Wednesday, 29 March 2017

सुरति करै परै दोऊ अवन , आँचल जु

निभृत के किसी अत्यंत आंतरिक स्थान से निर्बाध विचरती कालिंदी जु की पतली किंतु गहरी धारा बह रही है।
इसके किनारे पर ही युगल हरी मखमली रस से कुछ भीगी भीगी सी भूमि पर ही अति मिलित हुए बैठे है।
दोनो के अधिकांश वस्त्र आभूषण छूट चुके है।बिखरा हुआ श्रृंगार पूर्व की रस केली की सहज व्याख्या कर रहा है।
प्यारी जु के नयन आधे झुके से और प्यारे जु के नयन प्यारी जु के नयनो की ओर लगे है।
तभी प्यारे जु के नयन प्रिया अधरो पर जाते है रस आवेग से तीर्व श्वासो से प्यारी जु के सुकोमल अधर प्यास से सूखे से जा रहे,ऐसा देख प्यारे जु अपनी अंजुली के दोने मे समीप बह रही इस स्वच्छ कालिंदी धारा का जल भरकर प्रिया अधरो से लगाते है।
नयन प्रियतम मुख की ओर टिकाए,अधर प्रियतम कर से लगाकर प्रिया जु जलपान करने लगती है।
इसी समय कुछ चंचल से होकर प्यारे जु दूसरे कर से प्यारी जु के मुख मण्डल पर जल की कुछ बूंदे छिटका देते है।
इससे प्यारी जु प्रियतम से जरा सी परे को हो जाती है।
प्रिया मुख पर जल की बूंदे गिरकर प्रिया जु की अंग कांति से कांतिमय होकर नन्ही नन्ही मणियो के समान लग रही है.....प्रियतम प्रिया जु की ऐसी अद्भुत अपूर्व शोभा देख इन मणियो को समेटने को आतुर हो उठते है।
पिताबंर टटोला....किंतु वह कहाँ.....प्रियतम कुछ मणिया अपनी पलको व कुछ अधरो द्वारा समेटने लगे है....

सुरति करै परै दोऊ अवनि।
शिथिल तनु पट भूषण छूटै,बिथुरी अलक निकसै रंग सदनि।
शुष्क अधर गति द्रुत श्वास,पिय अंजुली लेय पियाये जलनि।
उठि चपलाई अंतर पिय ऐसी,छिटकी डारी मुख जल बूंदनि।
अधर धरै पीवै सब प्यारौ,भई हसै लजाए कीरत नंदिनी।
रसिक रंगिलै करै रास भाँति सौ,प्यारी कोऊ कहि सकै ना आनंदनि।

प्यारी पिय आप ढुरि , आँचल जु

प्यारी पिय आप ढुरि।
पिय कौतुक सकुचि मुख ढापि,प्यारी पिय सौ लाज करि।
जुग छिन भारि परै पिय,रस चौप दुनि अतिहि बढी।
दुरै कर देखि शिथिल प्यारौ,प्यारी हिय लयी पिय मढी।
बहु विधि अरस परस रस करै,कोऊ नीकौ नाय कोऊ अति।
दंपति दोऊ करै सहज केलि,प्यारी रंगे रहै प्रेम रति।

प्रियतम की किसी रस चेष्टा से लजाकर प्यारी जु ने हँसते हुए पान की आकृति के दो पत्ते अपने दोनो हाथो मे लेकर अपने मुख चंद्र को इसके पीछे छुपा लिया है।
इससे प्रियतम अकुला गए है।ओह! यह क्षण प्रियतम के लिए युग समान हो गया है।
ये अपने दोनो करो द्वारा प्रिया जु के करो को हटाना चाह रहे किंतु हटा ना पाए हैै।
तभी प्यारी जु स्वयं ही अपने कर हटा लेती है।दोनो पत्तो के पीछे से प्यारी जु का हँसता हुआ मुखमण्डल जैसे ही प्यारे जु देखते है,रस सिंधु की एक ऊँची सी लहर मे बहकर स्तब्ध हो रह जाते है।
प्रियतम की दोनो भुजाए जो प्यारी जु के कर हटाने की चेष्टा कर रही थी...वे उसी अवस्था मे खडी की खडी रह गई है,न गिरती है न बढती है।
प्यारे जु की ऐसी रस जडता देख प्रिया जु हँससर खीचते हुए प्यारे जु को ह्रदय से लगा लेती है।.....और नाना विधि से इन पर रस प्रेम वर्षा कर देती है....

