Tuesday, 9 January 2018

​​ *श्री वृंदावन दर्शन कैसे करें* 

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​​ *श्री वृंदावन दर्शन कैसे करें* 

▶ प्राय जितने भी वैष्णव जन हैं, वह वर्ष में एक, दो, चार, दस बार वृंदावन आते ही हैं ।

▶ वृंदावन आने की भी शास्त्रीय रीति है कि बहुत अधिक भीड़ अपने साथ नहीं लानी चाहिए, नहीं तो उस भीड़ में शामिल लोगों की देखरेख में ही वृत्ति लगी रहती है, एकाग्रता नहीं बन पाती ।

▶ अतः कोशिश करें कम लोग या छोटे ग्रुप में ही वृंदावन आएं ।

▶ हर बार जब आप आएं तो एक या दो नए मंदिर,  नए संत, नये वैष्णव से अवश्य मिले ।

▶यहाँ के श्रीविग्रह रूपश्रृंगार के निधि है उन्हें प्रेमातुर हो निहारने पर ही स्वरूप का मधुर सौंदर्य दर्शनानुभव हो पाता है ।
कहने भर को दर्शन न करें , जब जहाँ करे , वह स्वरूप हृदय में उतार कर करें ।

▶ आना,  बिहारी जी के,  श्री राधा रमण जी, इस्कॉन के दर्शन करना लस्सी पीना,  टिक्की खाना,  हर बार यही करते-करते वैसा ही है जैसे अनेक साल से कक्षा तीन में ही पड़े रहना ।

▶ यह भी बहुत अच्छा है लेकिन और आगे भी बढ़ना चाहिए । वृंदावन आने पर , यदि आप दीक्षित हैं तो अपने गुरुदेव के स्थान पर अवश्य जाकर प्रणाम करना चाहिए । गुरुदेव विराजमान हैं तो भी, नहीं है तो भी, बाहर गए हैं तो भी ।

▶ आप जिस संप्रदाय से दीक्षित हैं उस संप्रदाय के अपने मुख्य देवालय के दर्शन अवश्य करने चाहिए ।

▶ राधावल्लभ संप्रदायी को राधा वल्लभ जी के
गोविंदघाट पर श्री रासमण्डल के
श्रीमदनटेर के
श्री हिताश्रम के
श्री सेवाकुंज के
श्रीवृन्दावन का स्वरूप रसिक वाणियों में है अतः
जब जहाँ रसिकसमाजगान होवें , वहाँ चित्त स्थिर कर विराजे ।
आदि ।
▶ निंबार्क संप्रदायी को बिहारी जी के सँग
हरिदासी रस के भावुक
टटिया स्थान
श्रीनिधि वन
श्रीललिता बाग
श्री राधाटीला
श्री रसिक बिहारी
श्री रसिक त्रिवेणी
श्रीगोरै लालजु कुँज
श्री बावड़ी (भगवत रसिक जु भजन स्थली)
आदि ।
▶ गौड़ीय संप्रदायी को गौड़ीय संप्रदाय के
▶ सप्त देवालयों के दर्शन अवश्य करने चाहिए ।

▶ श्रृंगार वट

▶ सप्त देवालयों के साथ-साथ श्री नित्यानंद प्रभु का स्थान श्रृंगार वट के भी दर्शन अवश्य करनी चाहिए । रासलीला में यहीं श्री राधारानी का श्रृंगार किया है श्रीकृष्ण ने ।

▶ चीर घाट पर वृन्दाबन की परिक्रमा करते समय सीधे हाथ पर विशाल जीर्ण। शीर्ण सा प्राचीन स्थान है श्रृंगार वट ।

▶ गौड़ीय संप्रदाय के सप्त देवालय इस प्रकार हैं एक ही बार में यदि सभी दर्शन करने का अवसर न मिले तो,  दो इस बार,  दो अगली बार,  दो अगली बार इस प्रकार से सातों देवालयों के दर्शन अवश्य ही करनी चाहिए । वह सप्त देवालय हैं

▶ श्री गोविंद देव जी
▶ श्री गोपीनाथ जी
▶ श्री मदन मोहन जी
▶ श्री राधारमण जी
▶ श्री गोकुल आनंद जी
▶ श्री राधा दामोदर जी
▶ श्री राधा श्यामसुंदर जी

▶ और इन सबसे आवश्यक श्रीनित्यानंद प्रभु का स्थान श्री राधारानी श्रृंगार स्थली श्री श्रृंगार वट ।

▶ धाम में आकर यथासंभव संतो के दर्शन और उनकी स्वविवेक से ऐसी सेवा भी करनी चाहिए जिससे उनकी भजन में वृद्धि हो । बाधा ना हो ।

▶ मंदिरों म भी उन मन्दिरों की सेवा करनी चाहिए जहाँ आवश्यकता है । जहाँ प्रचुर मात्रा म धन है । हम लोग अधिकतर वहीँ देते हैं ।

