Wednesday, 22 February 2017

पुष्टि मार्ग की मणि

जय श्री कृष्ण

पुष्टि मार्ग की मणि

गोवर्धनवासी सांवरे तुम बिन रह्यो न जाये ।

— हे गोवर्धनवासी श्री कृष्ण, अब मैं आपके बिना नही रह सकता

[1] बंकचिते मुसकाय के सुंदर वदन दिखाय ।
लोचन तलफें मीन ज्यों पलछिन कल्प विहाय ॥१॥
— आपकी इस सुन्दर छवि ने मेरा मन मोह लिया है अौर आपकी मुस्कान में मेरा चित्त अटक गया है । जैसे मछली बिना पानी के तडपती है वैसे ही मेरी आँखौ को आपसे बिछडने की तडपन हो रही है अौर मेरा एक एक पल कल्प के समान बीत रहा है ।

[2] सप्तक स्वर बंधान सों मोहन वेणु बजाय ।
सुरत सुहाई बांधि के मधुरे मधुर गाय ॥२॥
— हे मोहन आपकी वंशी की धुन सेकडौ संगीत स्वरौ से अोतप्रोत मधुर गीत गा रही है।

[3] रसिक रसीली बोलनी गिरि चढ गाय बुलाय ।
गाय बुलाई धूमरी ऊंची टेर सुनाय ॥३॥
— आप जब पर्वत पर चढकर गायौं को बुलाते हो, अौर उस धूमल गाय को ऊचे स्वर से बुलाते हो, वह छवि मेरे हृदय में बस गयी है ।

[4] दृष्टि परी जा दिवस तें तबतें रुचे नही आन ।
रजनी नींद न आवही विसर्यो भोजन पान ॥४॥
— अौर जिस दिन से मैंने आपकी इन छवियौं का दर्शन किया है, मुझे किसी भी अन्य वस्तु में रुचि नही रही अौर नाही मुझे रात को नीद आती है, यहाँ तक कि मैं खाना पीना भी भूल गया हूँ ।

[5] दरसन को नयना तपे वचनन को सुन कान ।
मिलवे को हियरा तपे जिय के जीवन प्रान ॥५॥
— हे साँवरे, मेरे जीवनप्राण, तेरे नित्य दर्शन के लिये मेरे नयन, तेरी बोली के लिये मेरे कान एंव तुझसे मिलने के लिये मेरा हृदय तडपता रहता है ।

[6] मन अभिलाखा यह रहे लगें ना नयन निमेष ।
इक टक देखौ आवतो नटवर नागर भेष ॥६॥
— अब मेरे मन की यही अभिलाषा है कि मेरे नयन एक क्षण के लिये भी बन्द न हौं अौर तुम्हारे नटवर नागर रूप का ही एकटक दर्शन करते रहैं ।

[7] पूरण शशि मुख देिख के चित चोट्यो वाहि ओर ।
रूप सुधारस पान को जैसे चन्द चकोर ॥७॥
जैसे चकोर पक्षी पूर्णमासी के चन्द्रमा को एकचित होकर देखता रहता है वैसे ही आपके दिव्य स्वरूप का अम्रतमयी पान करने को मेरा चित्त व्याकुल रहता है ।

[8] लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक ।
कमल कली रवि ज्यों बढे छिन छिन प्रीति विशेष ॥८॥
— मैं समाज, परिवार अौर शास्त्र की लाज नही कर पा रहा हूँ अौर मेरा पूरा विवेक नष्ट ही हो गया है । हर क्षण मेरी व्याकुलता अापके प्रति विषेश प्रेम को एसे ही बढा रही है जैसे कि सूर्य के उगते ही कमल की कलियाँ बढने लगती हैं ।
मन्मथ कोटिक वारने निरखत डगमगी चाल ।

