वृन्दारण्येऽद्भुतरसमये यत्र यत्रैव राधा-
कृष्णौ नित्योन्मद रतिकलापारतृष्णौ प्रयातः।
गायदृ भृंगीगण शुकपिकाद्युन्नटद्वर्हिवृन्दं
तत्रैवाऽनुब्रजदवनिजाः पुष्मालाद्यवर्षन्।।1।।
अद्भुत रसमय श्रीवृन्दावन ने जहाँ जहाँ नित्योन्मद रति केलि में असीम तृष्णाशील श्रीराधा-कृष्ण गमन करते हैं, वहाँ वहाँ भ्रमरगण शुक-पिकादि भी गान करते हैं एवं मयूर समूह नृत्य करते हुए अनुगमन करते हैं तथा वृक्षगण भी पुष्प माल्यादि की वहाँ वर्षा करते हैं।।1।।
यावद्राधापदनखमणि चन्द्रिका नाविरास्ते
तावद् वृन्दावनभुवि मुदं नैति चेतश्चकोरी।
यावद वृन्दावनभुवि भवेन्नापि निष्ठा गरिष्ठा
तावत् राधाचरणकरुणा नैव तादृश्युदेति।।2।।
जब तक श्रीराधा के पद नख की चन्द्रिका श्रीवृन्दावन-भूमि पर आविर्भूत नहीं होती, तब तक चित्त-चकोरी को आनन्द नहीं प्राप्त होता, और जब तक श्रीवृन्दावन-भूमि में पूर्ण निष्ठा नहीं होती, तब तक श्रीराधा चरण की कृपा भी पूर्ण रीति से उदित नहीं हो पाती।।2।
मुक्ताहाराः सुरुचिरगुणाः स्वच्छतामादधानाः
कृष्णस्यूताः स्वयमुपहिताराधया कण्ठपीठे।
त्वच्चेद् वृन्दावनभुविलुठंस्तादृशः स्या महात्मन्
नूनं तादृक् पदमपि न ते दुर्लभं हन्त भावि।।3।।
अत्यन्त मनोहर गुणयुक्त अति निर्मल मुक्ताहार जो श्रीकृष्ण ने ग्रथित किये थे, श्रीराधा ने स्वयं ही अपने गले में पहन लिये हैं, हे महात्मन! तुम भी यदि श्रीवृन्दावन भूमि पर लोट लोट कर इस प्रकार सेवक हो सको तो यह (दास्य) सेवा की प्राप्ति तुम्हारे लिये भी कुछ दुर्लभ नहीं है - यह निश्चित जानो।।3।।
श्रीवृन्दावनकुञ्जमञ्जु लतमः पुञ्जे कलानां चतुः
षष्ठैः कोऽपिनिधिः सदोज्ज्लतम श्यामः शशिमोहनः
आश्चर्यैक नवीन हेम कमलिन्यूर्द्धाम्बुजं चुम्बति
प्रेक्ष्य प्रेक्ष्य तदेव विस्मितमनाः सौख्याम्बुधौमज्जतु।।4।।
श्रीवृन्दावन के कुञ्जों के मनोहर अन्धकार में कोई चैंसठ कलानिधि सर्वदा उज्ज्वलतम श्याम वर्ण मोहन चन्द्र विराजमान है वह एक अति आश्चर्यमय नवीन स्वर्ण-कमलिनी (श्रीराधा) का मुख कमल चुम्बन कर रहा है, इसे देख कर विस्मित होते हुए सुखसागर में मग्न होवो।।4।।
अरक्त रुचिरारुणाधर कराङ्घ्रि पंकैरुहा
मनंजित सुनीलदृक्कुवलयाम मृष्टोज्ज्लाम्।
असंस्कृत सुचिक्कण प्रचुर कुन्तलां राधिका-
मभूषण विभूपितां स्मर सदाऽत्र वृन्दावने।।5।।
रंजित नहीं है तो भी जिनके अधर तथा पादपद्म सुन्दर लालवर्ण के हैं, काजलविहीन होते हुए भी जिनके नेत्र युगल कुवलय की भाँति उज्ज्वल हैं, संवारे हुए न होने पर भी घुंघराले हैं जिनके केश समूह, इस प्रकार भूषण रहित होते हुए भी जो विभूषिता श्रीराधाजी हैं, उनका सदा श्रीवृन्दावन में स्मरण कर।।5।।
श्रीवृन्दावन जीवना इह महाभागा यदा जीवना
दप्येते वत वल्लभा नहि तथा वृन्दाटवी दुर्लभा।
तादृक्सत्तम सत्कृपात उदिता वृन्दावने चेन्महा
प्रीति स्तर्ह्यचिरेण सापि सुलभा वृन्दावनाधीश्वरी।।6।।
जिनको श्रीवृन्दावन ही प्राण समान है, ऐसे महा भाग्यवान् पुरुष जिनको प्राणों से भी अत्यन्त प्यारे हैं, उन्हें श्रीवृन्दावन की प्राप्ति कभी दुर्लभ नहीं है, इस प्रकार के महापुरुषों की कृपा से यदि श्रीवृन्दावन में महा प्रीति उत्पन्न हो आवे, तो शीघ्र ही श्रीवृन्दावनाधीश्वरी श्रीराधा की प्राप्ति हो जाती है।।6।।
न राका राकायाः पतिरयमुदीते न सरसी
सरोजं प्रोत्फुल्लं विपुलपुलिनं भाति न नदी।
चमत्कुर्वन्त्येते तड़ित इह मेघा नहि जय
त्यहो श्रीराधा विस्मय कृदिह वृन्दावन वने।।7।।