▶ यदि अनुकूलता हो तो भजन के संक्षिप्त प्रश्न भी पूछने चाहिए । वैष्णव कृपा, नाम कृपा से भक्ति में वृद्धि होती है और भक्ति में वृद्धि होते होते अंततः मानव जीवन का लक्ष्य श्रीकृष्ण चरण सेवा प्राप्त होती है । श्री कृष्ण चरण सेवा ही मानव का परम चरम लक्ष्य है ।
🙏🌷हरे कृष्ण 🌷🙏

श्रीवृन्दावन महिमामृत अष्टम शतक 1

वृन्दारण्येऽद्भुतरसमये यत्र यत्रैव राधा-
कृष्णौ नित्योन्मद रतिकलापारतृष्णौ प्रयातः।
गायदृ भृंगीगण शुकपिकाद्युन्नटद्वर्हिवृन्दं
तत्रैवाऽनुब्रजदवनिजाः पुष्मालाद्यवर्षन्।।1।।

अद्भुत रसमय श्रीवृन्दावन ने जहाँ जहाँ नित्योन्मद रति केलि में असीम तृष्णाशील श्रीराधा-कृष्ण गमन करते हैं, वहाँ वहाँ भ्रमरगण शुक-पिकादि भी गान करते हैं एवं मयूर समूह नृत्य करते हुए अनुगमन करते हैं तथा वृक्षगण भी पुष्प माल्यादि की वहाँ वर्षा करते हैं।।1।।

यावद्राधापदनखमणि चन्द्रिका नाविरास्ते
तावद् वृन्दावनभुवि मुदं नैति चेतश्चकोरी।
यावद वृन्दावनभुवि भवेन्नापि निष्ठा गरिष्ठा
तावत् राधाचरणकरुणा नैव तादृश्युदेति।।2।।

जब तक श्रीराधा के पद नख की चन्द्रिका श्रीवृन्दावन-भूमि पर आविर्भूत नहीं होती, तब तक चित्त-चकोरी को आनन्द नहीं प्राप्त होता, और जब तक श्रीवृन्दावन-भूमि में पूर्ण निष्ठा नहीं होती, तब तक श्रीराधा चरण की कृपा भी पूर्ण रीति से उदित नहीं हो पाती।।2।

मुक्ताहाराः सुरुचिरगुणाः स्वच्छतामादधानाः
कृष्णस्यूताः स्वयमुपहिताराधया कण्ठपीठे।
त्वच्चेद् वृन्दावनभुविलुठंस्तादृशः स्या महात्मन्
नूनं तादृक् पदमपि न ते दुर्लभं हन्त भावि।।3।।

अत्यन्त मनोहर गुणयुक्त अति निर्मल मुक्ताहार जो श्रीकृष्ण ने ग्रथित किये थे, श्रीराधा ने स्वयं ही अपने गले में पहन लिये हैं, हे महात्मन! तुम भी यदि श्रीवृन्दावन भूमि पर लोट लोट कर इस प्रकार सेवक हो सको तो यह (दास्य) सेवा की प्राप्ति तुम्हारे लिये भी कुछ दुर्लभ नहीं है - यह निश्चित जानो।।3।।

श्रीवृन्दावनकुञ्जमञ्जु लतमः पुञ्जे कलानां चतुः
षष्ठैः कोऽपिनिधिः सदोज्ज्लतम श्यामः शशिमोहनः
आश्चर्यैक नवीन हेम कमलिन्यूर्द्धाम्बुजं चुम्बति
प्रेक्ष्य प्रेक्ष्य तदेव विस्मितमनाः सौख्याम्बुधौमज्जतु।।4।।

श्रीवृन्दावन के कुञ्जों के मनोहर अन्धकार में कोई चैंसठ कलानिधि सर्वदा उज्ज्वलतम श्याम वर्ण मोहन चन्द्र विराजमान है वह एक अति आश्चर्यमय नवीन स्वर्ण-कमलिनी (श्रीराधा) का मुख कमल चुम्बन कर रहा है, इसे देख कर विस्मित होते हुए सुखसागर में मग्न होवो।।4।।

अरक्त रुचिरारुणाधर कराङ्घ्रि पंकैरुहा
मनंजित सुनीलदृक्कुवलयाम मृष्टोज्ज्लाम्।
असंस्कृत सुचिक्कण प्रचुर कुन्तलां राधिका-
मभूषण विभूपितां स्मर सदाऽत्र वृन्दावने।।5।।

रंजित नहीं है तो भी जिनके अधर तथा पादपद्म सुन्दर लालवर्ण के हैं, काजलविहीन होते हुए भी जिनके नेत्र युगल कुवलय की भाँति उज्ज्वल हैं, संवारे हुए न होने पर भी घुंघराले हैं जिनके केश समूह, इस प्रकार भूषण रहित होते हुए भी जो विभूषिता श्रीराधाजी हैं, उनका सदा श्रीवृन्दावन में स्मरण कर।।5।।

श्रीवृन्दावन जीवना इह महाभागा यदा जीवना
दप्येते वत वल्लभा नहि तथा वृन्दाटवी दुर्लभा।
तादृक्सत्तम सत्कृपात उदिता वृन्दावने चेन्महा
प्रीति स्तर्ह्यचिरेण सापि सुलभा वृन्दावनाधीश्वरी।।6।।

