Thursday, 2 February 2017

श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्रः , श्री करपात्री जी

*श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्रः-*

श्यामसुन्दर मदनमोहन ब्रजेन्द्रनन्दन अपनी प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी, राजराजेश्वरी श्रीराधारानी वृषभानुनन्दिनी के अनन्त माधुर्यामृत, सौगन्ध्यामृत, सौरस्या मृत का रसास्वादन करते-करते उस समुद्र में निगग्न है- परन्तु उसका पारावार नहीं- अन्त नहीं- ठिकाना नहीं। इसी तरह राधारानी वृषभानुनन्दिनी अपने प्राणनाथ प्रियतम के अनन्त सौन्दर्य, माधुर्य, सौरस्य-सुधाजलनिधि में अवगाहन करते-करते विभोर हैं। पर उसका भी पारावार नहीं, अन्त नहीं- ठिकाना नही। असल में अनन्त ब्रह्माण्ड के प्रेमियों को आनन्दित करने वाले रसों के उद्गम-स्थान निखिल रसामृत सिन्धु से श्रीकृष्ण के अंगों का निर्माण हुआ है। इनके एक-एक रोम में अनन्त-अनन्त सौन्दर्य जलनिधि, एक-एक रोम में अनन्त-अनन्त माधुर्यामृत सौरस्यामृत महासमुद्र है। अनन्त रोम हैं। एक-एक रेाम में अनन्त माधुर्यामृत, सौन्दर्यामृत-लवण्यामृत समुद्र हैं, उनमें गोता लगाते-लगाते पार ही नहीं। इसलिये यह स्थिति विचित्र है। इन परिस्थितियों का रसास्वाद करते-करते क्षण दो क्षण,कल्प-दो कल्प की कौन कहे, अनन्त काल तक पता नहीं लगता कि कितने क्षण बीते हैं। इसलिये हम कहा करते हैं कि दोनों एक दूसरे को पहचानते ही नहीं, प्रत्यभिज्ञा ही नहीं। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ पूर्वानुभूत का अनुभव है। ‘सोअयंदेवदत्तः’ पटना में अनुभूत देवदत्त को काशी में देखते है तो पूर्वानुभूत का अनुभव होता है, इसी को प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। यहाँ पूर्वानुभूत से का अनुभव कभी होता ही नहीं- ‘प्रिया प्रियतम में भइ न चिह्नारी’, पूर्वानुभूत से कोटि-कोटि गुणित उत्कृष्ट अद्भुत स्वरूप का अनुभव होता है। इसलिये पूर्वानुभूत का अनुभव कभी न श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द को हुआ, न राधारानी वृषभानुनन्दिनी को कभी हुआ।
श्री ध्रुवदास के शब्दों में-

न आदि न अन्त विलास करैं दोउ लाल प्रिया में भइ न चिह्नारी।
नई नई भाँति नई छबि कान्ति नई नवल नव नेह बिहारी।।
रहे मुख चाहि दिये चित चाहि परे रसरीति सुसर्व सुहारी।
रहें इक पास करें मृदु हास सुनौ धु्रव पे्रम अकत्थ प्रेम अकत्थ कहारी।।