Thursday, 23 March 2017

कूल रवि तनुजा रसिक दौऊ बिलसै , लीला दर्शन , आँचल जु

पूर्ण चंद्रमा की चंद्र रश्मियो से चम चम चमकता यमुना जल युगल ह्रदय को बरबस ही एक रस केली का आमंत्रण दे बैठा।
सामने की ओर से अपनी प्राणप्रिया के दोनो कर थामे प्रियतम यमुना जल की ओर से पीठ और प्रिया मुख शोभा निरखते हुए एक एक सीढी उतर रहे....
शीघ्र ही युगल जलमध्य शोभित हुए।यमुन जल प्यारी जु की कंचुकी के निचले छौर व प्यारे जु की कोहनी से जरा उपर तक आ रहा है...... दोनो के मध्य मे तनिक अंतर है और दोनो परस्पर नयनो मे ही उलझे हुए है तभी प्रिया जु अपने कर मे पकडा हुआ लंबी नाल वाला अध खिला कमल जल मे दे मारती है....जल की कुछ बूंदे उछलकर प्रियतम के मुख पर बैठ जाती है और प्रियतम के ह्रदय मे एक रस आतुरता जाग उठती है।
प्रियतम प्यारी जु को पकडकर ह्रदय से लगाने को उद्धत हो लपकते है किंतु प्यारी जु चपला की सी गति से जल के भीतर डुबकी लगा जरा सी दूरी से बाहर निकल जाती है और प्यारे जु की दोनो भुजाए वायु मे लहराकर स्वयं का ही आलिंगन कर लेती है....
प्यारी जु यह देख जोर से हस देती है और प्रियतम पुनः प्यारी जु को पकडने के लिए अपने गले से पितांबर उतार कमर मे बाँध लेते है....पुनः दाँव लगाते है प्यारे जु....और इस बार प्यारी जु प्रियतम के भुजपाश मे बंध ही जाती है....जरा सी अकुलाती है और इसी आतुरता आकुलता मे प्यारी जु की चूनर सर से खिसककर दूर बह जाती है....
प्यारी जु यू ही बाहर सिढियो की ओर दौडती है।प्यारे जु निरख रहे....चौडी चौडी पायलो से टपकता रस....कमर पर लटकती गुंथित वेणी से कटि की मध्य रेखा मे बहती रस नदी....
दूसरी सिढी पर रूक प्यारी जु नैनौ की कौर से जरा तिरछी हो प्यारे जु पर कटाक्ष करती तो....
प्यारे जु पुनः रस तृषा से व्याकुल हो तेजी से प्यारी जु के सामने ही पहुच जाते है।
दोनो ओर से रस पिपासा के निदान की चेष्टाए होने लगी....कालिंदी कूल की यह चौडी सीढी ही केली सेज हो गई....
प्यारी जु का लहंगा दूसरी सीढी पर लटक रहा है रस टपकाता हुआ.....कंठ की माला रसीली रस भार से बेसुध हो निढाल किंतु रस टपकाती लटक रही....
ओर प्रियतम....प्यारी जु के उर पर लटके प्रियतम के दोनो कंधो पर से होते हुए केश प्यारी जु पर लटक रहे है।इनसे कुछ रस बूंदे प्यारी जु के कंठ,चिबुक,कपोलो आदि पर टपकती है प्यारी जु सिहरकर नयन खोल देती है....
प्यारी जु की पलक पर लगा एक रस बिंदु किसी जुगनू की तरह चमकता प्यारे जु को खीच रहा है और प्यारे जु धैर्य खो अपने अधर प्यारी के नयनो पर रख दिये....रस पिये  और पुनः उसी भाति लुढके से प्यारी जु की मुख छबी निहारने लगे....
इसी समय प्रियतम की बेसर के हिलने से एक नन्ही सी रस बूंद प्यारी जु के अधरो पर टपक पडी....प्यारी जु के अधर पहले तो सहमकर सिमट गए किंतु आधे ही पल मे खिल उठे.....
यू ही रस पीते पिलाते दोनो रस श्रमित हो चले और प्रियतम निढाल हो प्यारी जु के ह्रदय पर ही......