जिनको श्रीवृन्दावन ही प्राण समान है, ऐसे महा भाग्यवान् पुरुष जिनको प्राणों से भी अत्यन्त प्यारे हैं, उन्हें श्रीवृन्दावन की प्राप्ति कभी दुर्लभ नहीं है, इस प्रकार के महापुरुषों की कृपा से यदि श्रीवृन्दावन में महा प्रीति उत्पन्न हो आवे, तो शीघ्र ही श्रीवृन्दावनाधीश्वरी श्रीराधा की प्राप्ति हो जाती है।।6।।

न राका राकायाः पतिरयमुदीते न सरसी
सरोजं प्रोत्फुल्लं विपुलपुलिनं भाति न नदी।
चमत्कुर्वन्त्येते तड़ित इह मेघा नहि जय
त्यहो श्रीराधा विस्मय कृदिह वृन्दावन वने।।7।।

पूर्णिमा नहीं है, तो भी पूर्णिमा-पति चन्द्र का उदय हो रहा है, सरोवर नहीं है, परन्तु पद्म प्रफुल्लित हो रहे हैं, नदी न होने पर भी, अनेक पुलिन शोभित हो रहे हैं, मेघ नहीं है परन्तु बिजली चमक रही है, अहो इस श्रीवृन्दावन में विस्मय कारिणी श्रीराधा ही जययुक्त हो रही है।।7।।

कान्ते! तल्पमिंद कृतार्थय नहि प्रेष्ठेऽपराधोऽस्य कः
श्यामे तच्चरितं न भद्रमपि किं वस्यामि तत्ते कियत्।
क्षन्तव्यं सकलं नहि त्यज पदं त्वत्यक्त तल्पेस्वपि-
म्यङ्घ्री ते उपलालये न निपुणो स्यांशिक्षतां किंकरः।।8।।

हे कान्ते! इस शय्या को कृतार्थ करो”- (उत्तर) “ना”। ‘प्रियतमे! इस दास से क्या अपराध हुआ है? (उत्तर) ‘हे श्याम! तुम्हारा इस प्रकार का चरित्र मुझे अच्छा नहीं लगता।’ “हाय! वह क्या”?- (उत्तर) ‘तो क्या तुम्हारे कुछ चरित्र को बताऊं?‘ “सब क्षमा करो, तुम यहाँ मुझे छोड़ कर चली मत जाना, तुम शय्या को त्याग न करो, तुम उस पर शयन करो मैं तुम्हारे चरणों को उपपालन करूंगा।’ (उत्तर)- ‘तुम इस विद्या में निपुण नहीं हो।’- “तो इस किंकर को आप ही शिक्षा दीजिये न”।।8।।

नष्टा ते खलु बुद्धिरुन्मद नहि त्वं तामहार्षीर्धृता
कृ स्वांगे वद यत्र किं मन करं चोल्यन्तरेन्याक्षिपः।
अत्रैवेती शुकार्भकान निगदतान् हुंकार-पुष्पाहतैः
स्मित्वोपालि निवारयन्त्यवतु मां राधाऽत्र वृन्दावने।।9।।

“हे उन्मद्! तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो गई है? (उत्तर) “नहीं, तुमने उसे चुरा लिया है।”- तो मैंने वह कहाँ रख दी है?” (उत्तर) “अपने अंगों में।” (प्रश्न) “जहाँ मेरा हाथ है, क्या वहीं?” (उत्तर) “कञ्चुकी के भीतर डाल दी है। तब शुकशावकगण ने कहा “यहाँ ही है”- इन वाक्यों को सुन कर सखियों के आगे हंसती हुई एवं हुंकार तथा पुष्पाघात से निवारण करती हुई श्रीराधा जी इस श्रीवृन्दावन में मेरी रक्षा करें।।9।।

सेयं प्राप्तिः कोटीचिन्तामणीनां
सेयं तृप्तिः कोटी पियूष पानात्।
सेयं सम्यग् भक्ति सन्मुक्ति कोटी-
र्यच्छ्री वृन्दारण्य आत्मार्पणेच्छा।।10।।

श्रीवृन्दावन को आत्मअर्पण करने की इच्छा करना ही कोटि चिन्तामणियों की प्राप्ति के समान है एवं कोटि अमृत पान से भी अधिक तृप्तिदायक है तथा सम्यक् भक्ति क्या कोटि मुक्तियों की प्राप्ति कर लेना है।।10।।

सेयं दीक्षा उच्चभावै र्व्रतेषु सेयं शिक्षा राधिकाराधनेषु।
सेयं प्रेमाधीश पूर्म्मूलकक्षायच्छ्री वृन्दारण्य सौभाग्य वीक्षा।।11।

श्रीवृन्दारण्य की सौभाग्यमय दर्शन-इच्छा ही उच्चतम भावयुक्त व्रतसमूहों में दीक्षा, एवं श्रीराधिका की आराधनाओं में दीक्षा तथा प्रेमाधीश्वर की पूरी की मूल (पराकाष्ठा) है।।11।।