[9] युवति जन मन फंदना अंबुज नयन विशाल ॥९॥
— जैसे युवतिया अपने विशाल नैनौ से साधारण जन के मन को फँसा देती हैं वैसे ही आपकी डगमगाती चाल को देखकर मेरा मन बंध गया है अौर इस चाल पर मैं करोडौं मन्मथ (कामदेव) न्यौछावर कर दू ।

[10]प्रेमनीर वरखा करो नव घन नंद किशोर ॥१०॥
— जैसे चातक अौर मोर वर्षा के लिये व्याकुल होकर रट लगाते रहते हैं वैसे ही लाडले मुझे ये रट लग गयी है तो हे नंद किशोर आप नये नये रूप में प्रेम रूपी जल की वर्षा करो ।

[11] कुंज भवन क्रीडा करो सुखनिधि मदन गोपाल ।
हम श्री वृंदावन मालती तुम भोगी भ्रमर भुवाल ॥११॥
— जैसे चातक अौर मोर वर्षा के लिये व्याकुल होकर रट लगाते रहते हैं वैसे ही लाडले मुझे ये रट लग गयी है तो हे नंद किशोर आप नये नये रूप में प्रेम रूपी जल की वर्षा करो ।

[12] युग युग अविचल राखिये यह सुख शैल निवास ।
गोवर्धनधर रूप पर बलिहारी चतुर्भुज दास ॥१२॥
— हे गोवर्धन नाथ, अगर मुझे युगौं युगौं तक भी पृथ्वी पर जन्म मिले तो गोवर्धन पर्वत ही मेरा निवास हो क्यौंकि आपके गोवर्धनधारी रूप पर चतुर्भुजदास हमेशा बलिहारी है ।

Sunday, 12 February 2017

सखी धर्म , रसखान

सोई है रास मैं नैसुक नाच कै नाच नचायौ कितौ सबकों जिन।
सोई है री रसखानि किते मनुहारिन सूँघे चितौत न हो छिन।।
तौ मैं धौं कौन मनोहर भाव बिलोकि भयौ बस हाहा करी तिन।
औसर ऐसौ मिलै न मिलै फिर लगर मोड़ो कनौड़ौ करै छिन।।।।

तौ पहिराइ गई चुरिया तिहिं को घर बादरी जाय भरै री।
वा रसखान कों ऐतौ अधीन कैं मान करै चलि जाहि परै री।।
आबन कों पुततीत हठा करैं नैं‍ननि धारि अखंड ढरैरी।
हाथ निहारि निहारि लला मनिहारिन की मनुहारि करै री।।।।

मेरी सुनौ मति आइ अली उहाँ जौनी गली हरि गावत है।
हरि है बिलोकति प्राननि कों पुनि गाढ़ परें घर आवत है।।
उन तान की तान तनी ब्रज मैं रसखानि समान सिखावत है।
तकि पाय घरौं रपटाय नहीं वह चारो सो डारि फँदावत है।।।।

Thursday, 9 February 2017

वपु सु-सौना अंग अंग टौना,अति मन मौहना राधारमणा

जिनकी सुंदर देह के रोम रोम से निकलती शुद्ध स्वर्ण कांति से स्वर्णमय प्रतीत होते,जिनका अंग अंग किसी जादू-टौने से भरा,जो मन को अत्यधिक शीघ्रता से मोह लेने वाले है,वे ऐसे राधारमणा है।
जिनके अधर रस से भरे अति सरस है,जिनका रंग बादल के समान है और जो सदैव प्यारी श्रीजु रूपी पुष्प के भ्रमर है,वे ऐसे राधारमणा है।
जो सुन्दर सहज रस के रसिया है,श्रीजु के ह्रदय मे सदैव रमण करने वाले,बसने वाले है और जो रति रस के रसिया है,वे ऐसे राधारमणा है।
जिनके दो नयन दो धार वाली कटार के समान है और जो प्रेम रस से रतनारे से हुए है,जो प्यारी के पिया प्यारै है,वे ऐसे राधारमणा है।

वपु सु-सौना अंग अंग टौना,अति मन मौहना राधारमणा!
स-रस अधरा रंग ज्यौ बदरा,श्री कौ भँवरा राधारमणा!
सु-रंग रसिया श्री उर बसिया,रति रस रसिया राधारमणा!
दृगन दु-धारै अर भयै रतनारै,प्यारी पिय प्यारै राधारमणा!

