Monday, 1 January 2018

पुष्टि मार्ग की 8 शर्तें

पुष्टि मार्ग की 8 शर्तें

पुष्टिमार्ग का पहला और अन्तिम जोर भगवत्कृपा पर है। प्रभु-कृपा का निरन्तर अनुभव करना, उसी पर अटूट विश्वास रखना, प्रभु सर्व प्रकार से सर्वदा भक्त की रक्षा करेगें, यह दृढ़ विश्वास बनाये रखते हुए जीवन की हर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में विवेक और धैर्य बनाये रखना तथा अशक्य या सुशक्य, सहज या कठिनतम, हर स्थिति में प्रभु श्रीकृष्ण का ही अनन्य आश्रय रखना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की अनिवार्य शर्त है। १. पुष्टिमार्गीय वैष्णव किसी कामना की पूर्ति या कष्ट-निवारण के लिए प्रार्थना नही करता। प्रभु सर्वत्र हैं, हमारे अन्तर्यामी हैं, हमारे परम हितैषी हैं, सर्वसमर्थ हैं। अतः न तो हमें चिन्ता करनी चाहिए और न याचनारूप में प्रार्थना करनी चाहिए। २. वैष्णव जीवन सहज होता है। उसमें हठ या दुराग्रह का स्थान नहीं है। अतः सहज जीवन जीना चाहिए। ३. महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य का मत है कि विद्वान् सन्मार्ग के रक्षक हैं, अतः उन्हें निर्भीक होकर अपनी बात कहनी चाहिए। समाज और शासन का भी कर्त्तव्य है कि वे विद्वानों की बात सम्मानपूर्वक सुने, उनकी रक्षा करें और उनकी आजिविका की व्यवस्था करें। ४. पुष्टिमार्ग आचरण पक्ष पर विशेष बल देता है। श्रीवल्लभाचार्य का आदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्ति से स्वधर्म का पालन करें, चाहे कैसा ही भय या प्रालोभन क्यों न हो, विधर्म से बचना चाहिए। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर पूर्ण पवित्र जीवन जीना चाहिए। यह सदा ध्यान में रखें कि विषयों से आक्रान्त देह में और विषयों से आविष्ट चित्त में भगवान् नहीं विराजते हैं। ५. जीवन और जगत् की अनेकरूपता और विविधता में भगवान् ही विभिन्न नाम-रूप धारण करके लीला कर रहे हैं, अतः जीवन की विविधता और विभिन्नता को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, उसका आनन्द लेना चाहिए। ६. सब कुछ भगवद्रूप है, भगवान् का है और भगवान् के लिए है, इसलिए कही भी स्वामित्व की भावना न रखें। कही भी अंतरतम से निजी रूप से न उलझे और न पलायन ही करे। विश्व के रंगमंच पर भगवान् ने हमें जो रोल दिया है, उसे अपनी सम्पूर्ण योग्यता से अदा करें। ७. पुष्टिमार्ग या सेवामार्ग की शिक्षा है कि राग, भोग और श्रृंगार की भावना को भगवान् की ओर मोड़ दे, उसका उन्नयन और परिष्कार करें। अपने सम्पूर्ण भावों को, रागात्मक वृत्ति को प्रभु को समर्पित कर दें। प्रभु ही भोक्ता हैं, उन्हें समर्पित कर भगवद्प्रसाद से जीवन-यापन करें। सौन्दर्य के महासमुद्र प्रभु श्रीकृष्ण है। अपनी सौन्दर्यवृत्ति और प्रेमवृत्ति को, अपनी रागात्मक वृत्ति को प्रेम और सौन्दर्य के निधान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दें। प्रभु कलानिधि हैं। सभी कलाएँ उन्हे समर्पित कर दें। कलाओं को भगवान् की सेवा में समर्पित करने से उनमें दिव्यता आ जाती है। सूरदास आदि महाकवियों के काव्य में इसी समर्पण की दिव्यता है। ८. भगवान् श्रीकृष्ण सदानन्द हैं, पूर्णानन्द हैं, अगणितानन्द हैं, पूर्ण पुरूषोत्तम हैं। जीव उनका अंश है। प्रभु-सेवा करते हुए प्रभुकश्पा से उसमें तिरोहित आनन्द का अविर्भाव होता है और जीव भगवद्-आनन्द से मग्न हो जाता है। यही जीवन का चरम और परम फल है। पुष्टिमार्ग उसी की राह दिखाता है। श्री गोवर्धनधरण श्रीनाथजी की कृपा से ही जीव इस पथ पर चलता है। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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