यस्यैवोन्मद चारु चन्द्रिक शिखाचूड़ो यदिन्दीवर
श्रेणी श्यामल कोमलद्युतितनुर्यत् पुष्पमालादिवान्।
यद्दिव्योज्ज्वलधातु चित्रितवपुर्यन्मञ्जु गुञ्जावली
हारः श्रीहरि रत्यशोभत भजे तद्धन्यवृन्दावनम्।।12।।

जिसकी उन्माद-जनक सुन्दरता मोरपुच्छ ने श्रीहरि का शिरोभूषण हो रही है, जिसके नीलकमलों की श्यामलता कोमल ज्योतिपूर्ण श्रीहरि का विग्रहरूप हो रही है जिसके पुष्पों से श्रीहरि माल्यादि धारण करके भूषित होते हैं, जिसके दिव्य उज्ज्वल धातुओं से श्रीहरि अपने देह को चित्रित करते हैं, जिसकी मनोहर गुञ्जावली से बने हुए हारों को धारण करके श्रीहरि अपनी शोभावृद्धि करते हैं, उस महाभाग्यवान् श्रीवृन्दावन का मैं भजन करता हूँ।।12।।

गोविन्द संकीर्तनम्

गोविन्द संकीर्तनम्
हरि नारायण गोविन्द जय नारायण गोविन्द।
हरि नारायण जय नारायण जय गोविन्द गोविन्द ॥१॥
भक्तजनप्रिय गोविन्द पङ्कजलोचन गोविन्द।
भक्तजनप्रिय पङ्कजलोचन परमानन्द गोविन्द ॥२॥
मत्स्यकलेबर गोविन्द वत्सकपालक गोविन्द।
मत्स्यकलेबर वत्सकपालक श्रीवत्साङ्कित गोविन्द॥३॥
धर्मपराश्रय गोविन्द कर्मविनाशन गोविन्द।
धर्मपराश्रय कर्मविनाशन कूर्मतनो जय गोविन्द ॥४॥
धृतकिटिमूर्ते गोविन्द हृतजगदार्ते गोविन्द।
धृतकिटिमूर्ते हृतजगदार्ते शुभजनकीर्ते गोविन्द॥५॥
नरहरिविग्रह गोविन्द नमितानुग्रह गोविन्द ।
नरहरिविग्रह नमितानुग्रह हतरिपुविग्रह गोविन्द॥६॥
वामनमूर्ते गोविन्द पावनकीर्ते गोविन्द ।
वामनमूर्ते पावनकीर्ते मोहनकीर्ते गोविन्द॥७॥
भर्गमुखाश्रय गोविन्द गर्गनिषेवित गोविन्द।
भर्गमुखाश्रय गर्गनिषेवित भार्गवराम गोविन्द॥८॥
दशरथनन्दन गोविन्द दशमुखनाशन गोविन्द।
दशरथनन्दन दशमुखनाशन शतमखसेवित गोविन्द॥९॥
सीरवरायुध गोविन्द वारिजलोचन गोविन्द ।
सीरवरायुध वारिजलोचन कारणपूरुष गोविन्द॥ १०॥
वृष्णिकुलेश्वर गोविन्द कृष्ण कृपालय गोविन्द ।
वृष्णिकुलेश्वर कृष्ण कृपालय वृष्णीपतिसख गोविन्द॥११॥
दुष्कृतनाशन गोविन्द सत्कुलपालक गोविन्द।
दुष्कृतनाशन सत्कुलपालक खड्गिशरीर गोविन्द ॥१२॥
कमलावल्लभ गोविन्द कमलविलोचन गोविन्द।
कमलावल्लभ कमलविलोचन कलिमलनाशन गोविन्द॥१३॥
वसुदेवात्मज गोविन्द वासवमदहर गोविन्द।
वसुदेवात्मज वासवमदहर वसुधावल्लभ गोविन्द॥१४॥
चक्रगदाधर गोविन्द शक्रनिषेवित गोविन्द।
चक्रगदाधर शक्रनिषेवित नक्रमदापह गोविन्द॥१५॥
नीरजलोचन गोविन्द  नीरदमेचक गोविन्द।
नीरजलोचन नीरदमेचक नारदसेवित गोविन्द ॥१६॥
नन्दकुमारक गोविन्द वृन्दावनचर गोविन्द।
नन्दकुमारक वृन्दावनचर वन्दितजनवर गोविन्द॥१७॥
कल्मषनाशन गोविन्द जन्मविनाशन गोविन्द ।
कल्मषनाशन जन्मविनाशन  सन्मयचिन्मय गोविन्द॥१८॥
निश्चल निष्कल गोविन्द नित्य निरामय गोविन्द।
निश्चल निष्कल नित्य निरामय निर्मल निरुपम गोविन्द॥१९॥
सीतावल्लभ गोविन्द राधावल्लभ गोविन्द ।
सीतावल्लभ राधावल्लभ  भामावल्लभ गोविन्द॥२०॥
लक्ष्मीवल्लभ गोविन्द लक्ष्मणपूर्वज गोविन्द।
लक्ष्मीवल्लभ लक्ष्मणपूर्वज पक्षिवरासन गोविन्द॥२१॥
राम रघूत्तम गोविन्द राम भृगूत्तम गोविन्द।
राम रघूत्तम राम भृगूत्तम राम यदूत्तम गोविन्द॥२२॥
उग्रपराक्रम गोविन्द विग्रहभीषण गोविन्द ।
उग्रपराक्रम विग्रहभीषण सुग्रीवप्रिय गोविन्द॥२३॥
श्रीवत्साङ्कित गोविन्द गोवत्सप्रिय गोविन्द।
श्रीवत्साङ्कित गोवत्सप्रिय हनुमत्सेवित गोविन्द॥२४॥
केशव माधव गोविन्द माधव केशव गोविन्द।
केशव माधव माधव केशव कालियमर्दन गोविन्द ॥२६॥
अतसीमेचक गोविन्द तुलसीभूषण गोविन्द।
अतसीमेचक तुलसीभूषण कलमृदुभाषण गोविन्द॥२७॥
हर मे दुरितं गोविन्द कुरु मे कुशलं गोविन्द।
हर मे दुरितं कुरु मे कुशलं भव मे शरणं गोविन्द ॥२८॥

