नित्य विहार भाग 3
सघन कुंज के छिद्रों से युगल की अद्भुत तन-कांति को देखकर उसके नेत्र तृप्त नहीं होते।’
क्रमशः ..
निरखत नित्य विहार, पुलकित तन रोमावली।
आनंद नैन सुढ़ार, यह जु कृपा हरिवंश की।।
छिन-छिन रुदन करंत, छिन गावत आनंद भरि।
छिन-छिन हहर हसंत, यह जु कृपा हरिवंश की।।
छिन-छिन विहरत संग, छिन-छिन निरखत प्रेम भरि।
छिन जस कहत अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की।।
निरखत नित्य किशोर, नित्य-नव-नव सुरति।
नित निरखत छबि भोर, यह जु कृपा हरिवंश की।।
त्रिपिन न मानत नैन, कुंज रन्ध्र अवलोकि तिन।
यह सुख कहत बनै न, यह जु कृपा हरिवंश की।।
नित्य विहार सेवा की प्राप्ति ही राधा वल्लीाीय उपासना मार्ग का लक्ष्य है। जिस सेवा-भाव की नींव प्रकट सेवा में रखी जाती है वह नित्य विहार सेवा में पहुँच कर सिद्ध एवं इन्द्रिय गोचर हो जाता है। तीनों सेवाओं में भाव तो एक ही है किन्तु वह क्रमशः अधिक सामथ्र्यवान एवं सहज बनता जाता है। श्री लाडि़ली दास ने बतलाया है कि ‘प्रकट सेवा में रति किंवा भाव की स्थिति कूप-जल के समान होती है, भावना में वह नदी के समान होती है और उसके ऊपर नित्य विहार रस में समुद्र के समान हो जाती है।'
प्रकट भाव जल कूप लौं नदी भावना जान।
तापर नित्य विहार रस ज्यौं समुद्र रति मान।।
भाव की एकता की दृष्टि से तीनों सेवायें समान रूप से महत्व पूर्ण हैं और इनमें से किसी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। श्री लाडि़ली दास ने स्पष्ट कहा है ‘कहीं घुटने तक, कहीं ग्रीवा तक और कहीं अमित जल के तीन रूपों में रहने वाली यमुना जिस प्रकार एक है उसी प्रकार प्रकट सेवा, भावना एवं नित्य-विहार एक हैं।’
घौंटू ग्रीवा अमित जल यमुना तीन प्रकार।
सेवा प्रकट अरु भावना जो सो नित्य विहार।।
तीनों सेवाओं में एक उज्जवल प्रेम विलास ही सखी भाव के द्वारा सेव्य है और इसी के अनुकूल सेवा-पद्धति का निर्माण हुआ है। प्रकट सेवा में शालिग्राम शिला, गरुड़, शंख आदि का त्याग एवं एकादशी के दिन महाप्रसाद ग्रहण की व्यवस्था, इसी भाव के अनुकूल रहने के लिये किये गये हैं। पूजा-पद्धति में वैदिक एवं तांत्रिक मंत्रों के स्थान में इस भाव से भावित पदावली का गान भी इसी दृष्टि से रखा गया है। तीनों सेवाओं में एक ही भाव एवं सेवा-पद्धति का दृढ़ अंगीकार, वृन्दावन रस उपासना-मार्ग की अपनी विशेषता है जो अन्य उपासना-मार्ग के तुलनात्मक अध्ययन में स्पष्ट होती है। जयजय श्यामाश्याम ।
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