Tuesday, 7 February 2017

श्यामसुंदर का भोग्य सुख नहीँ

किशोरी जु के भीतर श्यामसुंदर सुख की अथाह इच्छा ही व्याप्त है जिससे उन्हें कभी तृप्ति मिलती ही नहीँ ।
श्यामसुंदर का कोई भोग्य सुख होता तो कभी तृप्ति सम्भव थी । परन्तु श्याम सुंदर में ऐसा दिव्य रस किशोरी संग से ही उनमें प्रकट हो गया है कि उनमें निज सुख मूल में कुछ रहा ही नहीँ है । बस प्रिया का हर्शन उनका सुख है । परन्तु प्रिया जु की तरह वह भी केलि रूप नित नव भावना से स्वतः खेलते है ... जिससे वह लीला नव रूप से नित खिलती है । परमार्थ सदा अतृप्त अवस्था है और वास्तविक सुख भी परमार्थ से ही अनुभूत होता है । निज स्वार्थ में हुए स्वार्थ सिद्धि की ही उपेक्षा चित्त कर देता है ... स्वार्थ पूर्ति में कभी रस या सुख सम्भव नहीँ । स्वार्थ सिद्ध करते करते जीव को स्वयं से आंतरिक घृणा भी रहने लगती है जिससे वह बाहर विकृत रूप से व्यक्त होता है ।
अपने प्रियतम के सुख को जीवंत करना ही लीला है ।
तृषित