पूर्णिमा नहीं है, तो भी पूर्णिमा-पति चन्द्र का उदय हो रहा है, सरोवर नहीं है, परन्तु पद्म प्रफुल्लित हो रहे हैं, नदी न होने पर भी, अनेक पुलिन शोभित हो रहे हैं, मेघ नहीं है परन्तु बिजली चमक रही है, अहो इस श्रीवृन्दावन में विस्मय कारिणी श्रीराधा ही जययुक्त हो रही है।।7।।
कान्ते! तल्पमिंद कृतार्थय नहि प्रेष्ठेऽपराधोऽस्य कः
श्यामे तच्चरितं न भद्रमपि किं वस्यामि तत्ते कियत्।
क्षन्तव्यं सकलं नहि त्यज पदं त्वत्यक्त तल्पेस्वपि-
म्यङ्घ्री ते उपलालये न निपुणो स्यांशिक्षतां किंकरः।।8।।
हे कान्ते! इस शय्या को कृतार्थ करो”- (उत्तर) “ना”। ‘प्रियतमे! इस दास से क्या अपराध हुआ है? (उत्तर) ‘हे श्याम! तुम्हारा इस प्रकार का चरित्र मुझे अच्छा नहीं लगता।’ “हाय! वह क्या”?- (उत्तर) ‘तो क्या तुम्हारे कुछ चरित्र को बताऊं?‘ “सब क्षमा करो, तुम यहाँ मुझे छोड़ कर चली मत जाना, तुम शय्या को त्याग न करो, तुम उस पर शयन करो मैं तुम्हारे चरणों को उपपालन करूंगा।’ (उत्तर)- ‘तुम इस विद्या में निपुण नहीं हो।’- “तो इस किंकर को आप ही शिक्षा दीजिये न”।।8।।
नष्टा ते खलु बुद्धिरुन्मद नहि त्वं तामहार्षीर्धृता
कृ स्वांगे वद यत्र किं मन करं चोल्यन्तरेन्याक्षिपः।
अत्रैवेती शुकार्भकान निगदतान् हुंकार-पुष्पाहतैः
स्मित्वोपालि निवारयन्त्यवतु मां राधाऽत्र वृन्दावने।।9।।
“हे उन्मद्! तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो गई है? (उत्तर) “नहीं, तुमने उसे चुरा लिया है।”- तो मैंने वह कहाँ रख दी है?” (उत्तर) “अपने अंगों में।” (प्रश्न) “जहाँ मेरा हाथ है, क्या वहीं?” (उत्तर) “कञ्चुकी के भीतर डाल दी है। तब शुकशावकगण ने कहा “यहाँ ही है”- इन वाक्यों को सुन कर सखियों के आगे हंसती हुई एवं हुंकार तथा पुष्पाघात से निवारण करती हुई श्रीराधा जी इस श्रीवृन्दावन में मेरी रक्षा करें।।9।।
सेयं प्राप्तिः कोटीचिन्तामणीनां
सेयं तृप्तिः कोटी पियूष पानात्।
सेयं सम्यग् भक्ति सन्मुक्ति कोटी-
र्यच्छ्री वृन्दारण्य आत्मार्पणेच्छा।।10।।
श्रीवृन्दावन को आत्मअर्पण करने की इच्छा करना ही कोटि चिन्तामणियों की प्राप्ति के समान है एवं कोटि अमृत पान से भी अधिक तृप्तिदायक है तथा सम्यक् भक्ति क्या कोटि मुक्तियों की प्राप्ति कर लेना है।।10।।
सेयं दीक्षा उच्चभावै र्व्रतेषु सेयं शिक्षा राधिकाराधनेषु।
सेयं प्रेमाधीश पूर्म्मूलकक्षायच्छ्री वृन्दारण्य सौभाग्य वीक्षा।।11।
श्रीवृन्दारण्य की सौभाग्यमय दर्शन-इच्छा ही उच्चतम भावयुक्त व्रतसमूहों में दीक्षा, एवं श्रीराधिका की आराधनाओं में दीक्षा तथा प्रेमाधीश्वर की पूरी की मूल (पराकाष्ठा) है।।11।।
यस्यैवोन्मद चारु चन्द्रिक शिखाचूड़ो यदिन्दीवर
श्रेणी श्यामल कोमलद्युतितनुर्यत् पुष्पमालादिवान्।
यद्दिव्योज्ज्वलधातु चित्रितवपुर्यन्मञ्जु गुञ्जावली
हारः श्रीहरि रत्यशोभत भजे तद्धन्यवृन्दावनम्।।12।।
जिसकी उन्माद-जनक सुन्दरता मोरपुच्छ ने श्रीहरि का शिरोभूषण हो रही है, जिसके नीलकमलों की श्यामलता कोमल ज्योतिपूर्ण श्रीहरि का विग्रहरूप हो रही है जिसके पुष्पों से श्रीहरि माल्यादि धारण करके भूषित होते हैं, जिसके दिव्य उज्ज्वल धातुओं से श्रीहरि अपने देह को चित्रित करते हैं, जिसकी मनोहर गुञ्जावली से बने हुए हारों को धारण करके श्रीहरि अपनी शोभावृद्धि करते हैं, उस महाभाग्यवान् श्रीवृन्दावन का मैं भजन करता हूँ।।12।।
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