कूल रवि तनुजा रसिक दौऊ बिलसै।
लपकि लिपटानी उर अति आतुर,कियै रस मोद दौऊ फूल-सै।
अंगनि रस वर्षिणी तृषा बूंदनि,ओरि बाढि बढै निरखि हुलसै।
पीवै थकै लंबित ढुरै परस्पर,रस शिथिल भए भ्रमर कमल-सै।

वही श्रंगार ... लीला रस , आँचल जु

ह्रदय मे अनंत उमंग उल्लास लिए सब सखियाँ रंग कक्ष के बंद कपाटो के खुलने की प्रतिक्षा मे है।शुक सारिका के जय शब्द के साथ ही ललिताजु मुस्कुराते हुए कपाट खोलकर सब सखियो संग कक्ष मे प्रवेश करती है.....
युगल के मुख प्रक्षालण,बालभोग,आरती आदि सेवाओ मे सब तत्पर हुई।श्री ललिता जु व कुछ सखियाँ युगल सुख विलास के चिन्हो को,श्रृंगार को निरख रही है।
सबके ह्रदय आश्चर्य चकित व एक अनजाने भय से भयभीत हो रहे.....
युगल दंपत्ति का सब श्रृंगार सुव्यवस्थित है....केश,केशो की वेणी,गजरा,बिंदिया,नयनो का कजरा,कंचुकी,पिताबंर सब ही तो यथास्थान है....कहि कोई अंजन,बेंदी,नख,अधर आदि का भी कोई चिन्ह न दिख रहा....
सबके ह्रदय भयातुर हो अनेक प्रश्नो मे डूबे जा रहे....तो क्या सम्पूर्ण रात्री परस्पर कोई सुख आदान प्रदान न हुआ?
ऐसे अनेक विचारो से सहमी सजल नयना सखियाँ ललिता जु की ओर देखती है और ललिता जु आगे बढ प्यारी जु के सम्मुख बैठ,उनकी ओर मुख किये बहुत धीरे से पूछने लगती है.....
ललिता जु----प्यारी!सब कुशल तो है न??रंगीली तुम्हारा यह सुगढ श्रंगार हमे सशंकित कर रहा है.....(युगल को एक ही नजर मे इंगित करके) तुमने रात्री मे सुख पूर्वक विलास तो किया न......(प्रिया जु लजाती जा रही)
ललिता जु पुनः----हे मानिनी!कही प्रियतम से रूठकर तुम सम्पूर्ण रात्री मान तो न किये रही????ओह!प्रियतम की किसी चेष्टा पर खीझकर तुमने स्वयं को ओर प्रियतम को विरह संतप्त तो नही किया न???
प्रियाजु के लज्जा से झुके मुख को लाड मे भरकर चिबुक से पकड उठाते हुए ललिता जु बोली....तुम्हारा ह्रदय सदैव हमारे सम्मुख दर्पण की भाँति रहा है,तब हमसे लज्जा कैसी??
कहो न...शीघ्र सब कहो....
प्यारी जु बस इतना ही कही--नही तो!
श्यामसुन्दर ने.....पुनः सब श्रृंगार किया न....
ललिजा जु---अच्छा!ललिता जु अधिक कुछ न कही....
किंतु ह्रदय अब भी विचलित....क्या हुआ होगा???
नयनो की सजलता छुपाते हुए सब एक ओर को हो गई....
युगल उपवन मे जाने को शैय्या से उतर चले.....
अक्स्मात ही सबके चेहरे प्रस्न्नता से खिल उठे....
अब तक एक चादर मे ढका भेद उजागर हुआ।जैेसे सिंधु बाहर से शांत भीतर से अथाह हलचलो को समेटे हो....बस वैसे ही....
युगल के निचले वस्त्र आभूषण आपस मे बदले हुए है....सब पूरी तरह व्यवस्थित किंतु परिवर्तित....
युगल को भान नही इस श्रृंगार का किंतु सब सखियो के ह्रदय,नयन अत्यधिक शीतलता अनुभूत कर रहे.....मौन टूटा.....कुंज खिल उठा...