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यमुनाष्टक अनुवाद (पुष्टिमार्गी)

*श्री यमुनाष्टक  श्लोक :-१*

*नामित यमुना में सकलसिद्धिहेतुं मुदा*
*मुरारि-पद-पंकज-स्फुरदमन्द-रेणुत्कटाम*
*तटस्थ-नव-कानन-प्रकटमोद-पुष्पाम्बुना*
*सुरासुर-सुपुजित-स्मरपितुः श्रीयंत्र बिभ्रतीम*

*अन्वयार्थ*:-
आ श्लोक मां श्री यमुना जी  ना त्रण  विशेषणों  कह्या  छे।
*सकल - सिद्धि - हेतुं* = सकल सिद्धियों ना कारण रूप।
*मुरारि-पद-पंकज-स्फुरदमन्द-रेणुत्कटाम* = जलमांना  दोषारोपण मुर्गी ना शत्रु (श्रीकृष्ण) ना चरणकमलों ना चमकता अमंद रेणुओ  ज्यां उत्कट (जल थी पण अधिक)  छे तेवां,
*तटस्थ - नव- कानन- प्रकट-मोद - पुष्पाम्बुना* =
किनारा पर रहेला नवां वनों मां प्रकट आनंद  जेना थी छे तेवां पुष्पों वाला जल वे,
*सुरासुर-सुपुजित-स्मरपितु* =
सुर अने असुर  वे सारी रिते  पुजारा स्मरण ने उत्पन्न करना (श्रीकृष्ण) नी ,
*श्रियं* = शोभा ने,
*बिभ्रतीम्* =धारण किनारा,
*श्रीयमुनां* = श्री यमुना जी  ने,
*अहं*= हुं ,
*मुदा* = हर्ष  पूर्वक  ,
*नमामि* = नमन करु छुं।
*सरल श्लोकार्थ* :-

*श्री यमुना जी  सर्व  प्रकार  नई सिद्धियों  ने आपवा  वाला छे।  मुरारि  श्रीकृष्ण  ना चरणारविंद थी  शोभती खुब ज  रज थी भरेगा किनारा वाला छे ,  ते किनारा उपर  नवीन  वनों  आवेदन छे।  तेवां उत्पन्न  थयेली  पुष्पों नई सुगंध थी युक्त जल वाला  छे।  सुर अने  असुर  अथवा दैन्यभाव अने मान भाव वाला वृज भक्तों थी पुजायेला छे। कामदेव (प्रद्युम्न)  ना पिता  एवं श्रीकृष्ण  नई शोभा ने धारण किनारा छे।  आवाज श्री यमुना जी ने हुं आनंद पूर्वक नमन करु छुं।*
*श्री यमुनाष्टक श्लोक :-२*

*कलिन्द - गिरि - मस्तके - पतदमन्द  पूरोज्जवला*
*विलास - गमनोल्लसत्-प्रकट-गंड-शैलोन्नता*
*सघोष-गति - दन्तुरा  समधिरूढ - दोलोत्तमा*
*मुकुन्द - रति-वर्धिनी  जयति पद्मबन्धो सुताः।*

*अन्वयार्थ :-*

आ श्लोक मां छ विशेषणों आपी ने  श्री यमुना जी  नो  आविर्भाव  बताव्यो छे।
*(१):- कलिन्द - गिरि - मस्तके* = कलिन्द  पर्वत ना शिखर उपर ,  *पतदमन्द - पुरोज्जवला* = पडता अत्यंत  वेगवाला जल प्रवाह थी उज्जवलता  वाला,
*(२) :विलास -  गमनोल्लसत् - प्रकट - गंड - शैलोन्नता* : विलासपूर्वक गमन मां शोभा प्राप्त , प्रवाहवेग थी  उंचे थी पडेली , प्रकट देखाती  मोटी पर्वतशिलाओ  वडे उन्नत ,
*(३) : सघोष-गति-दन्तुरा* = घोष सहित गति थी विविध  विकाररूप रसानुरुप भाव वाला ,
*(४):समधिरूढ-दोलोत्तमा* = उत्तमदोला  शिबीका मां न विराज्यां होय तेम चरण चलावतां ,  *अथवा* उत्तमदोला  मां विराजवा छतां प्रिय नां दर्शन नी उत्कंठा थी दोला मांथी उंचा-नीचा थता ,  *अथवा* आधिभौतिक स्वरुप  उत्तम दोलामां आध्यात्मिक अने आधिदैविक रुप थी आविष्ट सुंदर रिते विराजेला ,
*(५) मुकुन्द - रति-वर्धिनी* = मुकुन्द नी स्वामिनीजीओ मां रति ने वधारनारां ,
*(६) : पद्मबन्धोः सुता* = रसाकर  (कमल) ना मित्र (सूर्य) ना पुत्री (होवाथी) ,
*जयति* = जय पामे  छे।
*श्री यमुनाष्टक श्लोक :- ३*

