निभृत के किसी अत्यंत आंतरिक स्थान से निर्बाध विचरती कालिंदी जु की पतली किंतु गहरी धारा बह रही है।
इसके किनारे पर ही युगल हरी मखमली रस से कुछ भीगी भीगी सी भूमि पर ही अति मिलित हुए बैठे है।
दोनो के अधिकांश वस्त्र आभूषण छूट चुके है।बिखरा हुआ श्रृंगार पूर्व की रस केली की सहज व्याख्या कर रहा है।
प्यारी जु के नयन आधे झुके से और प्यारे जु के नयन प्यारी जु के नयनो की ओर लगे है।
तभी प्यारे जु के नयन प्रिया अधरो पर जाते है रस आवेग से तीर्व श्वासो से प्यारी जु के सुकोमल अधर प्यास से सूखे से जा रहे,ऐसा देख प्यारे जु अपनी अंजुली के दोने मे समीप बह रही इस स्वच्छ कालिंदी धारा का जल भरकर प्रिया अधरो से लगाते है।
नयन प्रियतम मुख की ओर टिकाए,अधर प्रियतम कर से लगाकर प्रिया जु जलपान करने लगती है।
इसी समय कुछ चंचल से होकर प्यारे जु दूसरे कर से प्यारी जु के मुख मण्डल पर जल की कुछ बूंदे छिटका देते है।
इससे प्यारी जु प्रियतम से जरा सी परे को हो जाती है।
प्रिया मुख पर जल की बूंदे गिरकर प्रिया जु की अंग कांति से कांतिमय होकर नन्ही नन्ही मणियो के समान लग रही है.....प्रियतम प्रिया जु की ऐसी अद्भुत अपूर्व शोभा देख इन मणियो को समेटने को आतुर हो उठते है।
पिताबंर टटोला....किंतु वह कहाँ.....प्रियतम कुछ मणिया अपनी पलको व कुछ अधरो द्वारा समेटने लगे है....
सुरति करै परै दोऊ अवनि।
शिथिल तनु पट भूषण छूटै,बिथुरी अलक निकसै रंग सदनि।
शुष्क अधर गति द्रुत श्वास,पिय अंजुली लेय पियाये जलनि।
उठि चपलाई अंतर पिय ऐसी,छिटकी डारी मुख जल बूंदनि।
अधर धरै पीवै सब प्यारौ,भई हसै लजाए कीरत नंदिनी।
रसिक रंगिलै करै रास भाँति सौ,प्यारी कोऊ कहि सकै ना आनंदनि।