Wednesday, 22 March 2017

तीन चना एक छोलका , तृषित

तीन चना एक छोलका , ऐसौ अर्थ बिचार ।
बिहारी-बिहारनि-दास-उर-अंचल बीच बिहार ।।

रसिक में तीनों ही स्वरूप । रसिक अर्थात जो रस रूप स्वरूप प्रियालाल के प्रेम सरोवर में डूब गए ।
कितनी दिव्य बात कही , तीन चना एक छोलका । यानि प्रियाजु-प्रियतम और उनके दास तीनों की भावना जहाँ हो । वह रसिक ।
रसिक श्यामसुन्दर का एक नाम है , और वह नाम है उनमें 4 विशेष माधुर्य भावना के कारण । वह रसिक हुए है प्रियाजु के स्वरूप में प्रेम विश्राम से ।
अतः रस शब्द से गूढ में प्रियाजु ही है जो श्यामसुन्दर में भर ही गई है । तो रसिक अर्थात युगल रस । न कि युगल में भेद से केवल कृष्ण ही रसिक है , प्रियाजु के प्रेम सुवास में डूबे श्यामसुन्दर जु जिनमें भीतर रसवत द्रवीभूत स्थिति ही हो गई है , प्रियाजु के प्रेम-परिणय से ।
रसिक में तीनों है ... श्यामसुन्दर , प्रियाजु , और दास यहाँ दास वह है जो युगल स्वरूप के दृष्टा है और गहनता में युगलस्वरूप की दृष्टा सखी है ।
अर्थात यहाँ तीनो रस है ... जीव की शरणागति के परिणाम से वहाँ वहीँ है जहां वह शरणागत । और श्यामसुन्दर के सन्मुख कोई भी शरणागत है तो वहाँ उनकी अंतः भावना फलित होती है , जीव में इतनी बुद्धि या सामर्थ्य नहीँ कि वह गोपी रस में आवें , रसिक गोपी रस से भी सघन स्थिति है । क्योंकि श्री कृष्ण को सम्पूर्ण मन सहित जो रसपान करें वें गोपी । अर्थात दसों इंद्रिय जिसकी कृष्ण रस में डूबी हो और मन भी । परन्तु उसे श्रीकृष्ण रूपी आनन्द की पिपासा है । यह वस्तुतः विशुद्ध कामना है , भौतिक कामना नहीँ , परन्तु कामना तो है ही ।
जीव काम शून्य नहीँ हो पाता अतः ईश्वर ही अनुग्रह कर उसके काम को प्रेम में परिवर्धित करते है । कृष्ण संग की कामना सम्भव है , परन्तु कृष्ण संग सम्भव नहीँ क्योंकि कृष्ण सन्मुख होते ही काम शून्य हृदय होता है और उनके प्रति अपार प्रेम उनके ही अनुग्रह से प्रकट होता है , इसमें कोई कहे यह सब क्या है तो संक्षेप में हम कहे जीव मलिन है , वह कीचड़ सहित आगे बढ़ता है ईश्वर उसके मलिन हृदय में भी कमल रूपी प्रेम विकसित करते है परंतु यह विशुद्ध प्रेम नहीँ , इसका विकास विकार से हुआ है । मलिनता से । अब प्रियतम ही उसके विकसित हृदय में जो कमल है उसे भी दृविभूत कर नवनीत(माखन) सा विशुद्ध हृदय चाहते है , जीव कभी मलिनता को नही त्यागना चाहता । प्रभु की प्रथम सन्मुखता से वहाँ जो प्रेम प्रकट होता है वह जीव को गोपी भाव या कृष्ण का स्व प्रेम लगता है । वह भूल गया कि वह तो इंद्रिय के वशात श्री कृष्ण तक पहुँचा था तो प्रेम कैसे हो गया , भोगासक्ति निर्मल प्रेम कैसे हो गई ?
इसमे अपार अनुग्रह है ... जो हृदय से सकाम भी समर्पित होता है उसे श्रीप्रिया पद रति भावना से स्पर्श कर श्यामसुन्दर निर्मलत्व कर देते है । यह उनका आंतरिक संकल्प ही है कि उनके प्रेम की सन्मुखा केवल श्रीप्रिया ही है । वह प्रेमवत केवल उनके समक्ष प्रकट होते है , अथवा जहां वह प्रेम दृष्टि भी कर दे तो उनकी ही आंतरिक श्रीप्रिया पद मकरन्द सेवन भावना से जीव में वहीँ श्री प्रिया का परमाणु भाव वत प्रेम प्रकट हो उस रस का पान करता है । अब वह श्री