*भुवंभुवन - पावनीमधिगतामनेकस्वनेः*
*प्रियाभिरिव सेवितां  शुक-मयुर-हंसादि भिः*
*तरंग - भुज -  कंकण - प्रकट -  मुक्तिका -  वालुका*
*नितम्ब  -  तट - सुन्दरीं नमत कृष्ण  -  तुर्य - प्रियाम्*
*अन्वयार्थ*
*आ श्लोक मां श्री यमुना जी पृथ्वी पर पधार्या पछी ना पांच  विशेषण  आपेला छे।
*(१) :- भुवन-पावनी*  =
सर्व भुवन ने पावन करनारा ,
*(२) :- भुवं* =भूतल उपर ,
*अधिगतां* पधारेला ,
*(३) :- प्रियाभिः  ईव अनेकस्वनैः शुक-मयुर-हंसादि भिः सेवितां* = प्रिय श्री  गोपीजनोए (श्री यमुना जी नुं) सेवन करेल छे, तेवी रिते अनेक  स्वर वडे , शुक  मयुर  अने हंसो वडे  सेवायेला ,
*(४) :- तरंग-भुज-कंकण-प्रकट-मुक्तिका-वालुका-नितम्ब-तट-सुंदरीं* =तरंगो  ज (श्री यमुना जी) भुजाओं छे, तेमां जे कंकणो छे, तेमां प्रकट मोती ज छे , ते ज  वालुका  जेवा  देखाय  छे, तेथी  युक्त  नितम्ब  ज  उंचा  स्थान रुप  तट  छे,  तेथी  सुंदर ,
*(५) :- कृष्णतुर्यप्रियाम* = श्रीकृष्ण  ना  चोथा  प्रियाजी  (वहाला)  श्री यमुना जी  ने , हे भक्तों तमे  प्रणाम  करो (नमो) ।
*सरल श्लोकार्थ* :-*(सूर्यमंडलस्थ नारायण ना आधिकारिक ह्रदय मां रसद्रवरुपे प्रकट थइने) कलिन्द-गिरि ना शिखरे थी पडता अत्यंत वेगवाला जलप्रवाह (मां थता फीण) थी उज्ज्वल , विलास - गमनमां  शोभा-प्राप्त, प्रवाह - वेग थी उंचे थी पडेली प्रकट  दिखाती मोटी पर्वतशीलाओ थी उन्नत , घोष सहित  गति थी विविध रसभाववाला , (पत्थरों परनी) उंची-नीची गति थी उत्तम दोला मां न विराज्या होय , अथवा विराजवा छता  न विराज्या जवां , मुकुन्द नी  रति ने वधारनारां , रसरुप कमल ना मित्र  (सूर्य) ना रसरुपा  पुत्री  (श्रीयमुनाजी)  जय आपे छे।*
*सरल श्लोकार्थ* = सर्व  भुवन ने  पावन  करनारा ,  भुतल  पर  पधारेला ,  अनेक प्रकार ना कूजनवाला  पोपट-मोर-हंस  वगेरे  वडे प्रिय  सखियों  नी  जेम  सेवायेला ,  तरंगो ज भुजाओं  छे, तेमां  जे कंकणो छे ,  तेमां  जे  मोती  छे ,  ते ज  वालुका  जेवा  (लोकोने)  देखाय  छे ,  ते (हस्त) युक्त नितम्ब  ज  उंचा  तट रुप  छे , तेथी  (प्रभु मां अति प्रेम थी)  सुंदर एवा ,  श्रीकृष्ण नां  चोथा  प्रिया (श्री यमुना जी)  ने  (प्रणाम करो )  नमो।
*श्री यमुनाष्टक श्लोक :-४*
*अनंत-गुण-भूषिते शिव-विरंचि-देव-स्तुते*
*धनाधननिभे  सदा धृव-पराशराभीष्टदे।*
*विशुद्ध - मथुरा - तटे  सकल - गोप - गोपी - वृते*
*कृपा - जलधि - संश्रिते  मम  मनसुखानी  भावय*
*अन्वयार्थ :-*
*आ श्लोक मां श्री यमुना जी ने  संबोधन थी सात  विशेषण आपेला छे।
*(१):-अनन्त-गुण-भुषिते* = (संख्या अने विशालता मां)  अनंत नित्य गुणों थी भूषित  प्रभु मां, (हे  अनंत - भगवान ना  गुणों थी  भूषित) ,
*(२):- शिव-विरंचि-देव-स्तुते*= शिव  ब्रम्हा वगेरे  देवो  वडे  स्तुति  करायेला प्रभु मां,  ( हे  शिव  ब्रम्हादि वडे  स्तुति  करायेला) ,
*(३):-सदा* = हमेशा ,
*(४):- धनाधननिभे* = मेघ  समूह  जेवा  श्याम  प्रभु  मां,  (हे , धृव  पराशर ने  ईच्छेलु  देनारा ,
*(५):- विशुद्ध - मथुरातटे* = विशुद्ध मथुरा जेनी  निकट छे  तेवां  प्रभु मां , ( हे  जेना  तटे  विशुद्ध  मथुरा छे  तेवां) ,
*(६):- सकल-गोप-गोपी-वृते* = सकल  गोप  गोपीजनोथी  वींटडायेला  प्रभु मां ,
*(७):-कृपा-जलधि-संश्रिते* =निरवथि  कृपा युक्त हरि मां , (हे! कृपासागर ना आश्रये  रहेला,
*मम*= मारा मन मां, ( भगवती स्वरुपानंदरुप) सुनने,
*भावय* = विचारो ।
*सरल श्लोकार्थ :* हे  अनंत भगवान ना  गुणों थी  भूषित ! हे  शिव  ब्रम्हादि  देवो वडे  स्तुति  करायेला !  हे  सदा  मेघ-समूह  जेवां  श्याम ! हे  धृवजी - पराशरजी  ने  ईच्छेलुं  देनारा!  हे  विशुद्ध  मथुरा  जेना तट छे तेवां !  हे  सकल  गोपी  गोपी जनों थी  वींटडायेला !  हे  कृपासागर  (कृष्ण)  ना  संमाश्रित ! (श्री यमुने) !  (आप)  मारा  मननां  सुख  ( भगवत्स्वरुपानंद ना  नित्य  अनुभव ने ) विचारों  (संपादन करो ),  अनंत-गुणोथी  भूषित ,  शिव , ब्रम्ह , -  वगेरे  देवो  वडे स्तुति करायेला , ( हमेशा )  मेघ-समुदाय  जेवां  श्याम ,  धृवजी पराशरजी  ने  ईच्छेलुं  दान देनारा ,  विशुद्ध - मथुरा  जेना  निकट मां  छे तेवां  सकल  गोप-गोपीजनो थी  वींटडायेला,  कृपा - सागर  जेना  आधारे  रहेलो  छे तेवां ,  (भगवान) मां मारा  मनःसुख  नुं  सदा  संपादन  करो।
*श्री यमुनाष्टक श्लोक :- ५*
*यया चरण  पद्मजा  मुर-रिपोः  प्रियंं  भावुका*
*समागमनोऽभवत् सकल-सिद्धिदा सेवताम्*
*तया सदशतामियात् कमलजा सपत्निव यद्*
*हरि-प्रिय-कलिन्दया मनसि मे  सदा स्थियताम्*