Monday, 6 February 2017

प्रीति प्रियतम , तृषित

प्रीति-प्रियतम

उन्हें ऐसे सौन्दर्य लावण्य माधुर्य की पिपासा जिसकी स्मृति से ही उनके ही दिव्य देह चराचर जगत प्रेमासक्त हो उनके प्रति आकर्षित होता है ।
जो खेंचता है वह कृष्ण है ।
परन्तु कृष्ण जो खेंचते वह खेंचने की शक्ति उनमें राधा है । राधा का स्मरण ही चराचर जगत में व्याप्त प्रीति तत्व को खेंचता है । जीव नहीँ , पदार्थ नहीँ , उसका मूल प्रीति तत्व उनके प्रति खींचा चला जाता है । जिसकी बाधा का नाम ही जीव तत्व है । मूलतः किसी भी प्रमाण से जगत का कारण प्रीति का विस्तरण ही तो है । जगत यहाँ वह है और उनसे झरता रस प्रिया । कही भी प्रीति न हो तो चित उस तरफ कभी गमन नहीँ करता । वस्तुतः वही मूल प्रीति (राधा) मूल प्रियतम से मिल कर तृप्त हो सकती है ।
इच्छा के त्याग को शास्त्र और सिद्ध क्यों कहते है , क्योंकि जीव की बाह्य इच्छा रुकें तब वह उस प्रीति को जी सकेगा और वह तो पदार्थ , वस्तु आदि सर्वत्र एक ही प्रियतम को खोज रही है । इच्छा रहित होते ही ... प्रीति ही व्याकुल हो वास्तविक पथ की और भागती और प्रियतम भी प्राकृत इच्छा से अप्राकृत हुई और त्रिगुणात्म से परे निर्गुणात्म स्वरूपा श्री आह्लादिनी राधा की और ही गमन करते है , ऐसा होते ही जीव के हृदय पर उसकी आत्मा के कारण उसके ईश्वर अपनी प्रीति संग प्रकट होते है । यह मिलन जीव का मिलन नहीँ है ,वह यहाँ सेवक है , यह उसके मूल बीज और मूल प्रकृति का यानी रूप और प्रेम का । कृष्ण और राधा का मिलन है ।
लौकिक इच्छा से जीव ईश्वर के प्रीति तत्व का गहन अनादर करता है । क्योंकि इच्छा शक्ति स्वभाविक रूप से कृष्ण अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीँ कर सकती । जीव के हृदय  में कृष्ण की इच्छा या सुख रूपी श्यामा अर्थात प्रीति का प्रकट होना ही भक्ति है और यह अति न्यूनतम हो पाता है क्योंकि जीव न इच्छा को त्याग पाता है न ही अहंकार को । ईश्वर की व्यवहारिक लीला में भी उनके रस की बाधा ईश्वर सुख के अतिरिक्त इच्छा और अहंकार ही है जिसके कारण बाह्य विरह हुआ है । ऐसा ही जीव करता है । उसका वास्तविक आत्म तत्व जिसके लिये आत्मा ने युगों की यात्रा की वह प्रभु है परन्तु हृदय में नित्य प्रकट प्रभु अप्रकट अनुभूत है तो इसलिय कि वह हृदय पर प्रीति हेतु ही प्रकट होंगे । जीव राधा नहीँ ... निकुंज हो सकता है । जिसमें प्रीति अपने प्रेमास्पद से मिलती है । ईश्वर के सुख की यह प्रीति क्यों जीव में उतरी मात्र उन्हें सुख देने को ।
मान लीजिये प्रिया हिरनी के खिलौने में प्रवेश कर गई ... उन्हें रिझाने को पर वह खिलौना प्रिया की भावना प्रियतम सुख को समझ न सकी और उसे प्राकृत हिरनी रूप को सत्य समझ भागी ... हिरण के पीछे । जब वह वहाँ भागी तो प्रीति ने अपना लक्ष्य शयमसुन्दर नहीँ छोड़ा ,  बाह्य रूप से हिरण हिरणी का मिलन आंतरिक प्रीति और प्रियतम का ही मिलन है ... परन्तु हिरणी जब देह को खिलौना समझे तब वास्तविक इच्छा यानी श्यामा प्रकट होगी और वह यहाँ वहाँ नहीँ श्यामसुन्दर के लिये खेल खेलेंगी ...
मूल में हम प्रेम से खिलें है ... प्राकृत नहीँ ... हमारी आत्मा के मूल में प्रेम है ।
वह स्वभाविक उनकी और ही जाएगा अगर जीव बाह्य सम्बन्ध को भूल वास्तविक श्री हरि को सम्बन्ध स्वीकार कर लें । वह उनके अनुरूप उनके सुख हेतु प्रकट हुई है ... और वास्तविक प्रीति को कृष्ण का माधुर्य स्वभाविक खेंचता है यहाँ कृष्ण बहु जीवों के भोगी हो कर भी प्रिया रस से ही प्रिया के लिये स्मरण अवस्था में है ... वास्तव में द्वितीय पदार्थ का उन्हें स्पर्श ही नहीँ ... प्रीति के अतिरिक्त और वह प्रीति जीव की निज नहीँ है । जीव तो वस्त्र है प्रीति का ... वह कुंज है जहाँ प्रीति उनसे मिल सकें ... वह प्रीति उनकी राधा है । प्रेम हेतु वह प्रकट होते है मूलतः वह प्रेम बहु हृदयों में मूल में विद्यमान प्रियतम का सुख रूप प्रीति यानि राधा है ।
प्रियाप्रियतम् अर्थात आत्मा के मूल बीज और उसकी मूल प्रकृति का मिलन किंचित मात्र हृदयों पर होता है ... जीव का बाह्य स्वरूप भंग ही नहीँ हो पाता । इससे व्याकुलित कृष्ण खेंचते है अपनी प्रीत को ... अब भोगी ... वासना में डूबा क्या जाने कि वास्तविक इच्छा अचाह से प्रकट होगी और अचाह ही उनके निज स्वरूप की मिलन भूमि वृन्दावन है । श्यामसुंदर से मिलन उनकी ही प्रिया का सम्भव है ... हाँ कृपा से दोनों ही प्रकट है परन्तु भोग जगत में आसक्त जीव के खिलौने को सच मानने मिलकर भी मिल नहीँ पाते । मंदिर में आंतरिक तृप्ति इसलिय होती है क्योंकि कृष्ण तृप्त होते है प्रीति के अति निकट आने पर , जीव की इच्छा शक्ति राधा है यह वह जब जाने जब वह अन्य इच्छा न करें और वह हमारी हर इच्छा को प्रीति जानते है क्योंकि मूल में वही तो है और वह प्रीति भी हर वस्तु पदार्थ में व्याप्त कृष्ण तत्व का स्पर्श करती है इसलिये नई वस्तु जीव को कुछ आनन्द देती है , वास्तव में जीव के हृदय की इच्छा प्रीति है और वह कृष्ण की वह सुख भावना है जिसे कृष्ण खेंचते है और जो कृष्णाकर्शनी है । बिना हरि इच्छा और प्रबल भगवत रस की प्यास के यह विषय जीव जीव रहते नहीँ समझ सकता । इच्छाओं से परे कोई अवस्था इसे जानती है । तृषित ।

