Thursday, 15 September 2016

व्रज भूमि भाग 1 करपात्री जी

व्रज-भूमि

श्रीव्रजराज-किशोर के प्रेम में विभोर भावुकों को सर्वस्व श्रीव्रजत्तव, अपार, महामहिम, वैभवशाली तथा प्रकृति-प्राकृत पपंचातीत है। साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द वृन्दावनचन्द्र के घ्वज-व्रजांगकुशादियुक्त, परमपावन, योगीन्द्र-मुनीन्द्र-ब्रह्मरुद्रेन्द्रादिवन्द्य पादारविन्द से अंकित व्रजतत्व के सम्बन्ध से भूमि ने अपने को परम सौभाग्यशालिनी समझा है।

अहो! जिसके कृपा-कटाक्ष की प्रतीक्षा ब्रह्मेन्द्रादि देवाधिदेव भी करते रहते हैं, वह वैकुण्ठाधिष्ठात्री सर्वसेव्या महालक्ष्मी ही जहाँ सेविका बनकर रहने के लिये लालायित है, उस सवोच्च-विराजमान व्रजभूमि के अद्भुत वैभव का कौन वर्णन कर सकता है? परमाराध्यचरण श्रीव्रजदेवियों ने वृन्दावन-नव-युवराज नन्दनन्दन के प्रादुर्भाव से व्रज की सर्वाधिक विजय बतलायी है-

“जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।”

लोक और वेद से अतीत दिव्य-प्रेमवती व्रजयुवतीजन वहाँ प्राणपण से अपने प्राणनाथ प्रियतम परप्रेमास्पद के अन्वेषण में प्रेमोन्माद से उन्मत्त होकर इधर-उधर डोल रही हैं। लोक तथा वेद में यह प्रसिद्ध ही है कि ‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति’ अर्थात् संसारभर की समस्त वस्तुएँ स्वात्म-सम्बन्ध से ही प्रेमास्पद होती हैं।

स्वदेह, स्वपुत्र, स्वकलत्र एवं गेह-ग्राम-नगर-राष्ट्र यहाँ तक कि इष्ट देवता भी स्वात्म-सम्बन्धी ही प्रिय होते हैं। परमात्मा के स्वरूपान्तरों में भी वैसा प्रेम नहीं होता, जैसा स्वात्म-सम्बन्धी इष्टदेव में होता है। जब शर्करादि मधुर पदार्थों के सम्बन्ध से अमधुर चूर्णादि भी मधुर प्रतीत होते हैं तब शर्करादि स्वयं निरतिशय माधुर्य से सम्पन्न हो-यह बात जैसे निर्विवाद सिद्ध है, वैसे ही जिस स्वात्मतत्व के सम्बन्ध से अनात्मा भी प्रेमास्पद होता है,
वह स्वात्मतत्व स्वयं निरतिशय निरुपाधिक प्रेम का आस्पद है-यह बात भी निर्विवाद सिद्ध है। परन्तु, ये व्रजसीमन्तिनियाँ तो अपने जीवनधन अशेषशेखर नट-नागर के लिये ही अपने स्वात्मा से भी प्रेम करती हैं। उनका भाव है कि “हे दयित! हे चपल! आपके सुख के लिये ही हम इन प्राणों को धारण करती हैं। हृदयेश्वर! यदि यह देह, प्राण, आत्मादि आपके उपयोग में न आयें तो ये किस काम के? हम लोग तो आपके लिये ही इन सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौकुमार्य आदि गुणों की रक्षा करती हैं। हे प्राणवल्लभ! नन्दलाल! समस्त सौख्यजात तथा तच्छेषी आत्मा-ये सभी आपके लोकोत्तर मनोहन मन्दहास-माधुर्य-सुधासिन्धु पर न्योछावर हैं। किंवा, पादारविन्दगत नखमणि-ज्योत्स्ना पर राई-नोन के समान वारने योग्य हैं।”

धन्य है वह मंगलमय व्रजधाम जो ऐसी व्रजराजकुमार-प्रेयसी व्रजदेवियों के पादपद्म से समलंकृत हैं; जहाँ नयनाभिराम घनश्याम मनमोहन की मोहिनी मुरलि का की मधुर ध्वनि से त्रिलोकी के चराचर चकित हो रहे हैं; जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र-मुखपंकज-निर्गत वेणुगीत-पीयूष से पाषाण द्रवीभूत होकर बह चले, तथा प्रेमार्त होकर कलिन्द-नन्दिनी महेन्द्र-नीलमणि के सदृश घनीभूत हो गयी; जहाँ गौएँ छविधाम घनश्याम के परम कमनीय माधुर्य का अनिमीलित नयन-पुटों से अधैर्य के साथ पान कर रही हैं, और श्रोत्रपुटों से वेणुगीत पीयूष का आस्वादन कर रही हैं; जहाँ प्रेमविभोर वत्सवृन्द सुतवत्सला जननी के प्रेमप्रसृत स्त्न्यामृत-पान के लिये प्रवृत्त हुए, परन्तु वंशी-निनाद-मन्त्र से मुग्ध हो गये और उनके मुख से दुग्ध बाहर गिरने लगा, अन्दर ले जाने की क्रिया को वे भूल गये; जहाँ के मृग-विहंग भी विविध प्रकार के उपचारों से प्रियतम की प्रसन्नता के लये व्यग्र हैं।

जिस परम-पावन धाम में तरु-लता-गुल्मादि भी वेणुछिद्र-निर्गत शब्द-ब्रह्मरूप में परिणत भगवदीय अधर-सुधा का पान कर कुड्मल-पुष्प-स्तबकादिरूप रोमान्चोद्गम छद्म से, तथा मधुधारारूप हर्षाश्रुविमोक से, अपने दुरन्त भाव का व्यक्तीकरण कर रहे हैं; जिस धाम में प्रेमातिशय से प्रभु पादपपद्माकिंत व्रजभूमिगत ब्रह्मादिवन्द्यरज के स्पर्श के लिये आज भी समस्त तरु-लताएँ विनम्र हो रही हैं; अथवा मनमोहन के दिये हुए निर्भर प्रेम के भास से ही विनम्र हो रही हैं; जिस व्रज की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक परमाणु, बलात् खेंच कर जीवन-धन की स्मृति उत्पन्न कर प्रियतम के सम्मिलन की उत्कण्ठा को उत्तेजित करते हैं। क्रमशः

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