सारस पत्नी लक्ष्मणा केवल सम्प्रयोग-जन्य रस का ही अनुभव करती है और चक्रवाकी विप्रयोग-जन्य तीव्रताप के अनन्तर सहृदय-हृदय -वेद्य सम्प्रयोग-जन्य अनुपम रस का आस्वादन करती है, परन्तु वह भी वियोग काल में सम्प्रयोगजन्य रसास्वादन से वंच्चित रहती है। किन्तु नित्य-निकुंज मं श्री निकुज्जेश्वरी को अपने प्रियतम परम पे्रमास्पद श्रीव्रजराज किशोर के साथ सारस पत्नी लक्ष्मणा की अपेक्षा शत-कोटि गुणित दिव्य सम्प्रयोग-जन्य रस की अनुभूति होती है, साथ ही चक्रवाकी की अपेक्षा शतकोटिगुणित अधिक विप्रयोग जन्य तीव्र ताप के अनुभव के अनन्तर पुनः दिव्य रस की भी अनुभूति होती है। अन्यत्र सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक दोनों ही श्रृगार एक कालावच्छेदेन उद्बुद्ध एवं उद्वेलित नहीं होते। यहाँ परस्पर विरुद्ध धर्माश्रय है ‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’ , प्रभु श्यामसुन्दर में तो दोनों ही प्रकार के श्रृंगार रस एक कालावच्छेदेन व्यक्त होते हैं। कह सकते हैं कि एक में ज्वार होगा और दूसरे में भाटा। नहीं-नहीं दोनां में ज्वार है। दोनों सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उद्बुद्ध उद्वेलित उभयविध श्रृंगाररस महासमुद्र से निकले हुए निर्मल निष्कलंक पूर्णचन्द्र हैं। इस तरह, ‘श्रीकृष्ण कौन है?’ चन्द्र। ‘कहाँ के चन्द्र?’ श्रीराधारानी में जो श्रीकृष्ण विषयक सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उद्वेलित उभयविध श्रृंगाररस महासमुद्र है उससे अभिव्यक्त निर्मल-निष्ककलंक पूर्णचन्द्र। इसी तरह राधारानी भी चन्द्र हैं? कहाँ के चन्द्र हैं? श्रीकृष्ण चन्द्र में जो राधारानी विषयक सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उद्बुद्ध उद्वेलित उभयविध श्रृंगाररस महासमुद्र है, उसी से जो आविर्भूत जो निर्मल-निष्कलंक पूर्णचन्द्र, वे ही हैं श्री राधारानी।
श्रीराधारकृष्ण क्या हैं? ‘उभय-उभय भावात्मा, उभय-उभय रसात्मा’ हैं, श्रीवल्लभाचार्य के शब्दों में। अर्थात् दोनों-दोनों के भाव स्वरूप और दोनों-दोनों के रस स्वरूप हैं। श्रीराधारानी के भाव स्वरूप और रस स्वरूप हैं श्रीकृष्ण और श्रीकृष्णचन्द्र के भावस्वरूप-रसस्वरूप हैं श्री राधारानी। इस प्रकार दोनों लोकोत्तर वस्तु हैं। महावाणी और अन्य ग्रन्थों में कहा गया कि श्री राधा-कृष्ण का सम्बन्ध अकाट्य है, सर्वथा अभेद्य है। मरकतमणि में जैसे कंचन की तादात्म्यापत्ति हो अर्थात् मरकत मणि में कंचनखचित हो जाय और कंचन में मरकतमणि खचित हो जाय। लेकिन इस सम्बन्ध से भी ऊँचा सम्बन्ध है तरंग और जल का। तरंग से जल का विप्रलम्भ (विच्छेद या वियोग) नहीं होता।
रसिक लोक प्रियतम के सम्मिलन में हार व्यवधायक न हो इसलिये कण्ठ में हार भी नहीं धारण करते-‘हारो नारोपितः कण्ठे मया विश्लेषभीरुणा’ (हनुमन्नाटक) इतना ही नहीं, कंचुकी का व्यवधान ही उन्हें असह्य हो, रसोदे्रक में जो रोमांच होता है वहाँ कंचुकी का व्यवधान भला कैसे सह्य होगा? लेकिन जला और तरंग का जो संश्लेष है, उसमें तो हार, कंचुकि और रोमांच का भी व्यवधान नहीं। माना जाता है कि ‘क्लीं’ में क का अर्थ है श्रीकृष्णचन्द्रपरमानन्दकन्द मदनमोहन ब्रजेन्द्रनन्दन; ‘ई’ दीर्घ चतुर्थस्वर का अर्थ तन्त्रों में काम कला है। काम कला का अभिप्राय है उत्कृष्ट प्रीति और बिन्दु का अर्थ है रसोदे्रक। इस तरह क= अचिन्त्य अनन्त परमानन्द सुधासिन्धु श्रीकृष्ण; ल्= सुधासिन्धु के माधुर्यसार सर्वस्व की अधिष्ठात्री राधारानी; ई=आनन्दसार सर्वस्व श्रीकृष्ण और माधुर्यसार सर्वस्व श्री राधारानी दोनों का परस्पर पे्रम; श्रीराधाकृष्ण के परस्पर सम्मिलन से प्रादुर्भूत रसोद्रेक ‘क्लीं’ का अर्थ है। इस तरह काम बीज ‘क्लीं’ का अर्थ है श्री राधाकृष्ण के परस्पर पे्रमपूर्ण सम्मिलन से प्रादुर्भूत लोकोत्तर रसोदे्रक। महावाणीकार कहते हैं-‘सुधि हू सुधि बिसर गई’, इसी प्रकार कहावत है-‘करुणा भी करुणा से आकान्त हो गई’, ‘वीर रस में वीर रस का उद्रेक हो गया, इसी तरह साक्षात् जो पूर्णानुराग रससार सर्वस्व वस्तु है उसमें रसोदे्रक-यह तो जल और तरंग से भी अत्यन्त अन्तरंग वस्तु है। इस तहर श्रीराधा और कृष्ण का सम्मिलन जल और तरंग से भी अत्यधिक अन्तरंग है, सर्वागीण और सर्वाधिक अन्तरंग वस्तु है। उसी रसोद्रेक की अभिव्यक्ति के लिये कहा गया है-

चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्ज-
मालानुपक्तपरिधानविचिचवेषौ
मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठयां
रंगे यथा नटवरौं क्व च गायमानौ।।

(जब राम-श्याम आम की नयी कोपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रगंविरंगे कमल और कुमुद की माला धारण कर लेत हैं, श्रीकृष्ण के सांवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोरे शरीर पर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा विचित्र बन जाता है। ग्वाल बालों की गोष्ठी में वे दोनों बीचोंबीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़ देते हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊं उस समय उनकी कितनी शोभा होता है?)
कुछ महानुभावों के मत में उत्पलाब्जमाला पे्रमनिरोध को सूचित करती है। नवल, कोमल, तरुण, अरुण आम्रपल्लव आसक्ति निरोध को सूचित करता है। मयूर पिच्छ व्यसन निरोध के आविर्भाव को सूचित करता है। माने परमानन्द रससार सर्वस्व में भी प्रेम का उद्रेक है, आसक्ति का उद्रेक है और व्यसन का निरोध है। एवं भूत जो पूर्णतम पुरुषोत्तम तत्व वह इस रूप मं प्रकट है।
मधु ऋतू विशेष ।
जयजय श्यामाश्याम ।

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