Friday, 3 February 2017

वृन्दावन महिमामृत शतक 9. 3

श्रीराधा जी के सुगन्धित सुशीतल चरण-कमलों का अपने वदन, लाचन तथा हृदय को स्पर्श कराके बार-बार घ्राण करते हुए कोई अनिर्वचनीय श्याम-विग्रह विराजमान है।

श्रीराधाजी के चरण कमलों से उच्छलित माधुर्य सागर के बिन्दु-समुद्र द्वारा कब मेरा प्रेमोन्मत्त हृदय श्रीवृन्दावन में लय होगा?।

श्रीवृन्दावन में अति मधुर-अद्भुत-लीलाओं में मनोरम नूपुर ध्वनियुक्त शोभित हो रहे हैं, नखमणियों की छटा से चारों दिशाओं को आलोकित करने वाली श्रीराधाजी के पदविन्यास का मैं ध्यान करता हूँ।

श्रीवृन्दावन के कुंजों में निरन्तर क्रीड़ा-परायण गौरश्यामात्मक श्रीयुगलकिशोर का मैं भजन करता हूँ वे उन्मादिमदन द्वारा अति चंचल हो रहे हैं अपनी-अपनी कला विचित्र सुरत क्रीड़ादि द्वारा एक दूसरे को विस्मयान्ति तथा मोहित कर रहे हैं, हंसा रहे हैं प्रोत्साहित और उन्मादित कर रहे हैं,।

ब्रह्मादि श्रेष्ठ देवतागण, इन्द्रादि साधारण देवता, असुर या मनुष्य अथवास योगीश्वर कोई भी भगवान की युवती रूप-माया का पार नहीं पा सकता अति क्षुद्रतर मैं भी इसी माया के चाण्डालवत् क्रूर कर्मों का आचरण कर रहा हूँ। हे श्रीवृन्दावन! कब आप मुझे स्वीकार करें तो साधुगण भी मुझे वन्दना करने लगेगें ।

विचित्र मुणिमुक्ता समूह तथा नाना मणिकांतियुक्त सुवर्ण खचित मनोहर मुरली पर धारण कर श्रीवृन्दावन में जो निरन्तर श्रीराधा जी का उज्जवल यश गान करता है, वह मनोहर श्याम-विग्रह मेरे मन अवस्थान करे।

प्रत्येक अंग की उज्ज्वल-स्वण-गौर स्निग्ध अतीव-ज्योति से दिशाओं को जो आच्छादन कर रही है, एवं श्रीवृन्दावन में रूप शोभा की शेष सीमा है वह किशोरी किसी श्याम-आत्मा की चोरी करके विराजमान है।