*अन्वयार्थ :-*
आ श्लोक मां सर्वथी श्री यमुना जी नी  श्रेष्ठता बतावे छे।  *यया*= जेनी  साथे ,  *समागमनतः*= संगम थी,  *चरणपद्मजा* = चरणकमल मांथी  उत्पन्न  थयेला  गंगाजी,  *मुररिपोः* =श्री कृष्ण  ने  *प्रियं* = प्रिय,  *भावुका* = मावन करनार ,  *सेवतां* = सेवनाराओ ने ,  *सकल-सिद्धि दा* = सकल सिद्धियों  देनारा ,  *अभवत्* = थया,  *तया* = तेवां  साथे ,   *सदशतां* = सदशता  मां , *सपत्नी* = शोक्य ,  *ईव* = जेवा ,  *यत्* = कारण थी ,  *कमलजा* = कमल मांथी  प्रकटेला  श्रीलक्ष्मी जी, *ईयात्* = प्राप्त थाय ,  *हरि-प्रिय-कलिन्दया* = श्री हरि ना  प्रिय जनों  ना  दोषों ने  हरनारा ,  *मे* = मारा,  *मनसि* = मन मां ,  *सदा* = हमेशां ,  *स्थीयताम्* = स्थीर  थाव  ( बिराजो )!
*सरल श्लोकार्थ* :-

*जे  (यमुना जी) नी  साथे ना  संगम थी  प्रभु ना  चरण मां थी  उत्पन्न  थयेला  गंगाजी  श्रीकृष्ण नुं  प्रिय  संपादन  करनारा (अने) सेवनाराओ ने  सकल सिद्धियों  देनारा  थया,  तेवां (आपनी) साथे समानता मां सपत्नी  जेवां  कमल मां थी  प्रकटेला  लक्ष्मी जी  आवे, (ते)  प्रभु ना , प्रियजनों  ना  दोषों  ने  दूर करनारा  (आप) मारा  मन  मां  हमेशा  बिराजे।*
*यमुनाष्टक श्लोक :-६*

