Monday, 19 September 2016

गोपीभाव की प्राप्ति

गोपीभाव की प्राप्ति

सप्रेम हरिस्मरण! पत्र मिला। आप गोपी-प्रेम प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं- यह तो बड़े सौभाग्य की बात है। उसके लिये आपने जो तीन प्रश्न पूछे हैं, उनके विषयों में मैं अपने विचार नीचे लिखता हूँ-
गोपी-प्रेम की प्राप्ति सभी को हो सकती है। बिना इस भाव की प्राप्ति हुए तो प्रियतम की अन्तरंग लीलाओं में प्रवेश ही नहीं हो सकता। परंतु यह सर्वोच्च सौभाग्य किस जीव को कब तक प्राप्त होगा- इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता। यह तो उन प्राणनाथ की अहैतु की कृपा पर ही अवलम्बित हैं वे जब कृपा करके जिस जीव को वरण करते हैं, तभी उसे यह सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होता है। जीव तो अधिक-से-अधिक अपने को उनके चरणों में समर्पित ही कर सकता हैं समर्पण ही इसका साधन है। साधन इसलिये कि जीव अधिक-से-अधिक इतना ही कर सकता है। परंतु वास्तव में यह भाव तो साधन-साध्य नहीं है, केवल कृपासाध्य ही है।
गोपी-भाव की प्राप्ति सब कुछ त्यागने पर तो होती ही है, परंतु यह सर्वस्व-परित्याग किसी बाह्य क्रिया पर अवलम्बित नहीं है। यह घर में रहते हुए भी हो सकता है और वन में जाने पर भी नहीं होता। गोपियाँ कब वन में गयी थी। यह तो भाव की एक परमोत्कृष्ट अवस्था है, जो प्रेम का परिपाक होने पर ही होती है। प्रेमी के लिये तो सब कुछ प्राणनाथ का ही है; उसका है क्या, जिसे वह छोड़े। छोड़ने के साथ तो सूक्ष्मरूप से ममता का पुट लगा हुआ है। जिसकी किसी में ममता नहीं है, वह किसे छोड़ेगा? अतः छोड़ने का स्वाँग न करके प्रेम की अभिवृद्धि ही करनी चाहिये। जो प्रियतम के चरणों में आत्मोत्सर्ग कर देता है, उसका अपना कुछ रहता ही नहीं, सब कुछ प्यारे का ही हो जाता है।
गुरु, वेष और स्थान भाव की प्राप्ति के साधन अवश्य हैं; परंतु अधिकतर इनके द्वारा लोगों को एक प्रकार की संकीर्ण साम्प्रदायिकता ही हाथ लगती है। जिसे स्वयं गोपी-भाव की प्राप्ति नहीं हुई, वह दूसरों को कैसे उसकी प्राप्ति करा सकता है और गोपी-भाव-प्राप्त गुरु भी कहाँ मिलेगा। रही वेष की बात, तो प्रियतम की रुचि जाने बिना कैसे निश्चय किया जाय कि वे किस रूप में आपको देखना चाहते हैं। प्रियतम का स्थान ही इस लोक से परे है; इस लोक का वृन्दावन तो केवल उसका प्रतीक है। वह नित्य एवं चिन्मय वृन्दावन तो सर्वत्र है, उसकी उपलब्धि केवल भावमय नेत्रों से ही हो सकती है। भावुक उस प्रियतम के धाम से एक क्षण भी बाहर नहीं रह सकता।
इनके नाम, सेवा आदि में व्यतिक्रम भी माना जाता है।
प्रधान अष्टमज्झरियों नामों में भी माना गया है, मज्झरियों की उपर्युक्त सूची के स्थान पर ये नाम भी माने गये हैं- (1) श्रीअनगंमज्झरी, (2) श्रीमधुमतीमज्झरी, (3) श्रीविमलामज्झरी, (4) श्रीश्यामलामज्झरी, (5) श्रीपालिकामज्झरी, (6) श्रीमगलामज्झरी, (7) श्रीधन्यामज्झरी, (8) श्रीतारकमज्झरी । तथा इन प्रत्येक के अनुगत दो-दो मज्ज्झरियाँ अथवा प्रिय नर्मसखियाँ क्रमश: .

इस प्रकार मानी गयी हैं- (1) श्रीलवंगमजरी, (2) श्रीरूपमंजरी, (3) श्रीरसमंजरी, (4) श्रीगुणमंजरी, (5) श्रीरतिमंजरी, (6) श्रीभद्रमंजरी, (7) श्रीलीलामंजरी, (8) श्रीविलासमंजरी, (क), (9) श्रीविलासमंजरी (ख), (10) श्रीकेलिमंजरी, (11) श्रीकुन्दमंजरी, (12) श्रीमदनमंजरी, (13) श्रीअशोकमंजरी, (14) श्रीमजुंलालीमंजरी, (15) श्रीसुधामुखीमंजरी, (16) श्रीपहाममंजरी।
प्रधान अष्ट सखियों का क्रम भी कहीं-कहीं ऐसा माना गया है- श्रीरगंदेवी, श्रीसुदेवी, श्रीललिता, श्रीविशाखा, श्रीचम्पकलता, श्रीचित्रा, श्रीतुगंविद्या, श्रीइन्दुलेखा अथवा श्रीललिता, श्रीविशाखा, श्रीचम्पकलता, श्रीइन्दुलेखा, श्रीतुगंविद्या, श्रीरगंदेवी, श्रीसुदेवी, श्रीचित्रा। कहीं-कहीं प्रधान अष्ट सखियों के नामों में भी अन्तर माना गया है।
सखियों और मज्जरियों कीसंख्या इतनी ही नहीं है। ये तो मुख्य आठ-आठ हैं। सिद्धदेह में मजरियों की स्फूर्ति और तद्रूपता प्राप्त हो जाती है। यह परम गोपनीय साधन-राज्य का विषय है। यह बात जान लेने की है कि इस राग-मार्ग में-रति, स्न्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव और महाभाव-ये आठ स्तर स्तर माने गये हैं। इनमें रति प्रथम है और वह रति तभी मानी जाती है जब कि इस और परलोक के-ब्रह्मलोक तक समस्त भोगों से तथा मोक्ष से भी सर्वथा विरति होकर केवल भगवत्चरणारविन्द में ही रति हो गयी हो। साधक के चित्त में निय-निरन्तर केवल यही धारणा दृढ़ता के साथ बद्धमूल हो जाय कि इस लोक में, परलोक में सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा एकमात्र श्रीकृष्ण ही मेरे हैं। श्रीकृष्ण के सिवा मेरा और कोई भी, कुछ भी, किसी काल में भी नहीं है। अतएव यहाँ दूसरी वस्तुमात्र तथा तत्व का अभाव हो जाता है; तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या और असूया आदि दोषों के लिये तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। ये तो साधकदेह में ही समाप्त हो जाते हैं। सिद्ध देह में तो नित्य-निरन्तर श्रीकृष्णानुभव के अतिरिक्त और कुछ रहता ही नहीं।

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