प्रिया का जीव की भजन और श्रद्धा के अनुरूप प्रकट महाभाव अति निर्मल और प्रियतम के ही सुख की धरा है तो उनके स्पर्श से धरा तो प्रकट होनी ही है । अब यहाँ भी शरणागति उपरांत भी जीव स्वयं को ही प्रेमपात्र अनुभूत करता है , अब कोई कहे कि जीव के हृदय में प्रियालाल का यह मिलन उन जीवों को अनुभूत क्यों हुआ तो कारण है दोनों ही प्रियालाल स्वार्थ रहित निर्मल प्रेम रस में डूबे है वह परस्पर भोग नहीँ करते और जीव अणु अणु से भोगी है ... वह रसोई से आती सुगन्ध से , अथवा दृष्टि मात्र से पदार्थ के गुण दोष भोगने लगता है , अर्थात प्रत्येक इंद्रिय से भोगी है तो यह निर्मल रस उसके भीतर उठ रहा है और वह भोगी है तो उसे यह अपना और कृष्ण का मिलन प्रतीत होता है । जीव-कृष्ण मिलन कैसे सम्भव है ... जीव विलीन हो , शरणागत हो , विशुद्ध हो , आगे बढ़ सकता है ।
रसिक जीव नही है , वह जगत के लिये जीव है , ईश्वर के लिये वह विहार धरा है ।
रसिक अति भावुक स्थिति है , जिसमें रस रूप श्यामसुन्दर और प्रीति रूप प्रिया प्रकट है , परन्तु रसिक न तो यह स्वीकार करते है कि अहम् ब्रह्मास्मि , न यह तत्वमसि केवलं । एक भावना प्रियतम तो दूसरी श्री प्रिया का प्रेमस्वरूप है । रसिक कहते है दासोस्मि । दास हूँ आपका । अर्थात मेरे भीतर आप हो , परन्तु मैं ईश्वरत्व का लोभी नहीं अतः मैं कृष्ण नहीँ हूँ , मेरे भीतर आपके ही अनुग्रह से विशुद्ध प्रीति का पुष्प खिला जो कि श्री प्रिया जु का भाव रस वह भी मेरे किसी पुरषार्थ से मैं नहीं हूँ । वह तो मेरे शरणागत होने से आपके ही विहार की मूल भावना से आपने ही अनुभूत की है , मुझमें यह विशुद्ध प्रीति आपकी ही नित्य प्रिया है । वास्तविक साधक जानते है श्री श्यामसुन्दर कितने अनन्य है वह वेणु मात्र से श्री प्रिया को बुलाने की भावना से महाभावित रस में डूबी निर्मल श्री प्रिया की कायव्यूह स्थितियों को ही रस प्रदान करते है । तो जहाँ वह दृष्टि अथवा स्पर्श करे तो वहाँ कौन उनके उस अपार प्रेम सुधा को समेटने के लिये प्रस्तुत है । जीव तो तितली के माधुर्य को भी नहीँ समेट सकता वह क्या कृष्ण माधुरी पान करेगा । उसे वहीँ सुधानिधि पी सकती है जो उसे तृप्त करने का सामर्थ्य सहज रस भाव धारण किये हो । अतः मिलन प्रियालाल का ही होता है । परन्तु महाभाव तो यहाँ स्पर्शात प्रकट हुआ , मैं महाभाव राधा हूँ यह भी सहज जीव का रस नही । वह अगर प्रियाप्रियतम् के रस का भोगी हो जावे तो भी कोई अनर्थ नहीँ , यह विशुद्ध भोग है । परन्तु भक्ति यहाँ प्रकट नहीँ हुई , भक्ति तो तब ही होगी जब उनका रस भाव भीतर लहरा रहा हो और वहाँ आप सेवायत हो अर्थात दास (दासी) । तो सहचरी में रस-प्रीति भावस्थली अर्थात रसनिकुंज सभी प्रकट हुये है परंतु सहज रूप वह इस रस समागम की भोग्य अवस्था है तो वह जीव है , और इस रसप्रेम की सेवायत है तो वह सहचरी है । हमने पूर्व में भी बात की कि युगल के सुख का चिंतन जहाँ होता है , युगल के सुख के लिये , युगल जहाँ रहते है ... वह सहचरी है । इस रस को भोगना विशुद्ध भोग है , परन्तु उनके प्रेम को वहीँ भोगे और इंद्रिय लोलुप्ता से शुन्य यह रसिक स्थिति वहाँ दास वत सेवायत हो । सहचरी रस पर क्रमशः ...
तृषित ।

