकती है, श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण होने के कारण वह सर्वथा पूर्णतम है.

भगवान का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी स्रष्टि का है, और न दैवी ही है, इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है उपनिषद् में भगवान को ‘अखंड ब्रह्मचारी’ बताया गया है फिर कोई शंका करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए. तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भगवती सृष्टि थी. भगवान के संकल्प से हुई थी. भगवान के शरीर में जो रक्त-मांस दिखलाई पड़ते है, वह तो भगवान की योगमाया का चमत्कार है इससे यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवतराज्य की लीला है, लौकिक काम-क्रीडा नहीं .


साधना के दो भेद है-
मर्यादापूर्ण वैध साधना.
मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना.

दोनों के ही अपने अपने स्वतंत्र नियम है.


मर्यादापूर्ण वैध साधना - वैध साधना में, जैसे नियमों के बंधन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का, और विविध पालनीय कर्मो का त्याग, साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है. 


मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना- अवैध प्रेम साधना में इनका पालन कलंक रूप होता है, यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेमासाधना का साधक जान बूझकर छोड़ देता है, बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है ये वहाँ अपने–आप वैसे ही छूट जाते है जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है.

भगवान ने गीता में कहा है- “ सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं  व्रज ”.

‘हे अर्जुन! तू सारे धर्मो का त्याग करके केवल एक मेरी शरण में आ जा’. सत्यजीत तृषित

गोपियों की पूजा पद्धति

गोपियों की पूजा पद्धति

अपने निजजन ब्रजवासियो को सुखी करने के लिये ही तो भगवान गोकुल में पधारे थे. माखन तो नंदबाबा के घर पर कम ना था . “नव लख धेनु नंदबाबा घर”- नन्द बाबा के घर लाख-लाख गौएँ थी. वे चाहे जितना खाते-लुटाते .परन्तु वे तो केवल नंदबाबा के ही नहीं, सभी ब्रजवासियों के अपने थे, गोपियों की लालसा पूरी करने के लिये ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते. यह वास्तव में चोरी नहीं, ये तो गोपियों की 'पूजा-पद्धति' का भगवान के द्वारा स्वीकार था.भक्तवत्सल भगवान भक्त की पूजा स्वीकार कैसे न करे?

एक दिन श्याम सुन्दर कह रहे थे, मैया ! मुझे माखन भाता है, तू मेवा पकवान के लिये कहते है, परन्तु मुझे तो वे रुचते ही नहीं.’ वही पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दर की बात सुन रही थी .उसने मन-ही-मन कामना की- मै कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी, ये मथानी के पास जाकर बैठेगे, तब मै छिप रहूँगी.’ प्रभु तो अंतर्यामी है, गोपी के मन की जान गये और उसके घर पहुँचे और उसके घर माखन खाकर उसे सुख दिया -

"फूली फिरति ग्वालि मन में री. पूछति सखी परस्पर बातैं पायो परयौ कछु कहुँ तै री ?..
  पुलकित रोम-रोम गद्गद् मुख बानी कहत न आवै .ऐसौ कहा आहि सों सखी री,
हम कौ क्यों ना सुनावै.. तन न्यारा, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप .
        सूरदास कहै ग्वाली सखिनि सौ, देख्यौ रूप अनूप" .. -

उसे इतना आनंद हुआ कि वह फूली ना समायी. वह खुशी से छककर फूली-फूली फिरने लगी.आनन्द उसके हृदय में समां नहीं रहा है. सखी ने पूछा – ‘अरी, तुझे कही कुछ पडा़ धन मिल गया क्या ? वह तो सुनकर और भी प्रेमविहल हो गयी .उसका रोम-रोम खिल उठा, मुँह से बोली नहीं निकली.सखियो ने कहा - सखि क्या बात है हमें सुनाती क्यों नहीं? हमारे तो शरीर ही दो है, हमारा तो जी एक ही है - हम तुम दोनों एक ही रूप है. तब उसके मुँह से इतना ही निकला – ‘मैंने आज अनुप रूप देखा है’ बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेम के आँसू बहने लगे! सभी गोपियों की यही दशा थी.

रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होने की बाट देखती. उनका मन श्रीकृष्ण में लगा रहता. प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छेके पर रखती, कही प्राणधन आकर लौट न जाये, इसलिए सब काम छोडकर वे सबसे पहले यही काम करती और श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा में व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचती- ‘हा ! आज प्राणप्रियतम क्यों नहीं आये? इतनी देर क्यों हो गयी? क्या आज इस दासी का घर पवित्र न करगे? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखन का भोग लगाकर स्वंय सुखी होकर मुझे सुख न देगे? आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षण में दौडकर दरवाजे पर जाती, लाज छोडकर रास्ते की ओर देखती, सखियों से पूछती.एक-एक निमेष उसके लिये युग के समान हो जाता .ऐसी गोपी की मनोकामना भगवान क्यों पूरी नहीं करेगे ?
सत्यजीत तृषित
“ जय जय श्री राधे ”