🙏🌷श्री यमुना जी महिमा🌷🙏
धन्य हैं वे श्रीयमुनाजी जिनका मूल स्वरूप इस प्रकार का है जो लौकिक दृष्टि से दिखाई भी नहीं देता! श्री हरिरायजी वल्लभ-साखी में आज्ञा करते हैं-
“ मणिन खचित दोउ कूल हैं ,सीढ़ी सुभग नग हीर
श्रीयमुनाजी हरि भामती, धरे सुभग वपु नीर…”
पदों में श्रीयमुनाजी के रसात्मक, भावात्मक, स्वरूपात्मक, फलात्मक और भक्तवत्सल स्वरूप का परिचय होता है।
“रास रस सागर श्री यमुने जु जानि…”
वे आधुनिक भक्तों की भी यूथेश्वरी हैं और उनका ध्येय है जीवों को प्रभु से मिलवाना, उनमें प्रभु के प्रति रति जगवाना और उन्हें लीलारस का अनुभव करवाना। किसी भी जीव को प्रभु के प्रति आसक्त देखकर उन्हें अति आह्लाद होता है। जैसा कि श्रीहरिरायजी आज्ञा करते हैं-
ब्रह्मसंबंध जब होत या जीव को, तब ही इनकी भुजा वाम फरके,
दौर कर सौर कर जाय पिय सों कहें, अति ही आनन्द मन में जु हरखे…”
श्रीयमुनाजी को प्रत्यक्ष विरह भी सिद्ध है क्योंकि वे सदा किसी न किसी रूप में श्रीठाकुरजी और श्रीस्वामिनीजी के संग विराजती हैं और उनकी समस्त लीलाओं के दर्शन करती हैं। सभी भक्तों को आगे प्रभु के सन्मुख करके वे आह्लादित तो होती हैं पर साथ ही साथ उन्हें प्रभु मिलन का विरह भी व्याप्त है। वे स्वयं विप्रयोगात्मक निर्गुण स्वरूप हैं और संयोग कराने में सदैव तत्पर हैं। वे श्रीठाकुरजी को अति प्रिय हैं और उनकी पटरानी और चतुर्थ प्रिया के रूप में भी उनके निकट रहती हैं। श्रीमहाप्रभुजी ने यमुनाष्टकम् में उन्हें तूर्यप्रिया” कहा है-जिसका अर्थ है चतुर्थ प्रिया।
यमुना पान करके या श्रीयमुनाजी में डुबकी लगाकर भी यदि किसी जीव में प्रेम, भाव और रस का संचार नहीं होता है तो इसका अर्थ है कि उसने श्रीयमुनाजी के आधिदैविक स्वरूप को जाना ही नहीं है, उसे वह स्पर्श ही नहीं हुआ है! जैसा कि सूरदासजी पद में कहते हैं-
प्रेम के सिन्धु को मरम जान्यो नहीं, सूर कहे कहा भयो देह बोरे…!” श्रीयमुनाजी कोमलता, रस, प्रेम और कृपा का स्वरूप हैं और जो जीव उनके स्वरूप को जान जाता है, वह श्रीवल्लभ का और श्रीठाकुरजी का प्रिय बनता हैं !
(- संकलित)
No comments:
Post a Comment