हाय! श्रीवृन्दावन के कुंजों में सुवर्णकमलरूप दो मुकुल (रत्न) और एकपूर्णचन्द्र (वदन) धारण करने वाली, तथा मध्येदेश में अति कृष होने से अतीव कांति प्रसारित करते हुए एक स्वर्णलतिका (श्रीराधा जी) किसी एक दिव्य-उन्मदरस श्याम तमाल (श्रीश्यामसुन्दर) को आलिंगन कर रही हैं।

कर्णिकार-कुसुम के कुण्डल धारण करने वाले तथा जिनके बिम्बाधर (गोपीगणों द्वारा) सदा चुम्बनीय हैं, जो वेणु बजा रहे हैं, सुगंध पुष्प-वेणु द्वारा जिनका श्याम शरीर अत्यन्त मनोहर शोभा दे रहा है, जिनके चूड़ा में मोर-पुच्छ शोभित है, तो उज्ज्वल तड़ित्वर्ण का पीताम्बर धारण कर रहे हैं, हे मन! उन्हीं श्रीराधा रतिलम्पट सुन्दर विग्रह (श्रीश्यामसुन्दर) का श्रीवृन्दावन में स्मरण कर।

चारों ओर महागौरकांति विस्तारकारी, प्रेमामृत रस के महा समुद्र का अति महासार-स्वरूप, श्रीवृन्दावन में अनेक कलाओं द्वारा मोहिनी (सखी) वृन्दों से सेवित, श्यामवर्ण नव युवक की चित्तचोर श्रीकिशोरी जी जय हो।

किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ ...

वृन्दावन महिमामृत शतक 9 . 1

हे किशोरी ...

हास्य, नृत्य तथा गान करते-करते, अतिशय पुलकित तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों से बार-बार स्तम्भ, स्वेद आदिति मधुर भावयुक्त होकर, अपने प्रियतम श्रीराधापति का ध्यान करते हुए रसोन्मत होकर मैं कब दीर्घकाल तक श्रीवृन्दावन में वास करूँगा।

श्रीराधा-चरण-कमलों के लावण्यलीला-माधुर्य सागर में मेरा चित्त कब अतिशय मत्त होकर अवगाहन करेगा? समसत महत् वस्तुओं को यहां तक कि मोक्षादि सम्पत्ति को भी तृणवत् परित्याग करके श्रीवृन्दावन में कब वास कर जीवन अतिवाहित कर सकूँगा।

सुन्दर मधुर ध्वनि युक्त मंजीर-शोभित श्रीपाद-पद्म की शोभा से, ऊपरी-भाग में गौरकांति तथा तल-देश के रक्तवर्ण माधुर्यप्रवाह से स्फूर्तिशील पादांगद की मणिकांति से तथा दिव्य मादांगुली-समूह से रमणीय श्रीराधा ने निज वन में विचरणस करते-करते मेरे मन को चुरा लिया है

श्रीराधाजी के चरण-कमलों के रस के महामाधुर्य में भ्रमण को उन्मत करके, लोक-प्रसंग तथा वेद-प्रसंग को भी निरतिशय तोड़ कर, किसी मधुरातिमधुर भाव की निरन्तर चित्त में चिन्ता करते-करते एवं विश्व के चित्त एवं नैनों को आकर्षण करने वाली आकृति-विशिष्ट धारण कर क्या मैं श्रीवृन्दावन मे रह सकूंगा।।

श्रीराधा जी का वह कैशोर, वह सुगौर-अंगों की विधि भंगी, वह सौंदर्य, वह अमृतवत् शीतल सुन्दर-बोलिन तथा उन सकल अश्रु-रोमांच आदि भावों को स्मरण कर कौन नहीं मुग्ध होगा।

नीलकमल-वर्ण श्रीहरि जिसके सान्द्र मधुररस से लोभायमान रहते हैं, अनन्त प्रकाश्यमान प्रफुल्लित स्वर्णपद्म के अन्तरीयकोशवत् श्रीराधा के मुखचुन्द्र का स्मरण कर।