कुंजबिहारी रस

यह वृन्दावन का रस है,
इसको "कुंज रस" कहते हैं.
                    और
वृन्दावन के श्यामसुंदर को "कुंज बिहारी" कहते हैं.
इसके आगे एक और रस होता है उसे
"निकुंज रस" कहते हैं.
यहाँ जीव नहीं जा सकता, ये ललिता, विशाखा आदि का स्थान है.
उसके आगे "निभृत निकुंज" होता है,
यहाँ ललिता, विशाखा आदि भी नहीं जा सकतीं, यहाँ केवल श्री राधा-कृष्ण ही रहते हैं.
हम लोगों की जो अंतिम पहुँच है,
वो "कुंज रस" है.
इसलिए हम चाकर "कुंज बिहारी" के हैं.
अष्टयाम लीला के अंतर्गत अष्ट सखियां श्यामा श्याम कौ राजभोग
(दोपहर के भोजन) के लिए आमंत्रित करतीं हैं कि-
भोजन करत लाडिली लाल रतन
जटित कंचन चैकी पर,
आनि धर्यौ सहचरि भरि थाल
छप्पन भोग दत्त छत्तसौं षटरस,
लेहस चोष्य भखि भोज्य
रसालजेंवत जाहि सराहि रस,
अति परसत रंग रंगली
बालश्री हरिप्रिया परस्पर दोउ,
परम प्रवीन पालगोपालजू को
पान खबावति भामिनी,
भोजन कर गवने जुगल,
ललित कुंज विश्राम चैपर
खेल बढ्यौ मन मोदा,
फूल्यौ पिय अति सुनत
विनोदाप्रेरम की चैसर खेले,
पिया प्यारी दोउ पौढ़े हैं
अलसाइ कैं वृन्दावन हित
रूप जाउं बलि,
रह्यौ रति रस सुख छाइ कै
विहरत सुमन सेज पर दोऊ,
इस तरह की और भी निकुंज लीलाएँ है. राधा-माधव कि इन लीलाओं को ऐसा कौन है जो अपनी जिव्हा से गा सकता है.
इसमें त्रुटि तो अवश्य ही होगी,
जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी है.
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■ रज के 12 कुंज है
पुष्पा कुंज, फल कुंज, रस कुंज,
मधु कुंज, गो कुंज, द्वार कुंज,
नवकुंज, शशिकुंज, प्रेम कुंज,
शिद्धव कुंज, लक्ष्मी कुंज, तुलसी कुंज।

■ ब्रज के सात समुद्र है
ध्रुव सागर, गोपाल सागर,
कनक सागर, गोप सागर,
बैकुंठ सागर, लक्ष्मी सागर,
क्षीरसागर।

■ ब्रज के 12 अधिवन है
परमबृह्म मथुरा,
राधाबल्लभ राधाकुंड,
यशोदानंदन नंदगांव,
नवल किशोर दानगढ़,
ब्रज किशोर ललित ग्राम,
राधाकृष्ण वृषभानपुर,
गोकुलेंद्र गोकुल,
कामधेनु बलदेव,
गोवर्धन नाथजी गोवर्धन,
ब्रजवट जाववट,
युगल किशोर वृंदावन,
राधारमण संकेतवन।