*नमोऽस्तु यमुने सदा तवचरित्रमत्यद्भुतं*
*न जातु यम-यातना भवति ते पयःपानत*
*यमोऽपि भगिनी सुतान् कथमु हन्ति दुष्टानपि*
*प्रियो भवति सेवनात् तव हरेर्यथा गोपिकाः*

*अन्वयार्थ :-*
*यमुने*= हे यमुने!  *नमः*=(आपने) नमन , *अस्तु*= हो!  *तव*= तमारु ,  *चरित्रं* = चरित,   *अत्यद्भुतं*= अति अद्भुत  (छे) ,  *ते*=तमारा,  *पयःपानत* = जल पान थी ,  *यम-यातना* = यम संबंधी  दुःखों ,  *जातु* = क्यारेय पण,   *न भवति* थता  नथी, *यमः* = यमराज ,  *अपि* = पण ,  *भगिनी - सुतान्* = भाणेजो ने  ,  *दुष्टान्* = दुष्ट,  *अपि*= (होवा छतां) पण , *कथं*= कई  रिते ,  *ऊ*= अहो ,  *हन्ति* = मारे?  *तव*= तमारी , *सेवनात्* = सेवा थी ,  *हरेः*= ( जीव)  *हरिनो प्रियः* = प्रियजन , *भवति* = थाय छे , *यथा* जेम ,  *गोपिकाः*= गोपी जनों !
*सरल श्लोकार्थ* =
*हे  श्री यमुना जी  आपने सदैव  नमन हो! आपनुं चरित्र  अति  अद्भुत  छे। आप ना  जल ना पान थी यम-यातना  कदी पण  भोगववी  नथी  पडती ,  कारण के  पोताना  भाणेजो  दुष्ट होय  तो पण  यमराजा तेमने  कई  रिते  मारे? जेवी  रिते कात्यायनी  व्रत  द्वारा  आपनी  सेवा  करी ने श्री गोपी जनों  प्रभु ने  प्रिय  बन्या , तेवी  रिते  आपनी  सेवा द्वारा  भक्तों  पण  प्रभु  ने  प्रिय  बने  छे।*
*श्री यमुनाष्टक श्लोक :-७*

*ममाऽस्तु तव सन्निधौ तनु-नवत्वमेतावता*
*न दुर्लभतमा रतिर्मुर-रिपौ मुकुन्द - प्रिये*
*अतोऽस्तु तव लालना सुर-धुनी परं संगमात्*
*तवैव भुवि किर्तिता नतु कदापि पुष्टि - स्थितैः*

*अन्वयार्थ :-*
*तव* = तमारा ,  *सन्निधो* = निकट मां ,  *मम* = मारुं ,  *तनु-नवत्वं* =शरीर नुं  नवीनपणुं ,  *अस्तु* = थाव ,  *एतावता* = आटला थी,  *मुर-रिपो* = मुर ना शत्रु  मां (श्रीकृष्ण  मां) ,  *रतिः* = प्रिटी भक्ति , *दुर्लभतमा* = अत्यंत  दुर्लभ ,  *न* = नथी ,  *अतः* = आथी ,  *मुकुन्द - प्रिये* = श्रीकृष्ण ना  प्रिये!  *परं* = परंतु ,  *तव* = तमारा ,  *एव*= ज ,  *संगमात्* = संगम थी ,  *पुष्टि - स्थितैः* = पुष्टि  भक्ति मार्ग  मां रहेलाओ  वडे,  *तु* = तो , *कदा* = क्यारेय ,  *अपि* = पण , *न* = नहीं।
*सरल श्लोकार्थ :-*
*श्री  मुकुन्द भगवान  ने  प्रिय  एवां  हे  श्री यमुना जी !  आपनी समीप मां  मने  भगवद् लीला मां  थाय  तेवो  अलौकिक  देह  प्राप्त  थाव।  तेना वडे  मुरारी श्रीकृष्ण  प्रभु मां अत्यंत  सरलता  थी  प्रिती  थशे। तेथी  ज तो  आपनी  स्तुति द्वारा आपने आ  बधां  लाड  हो!  श्री गंगाजी  केवल  आपना  संगम  थी ज  कीर्ति पाम्या  छे। आपना  संगम  विना नां श्री गंगा जी  नी  स्तुति  पुष्टि मार्गिय  जीवोए  क्यारे  पण  करी  नथी।*
*श्री यमुनाष्टक श्लोक : ८ :-*
*स्तुतिं  तव  करोति के कमलजा  सपत्नी  प्रिये*
*हरेर्यद नु सेवया  भवति सौख्यमामोक्षतः*
*ईयं तव कथाधिका  सकल - गोपिका - संगम-स्मरश्रम-जलाणुभिः सकल - गात्रजेः संगमः*

*अन्वयार्थ :-*
*कमलजा सपत्नी*=  हे  लक्ष्मी जी ना समान  पत्नी! प्रिये! *तव* = तमारी ,  *स्तुतिं* = स्तुति , *कः* = कोण ,  *करोति*=करी  शके?  *हरेः* = हरि (श्रीकृष्ण  नी),  *यदनुसेवया* = (जेनी)  अनु (सेवा पछी)  सेवा वडे , *आमोक्षतः*= मोक्ष  पर्यना  (सालोक्यादि)