चैतन्य और जड़ के भेद को दूर करने वाले स्वर्णोज्ज्वल चन्द्रिका प्रसारित करने वाले, श्रीकृष्ण-चकोर के एकमात्र जीवन स्वरूप श्रीराधिका मुखचन्द्र का स्मरण कर।।

परिपूर्ण मधुरतम प्रेभामृत की सार सुंदर आकृति विशिष्ट श्रीवृन्दावनेश्वरी नित्याकिशोरी को मैं नमस्कार करता हूँ।

चित्-जड़ के भेद को आच्छादन करने वाले परम उच्छलित श्रीराधा के आस्वाद्य महा प्रेमरस-सार सुगौर चन्द्रिका-समुद्र को स्मरण कर।

अप्राकृतिक नवीन युवतियों के रूप को तृणवत् तुच्छ करने वाली, एवं जिसके चरण वनभूमि में विचरण करते समय मोहिनी सखियों द्वारा शीश पर धारण किए जाते हैं, वह मेरी स्वामिनी श्रीराधा प्रकाशित हो रही हैं।।

त्रिभुवन को मोहिन करने वाली महा विदग्धा एवं नवतरुणीवृन्दों की आराध्य सर्वोज्ज्वल श्रीराधाजी का श्रीवृन्दावन में स्मरण कर।।

उन्मद, मधुर, एकमात्र प्रेमानन्द-मधुर प्रवाहित करने वाले श्रीराधा के चरण कमलों में विश्राम पाने वाली दासीगणों को मैं नमस्कार करता हूँ।

सर्व धर्महीन होकर भी, सब कुकर्म करतू हुए भी, ‘‘राधा’’ इन दो अक्षरों का सिद्ध-मन्त्र उच्चारण करके क्या तू सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता?

हे श्रीवृन्दावन! आप में वास करने के लिए इन्द्रियो के पराधीन होकर परिचय दिया है, अतः मुझे त्याग मत देना।

हे श्रीवृन्दावन! चांडाल से भी महा अधम मैंने आपके प्रति कितने कोटि कुकुर्मों का आचरण नहीं किया है? ईश्वर की भी शरणस मैं ग्रहण नहीं करता, आप मेरा कुछ विधान करेंगे क्या?।

हे श्रीवृन्दावन! अति दुर्लभ पद (धाम) में वास करने की मेरी आशा है, किन्तु सब इन्द्रियों के शत्रु होने से वह भी मेरे लिए अति कठिन हो रहा है, हाय! मेरी क्या गति होगी।।

मुझे कोटि नरक भोगने पड़े, मनोरथों की प्राप्ति न हो,स अथवा ईश्वर मुझ पर दया न करें, किन्तु श्रीराधा-चरण-कमलों में मेरी लालसा कभी कम न हो।।

श्रीवृन्दावन में भ्रमण करते हुए मनोहर अंगी श्रीराधा जी के नूपुरों की मनोहर-ध्वनियुक्त चरणों की शोभा श्रीहरि के मन एवं नेत्रों को भी लुभाने वाली है, वही मेरे प्रेमातुर हृदय में स्फुरित हो ।

कैशोर अवस्था के कांति-मद-भंगी-रूप-तरंगों से परिपूर्ण माधुर्य-समुद्र में निमग्ना जो हरि-भाव मूर्ति है, एवं जिसकी भ्रू भंगिमा के इशारे से ही अनन्त कोटि कामदेव नाचने लगते हैं, वह रसमयी श्रीराधिका मेरे हृदय में प्रकाशित हों।।

सदा सर्वदा जिसका प्रत्येक अंग उच्छलित हो रहा है, दिव्यकैशोर-रूप से जो नित्य वृद्धिशील हो रहा है, नैन - भंगियुक्त लजीली हाँसी से मधुतर शोभामय मुखचन्द्र की कांति से जो प्रकाशित हो रहा है, एवं आश्चर्यमय बोलनि-चलन आदि की अखिल रसमयी चेष्टाओं से स्फुरित हो रहा है, श्रीराधा के उस माधुर्य-समुद्र में मेरा भाव-माधुर्ययुक्त मन निमग्न हो ।

किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ ... तृषित

वृन्दावन महिमामृत शतक 9 . 2

प्रबोधानन्द सरस्वती जु कितना विनम्र वन्दन करते है न ...