■ ब्रज के 40 बिहारीजी:
अजन बिहारी, अंकुर बिहारी,
अप्सरा, उद्धव, कोकिला, कुंजबिहारी, किलोल, गोविंद, चिंताहरण, चंद्र, चतुर, तुष्णावर्त, दानबिहारी, दावानल, पूतना, नवलबिहारी, प्रेमबिहारी, पिता बिहारी, बांकेबिहारी, बहुल बिहारी, ब्रह्मांड बिहारी, प्रेम बिहारी, वृह्मांड बिहारी,
बिछुल बिहारी, मथरोड़ बिहारी, मानबिहारी, मोर बिहारी, रासबिहारी, रसिक बिहारी, रमण बिहारी,
ललित बिहारी, ब्रज बिहारी, बन बिहारी, बुद्ध बिहारी, वेदबिहारी, संकेत बिहारी, शाक बिहारी, श्री बिहारी, शृंगार बिहारी, सत्यनारायण बिहारी, शांतनु बिहारी।

■ ब्रज के पांच पर्वत है
चरण पहाड़ी (कामवन),
चरण पहाड़ी (कामर),
नंदगांव (शिव),
बरसाना (बृह्म,)
गोवर्धन (विष्णु)।

■ ब्रज के सात कदमखंडी है
गोविंद स्वामीजी, पिसावा,
सुनहरा, करहला, गांठौली,
उद्धवक्यारी, दौऊ मिलन की।

■ हिंडोला
श्री कुंड, करहला, संकेत, आजनोखर, रासौली, गहवरवन, वृंदावन, शेषशायी।

■ ब्रज के प्रमुख सरोवर है
सूरज सरोवर, कुसुम सरोवर,
विमल सरोवर, चंद्र सरोवर,
रूप सरोवर, पान सरोवर,
मान सरोवर, प्रेम सरोवर,
नारायण सरोवर, नयन सरोवर।

■ ब्रज की सोलह देवी है
कात्यायनी देवी, शीतला देवी,
संकेत देवी, ददिहारी, सरस्वती देवी, वृंदादेवी, वनदेवी, विमला देवी,
पोतरा देवी, नरी सैमरी देवी,
सांचौली देवी, नौवारी देवी,
चौवारी देवी, मथुरा देवी l

Saturday, 11 March 2017

दशा रस उमगि पिय कैसी , आँचल जु

दशा रस उमगि पिय कैसी।
लौलुप रस भँवर रूप भूलै,छबी चित्र पिय सम जैसी।
शिथिल तनु उर तरंग भारि,गई मति रस दैखि बौराई।
प्यारी पिय तबहु का हौय,रस सिंधु उलटि जब जाई।

रस सिंधु के उमड पडने पर प्रियतम की दशा तो देख सखी कैसी हो गई है।
ये प्रियतम जो सदा सर्वदा प्रिया रस के अति लोभी है आज ये उस रस सिंधु की भँवर मै ऐसै उलझ गए है की यह ही भूल गए की मुझे यह रस पीना है।रस दर्शन से ऐसे मतवालै हो गए है ये....प्रियतम की छबी तो आज किसी चित्र की भाँति होकर रह गई है।
प्यारी जु के ऐसे रस दर्शनो से इनका अंग अंग तो शिथिल हो गया है किंतु ह्रदय मे ऊँची ऊँची तरंगे उठ रही है।ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो प्रियतम की मति तो यह रस देखकर बाँवर सी हो गई है।
प्यारी!अभी तो प्रियतम ने केवल रस दर्शन ही कियै है,पीया नही....मै तो यह सोच रही हू की तब उनकी दशा क्या होगी जब यह रस सिंधु इन पर उलट ही जायेगा......

रहै सजाय भूलै पिय बात , आँचल सखी जु

हँसती खिलती बतियाती हुई कुछ सखियाँ प्रिया जु संग श्रृंगार हेतू श्रृंगार कक्ष की ओर आ रही है।
कक्ष के द्वार तक पहुचकर क्या देखती है की श्यामसुंदर द्वार रोककर खडे हुए है।भौह द्वारा एक सखी पूछती है---का भयौ?काहै दण्ड कौ ताई द्वार पै ढाडै हौ जी??
लाल जु विनती करते हुए उत्तर दिये---सखी!मैरौ जी प्यारी जु कौ श्रृंगार करवै कू ह्यै रह्यौ,आज मोय करवै दौ न..
सखी प्रिया जु की ओर देख के उनके मनोभाव समझ बोली----ठीक है श्यामसुंदर और श्री प्रिया जु को कर लालजु के कर मै सौप सब एक ओर को चली गई....
कक्ष के भीतर पहुच लाल जु प्रिया जु कौ श्रृंगार करवै लगै।
अभी कुछ ही श्रृंगार किया था की लालजु के प्रेम सिंधु मे ऐसौ भाव तरंग उठी की लालजु अती अधीर हो उठे....
युगल के अंतर मे उठी इस रस तरंग से ये श्रृंगार कक्ष,निभृत रस केली कुंज मे ही परिवर्तित ह्यै गयौ....और प्रियतम अब तक जो प्यारी जु कौ श्रृंगार कियै रहै,सब एक एक कर छुडावै लगै....
प्यारी जु की ग्रीवा मे कर डालकर हल्के हल्के से अंगुलियो को फिराते हुए कंठ हार नीचे ओर नीचे.....प्यारी जु का वक्ष पूर्णतः रिक्त हो गया।कंचुकी से बाहर को झाँकती मनोरम चित्रावली को निहार लालजु ने अति आतुरता मे प्यारी जु के वक्ष पर बनी इस चित्रावली के स्थान को अपने अधरो से चूम लिया....हाय! अति सुकोमलांगी राधा के वक्ष पर कैसी अरूण छाप छूट गई है...
यह चित्रावली मानो कंचुकी रूपी झरोखे से लाल जु को उस रस सिंधु की ओर ले जाने को ललचा रही है....
बाँध टूट ही गया और लालजु ने अपने कर प्यारी जु के वक्ष पर से फिराते हुए,दोनो अंस से बढाते हुए,सर पर रखी चूनर मे से पीछे कटि पर ले जाते है और....कंचुकी के बंध खोल देते है।
...वक्ष निरावरण है,किंतु सर पर चूनर सजी है।लाल जु इस निर्बाध रस सिंधु को देख यू आतुर हो चलते है मानो चातक को स्वाति रस सिंधु मिल गया हो,बिंदु नही सिंधु ही पा गया....
लालजु इस रूप सिंधु को देख शिथिल से होकर बाँवरे से हुए यह भूल गये की रस पीना है और एकटक निहारते ही रह गये....
तभी प्यारी जु दोनो कर से चूनर को आगे कर पकड लेती है और ये रस केंद्र एक झीने आवरण मे नाज से आ बैठते है....
लाल जु कुछ सचेत हुए औरे लालजु की रस तृषा अनंत गुना ओर बढ गई।कोई उपाय न देख लालजु प्यारीजु के जूडा मे बंधे केश खोल देते है।जूडे मे पुरी माला एक ओर को जा पडी और प्यारी जु ने केश सम्हालने को चूनर छोड दी....अहा!चूनर सर से ढलक नीचे जा पडी।
और लालजु ने रस सिंधु का मानो नेत्रो से पूजन कर पहले एक तट का रस पिया फिर दूसरे तट......आतुरता बढ रही और दोनो एक रस,एक श्वास,एक तेज,एक वपु होने लगे........

रहै सजाय भूलै पिय बात।
बाढि मोद रस तरंग यौ,लगै उतारवै साज आप हाथ।
हार ग्रीवा उतार कौ निहारै,चित्र फबै उरोज  ललचात।
तौर बंध कंचुकी बाध हटि,चूनर ओट करि प्यारी छिपावै।
मुक्त केश किये पिय प्यारी,धरि केश चूनर ढुरी जावै।
उरूज दु रस पीयै भरिकै,प्यारी पिय यौ डटै रहै।
वपु सरस श्वास तेज ऐकौ,तापै अघै ना औरि कहै।