श्रीराधा जी का वह कैशोर, महामोहन मधुर दशा के आश्चर्यमय वे अंग, वह आश्चर्यमय अपांगभंगी, वह मधुर लज्जायुक्त मोहन मन्द-हास्य, वह सौंदर्य, वह कांति-विस्तार, वह बहुविध अंगभंगी-तरंग-समूह एवं वह श्यामानुराग की प्रथम विकार-राशि मेरे हृदय में प्रतिभात हों।

अनन्त सौंदर्य प्रवाहमय, कनक-मणि शिला द्वारा धृष्टकुंकुम के समान गौर-कांतियुक्त मधुरतर अनन्त महाकांति समुद्र प्रति अंग से विकीरणकारिणी एवं श्यामसुन्दर के प्रेमातिशय्य रूप मधुमद के हेतु विचित्र आकृतिधारणी प्राणेश्वरी श्रीराधा की सर्वचेष्टाओं का अद्भुत माधुर्य सर्वदा मेरे मन को विस्मित किया करे।

स्म अत्युत्तम धामों के ऊपर आनन्द साम्राज्ययुक्त श्रीवृन्दावन शोभित हो रहा है, इसी स्थान पर ही सर्वाश्चर्यमय श्रीयुगलकिशोर विराजमान है, उन श्रीयुगलकिशोर को प्राण स्वरूप मानने वाली जो श्रेष्ठाभावयुक्ता श्रीललितादि सखियां हैं। उनकी आज्ञानुसारन चलते हुए जो अन्तर-स्वीय-अभीष्ट स्वरूप देह में स्फूर्तियुक्त हाकर रसकमय चेष्टावान हो सकता है, उसको नमस्कार करता हूँ।।

मधुर शब्दायमान मणि-नूपुरों से भूषित श्रीराधा जी के चरणकमलों के सौन्दर्य का निरन्तर चिन्तन करते करते इस श्रीवृन्दावन में मेरा समय व्यतीत हो।।

सुस्निग्ध कान्तिधारा, परिमल, सौन्दर्य एवं सौकुमार्य्य आदि गुणयुक्त श्रीराधा जी के उन निनादयुक्त-नूपुर-भूषित-अनुपम चरण-कमलों की मुझे स्फूर्त्ति हो।।

तलवों में अरुणता, ऊपर के भाग में गौरवर्ण एवं मधुर लास्य के द्वारा श्रीहरि के मन को चुराने वाले, श्रीराधाजी के सुन्दर चरण-कमलों को मेरा मन जपता रहे।

श्रीराधाजी के चरणकमलों की अंगुलियों के पादांगद तथा नूपुरों की रत्नमय किरणों से नख-मणिचन्द्र से उच्छलित कांति की उद्भासिता तरगों को देखने की मैं इच्छा करता हूं।।

श्रीकृष्ण-मधुकर को लुभानेवाले किन्तु लक्ष्मी को अलभ्य, ऐसे अत्यन्त सौरभ्युक्त तथा सान्द्रानन्दरसपूर्ण श्रीराधा के चरण कमलों को स्मरण करता हूँ।

अत्यन्त कोमल अंगुली रूप पल्लवयुक्त, नखचन्द्रों से भूषित, मधुर, मणिनूपुरों से मनोहर श्रीराधाजी के चरणयुगल मेरे हृदय-मन्दिर में प्रकाशित हों।।

श्रीराधाजी के चरणकमलों के नूपुरों के शब्द से मुरली के मूक (शब्द रहित) हो जाने से जब श्रीहरि बार-बार फूँकने पर भी व्यर्थ-मनोरथ हो गये, तब समस्त सखी-मण्डली हँसने लगी-यह लीला तू स्मरण कर।

हे किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ ...